पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कलंक बन रही काली नदी, 1200 गाँव बीमारियों की चपेट में

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मेरठ/मुजफ्फरनगर। गन्ने का गढ़ और चीनी का कटोरा कहे जाने वाले पश्चिमी यूपी के लिए काली नदी अभिशाप बन गई है। कागज और चीनी मिलों से निकलने वाले केमिकल युक्त पानी से गांवों में पानी कि किल्लत तो हुई है, हजारों लोग त्वचा रोग, सांस और कैंसर का दर्द झेल रहे हैं।

दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर जिले के रतनपुरी गांव के हर्ष सोम (19 वर्ष) की पूरी पीठ पर दाने हैं तो कमर के नीचे के हिस्से में फंगल इंफेक्शन हो गया है। हर्ष के पड़ोसी मोनू के शरीर भर में दाद है। जगह जगह फुंसियां निकल गई हैं, जिसमें पस भरा है। गांव के ज्यादातर लोग इसी तरह के एलर्जी, दाद और सांस के रोग से परेशान हैं। अपनी साड़ी का पल्लू हटाते हुए मदनवती (55 वर्ष) जो पीठ दिखाती हैं। उसे देखकर आप समझ जाएंगे, इस गांव के लोग किस दर्द में जीने को मजबूर हैं। हर्ष जैसे लोग सिर्फ दाद-खाज़ खुजली के इलाज के नाम पर हर महीने 1500-2000 रुपए खर्च करते हैं।

दाद और एलर्जी से पीड़ित स्थानीय लोग

सिर्फ रतनपुरी ही नहीं पश्चिमी यूपी के मुज्फफरनगर, मेरठ, बागपत, शामली, गाजियाबाद समेत 8 जिलों के करीब 1200 से अधिक गांवों में यही हाल है। रतनपुरी निवासी बुजुर्ग जगदीश सोम (81 वर्ष) पत्नी दयावती की मौत के बाद सदमे में हैं। घर के बाहर लगे हैंडपंप को दिखाते हुए वो कहते हैं, “सब कुछ इस दूषित पानी की वजह से हो रहा है। पत्नी को कैंसर हुआ था। यह नदी (काली नदी) हमारे लिए ज़हर हो गयी है। हमारे बच्चे अपने ज़िंदगी का कुछ दिन नहीं देख पाते हैं कि उन्हें अभी से ही कैन्सर हो जा रहा है। इसी साल मेरे ही गांव से 50 लोगों की मौत हुई है।”

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मुजफ्फरनगर के जानसठ तहसील के अंतवाड़ा गांव के जंगल से निकलने वाली काली नदी करीब 300 किलोमीटर का सफर तय कर कन्नौज के पास गंगा में मिलती है। लेकिन, इससे पहले इसमें कई कागज और गत्ता मिल, चीनी मिल, बूचड़खानों और औद्योगिक मिलों केमिकल युक्त पानी और कस्बों के नालों का गंदा पानी गिरता है, जिससे इस नदी का पानी इसी के नाम की तरह काला हो गया है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार काली नदी में जिन उद्योगों का प्रदूषित पानी गिरता है वो 17 सबसे ज्यादा विषैला कचरा छोड़ने वाले उद्योंगों में शामिल हैं।

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काली नदी

केंद्रीय भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार इस नदी के पानी में अत्यधिक मात्रा में लैड, मैग्नीज व लोहा जैसे भारी तत्व व प्रतिबंधित कीटनाशक अत्यधिक मात्रा में घुल चुके हैं।इसका पानी पीने तो दूर कपड़े धोने के भी लायक नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ व गाजियाबाद क्षेत्र के आस-पास 30-35 मीटर नीचे तक की गहराई में भारी तत्व तय सीमा से अत्यधिक मात्रा में पाए गए हैं। काली नदी क्षेत्र से एकत्रित भूजल नमूनों का पी एच 7.0 से 8.2 के बीच पाया गया है यानी जल अम्लीय है। पीने योग्य पानी का पी एच 7.0 होता है। लेकिन रतनपुर के लोगों के पास मजबूरी है, उन्हें यही पानी पीना है और नतीजे में रोग के दर्द भरी जिंदगी जीना है।

हैंडपंप से निकला हुआ पीला पानी

इसी नदी के साए में 7 दशक से ज्यादा का वक्त बिता चुके नसिर अंसारी (75 वर्ष) कहते हैं, “10 साल पहले तक नदी का पानी इतना साफ़ था कि अगर दस पैसे का सिक्का फेंक देते थे तो वो भी चमकता हुआ दिखाई देता था। इसे ही पीते थे, नहाते थे और खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते थे। लेकिन अब इसके पास जाने में डर लगता है। पहले नदी गंदी हुई फिर धरती का पानी.. और अब देखो हमारे नलों से भी पीला-पीला पानी निकलता है, जिसे पीकर बीमार पड़ना तय है।”

