अभयानंद कृष्ण
गोरखपुर। मतदान प्रतिशत को लेकर आयोग और जिला प्रशासन की बातों में अंतर, गणना के दिन जिलाधिकारी का रवैया और पार्टी के अंदरखाने की तमाम कवायद और दावों के बीच आखिर भाजपा के लिए प्रतिष्