साफ पानी के लिए दूर जाना पड़ता है

पश्चिमी यूपी के लिए कलंक कही जा रही काली नदी अब नदी कम नाला ज्यादा नजर आती है, जिसमें गाढ़ा काला और बुजबुजे वाला बदबूदार पानी बहता है। पर्यावरण के लिए काम करने वाली मेरठ की एक ग़ैर सरकारी संस्था नीर फ़ाउंडेशन के द्वारा 2015-16 में कराए गए एक शोध के मुताबिक़ हैंडपंप के पानी में लोहे की मात्रा 0.35 भाग प्रति दस लाख थी, जो की पानी को लाल भूरे रंग में परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त है। रामपुरा गांव में लैड(सीसा) की मात्रा 0.5 भाग प्रति दस लाख था। भारतीय मानक पेयजल निर्देशन,1991 के अनुसार, पीने के पानी में सीसा की अधिकतम वांछनीय सीमा 0.05 भागों प्रति मिलियन है। यानि काली नदी के आसपास के इलाकों के पानी में सांस और कैंसर समेत कई बीमारियां देने वाले लैड की मात्रा सामान्य से दस गुनी ज्यादा है

नीर संस्था के रमन कांत कहते हैं, “काली नदी इस पूरे इलाके के लिए कलंक जैसी हो गई है। औद्योगिक इकाइयां दूषित पानी और कचरे को सीधे नदी में बहा रही हैं। मिलों के साथ कमेलों (स्लाटर हाउस) का खून और पशुओं के टुकड़े नदी में जाकर उसे और गंदा और संक्रामक कर रहे हैं। यही काली नदी का पानी गंगा में जाता है, जब तक काली जैसी नदियां साफ नहीं होगी गंगा भी साफ नहीं होगी।”

हाल ही में रमन कांत कि एक जनहित याचिका पर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 24 मई 2017 को राज्य सरकार और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दिया कि वे क्षेत्र के सभी ऐसे हैंडपम्प को सील करें जो दूषित पानी देते हैं और जल्द से जल्द पानी की जाँच करें। इस पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव राजीव उपाध्याय का कहना है की इन क्षेत्रों में नमूना लेने  का काम चल रहा है। इस दौरान जिस भी हैंडपम्प का पानी दूषित पाया गया उन्हें सील किया जाएगा। हालाँकि ये काम कब तक पूरा हो जाएगा इसका अभी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है।

लेकिन लोगों की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती। खुद स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अधिकारी मानते हैं, कि त्वचा रोग की समस्या बढ़ रही हैं लेकिन हैरानी की बात ये है कि मुजफ्फरनगर जिले में एक भी त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं हैं। मुजफ्फरनगर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. पीएस मिश्रा ने फोन पर गांव कनेक्शऩ को बताया, प्रदूषित पानी के चलते ये समस्या है। गर्मियों में दिक्कत बढ़ जाती है। हम लोग प्रभावित जिलों में कैंप लगाते हैं। एनजीटी के अधिकारियों के साथ निरीक्षण भी कर रहे हैं। हमने शासन ने जिले में त्वचा रोग विशेषज्ञ भेजने की मांग की है।”

ऐलर्जी से पीड़ित महिला 

क्या कहते हैं नियम-

पर्यावरण संरक्षण नियम,1986 के मानकों के हिसाब से उद्योगों से निकलने वाले कचड़े को साफ़ करने के बाद छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन पूर्व कई फैक्ट्रियां पकड़ी गई हैं जो अंदर ही बोरिंग करवाकर पानी को जमीन में भेज रही थीं, जबकि कचरे को नालों में फेंके जाने का काम बदस्तूर जारी है।

मालूम हो कि राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण (एनजीआरबीए) के तहत इस नदी को साफ़ करने का लक्ष्य रखा गया है। इस नदी के सुधार के लिए मानवाधिकार आयोग के दबाव में उत्तर प्रदेश सरकार के नियोजन विभाग द्वारा नदी को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए 88 करोड़ रूपयों की योजना बनाई गई है। इस कार्य हेतु राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय, भारत सरकार व जापान बैंक आॅफ इंटरनेशनल को-आॅपरेशन से इस कार्य हेतु राशि उपलब्ध कराने का आग्रह किया गया है।

पानी की समस्या, प्रदूषण और उससे जुड़ी ख़बरों के लिए पढ़ते रहिए गांव कनेक्शन की सीरीज, पानी की कहानियां

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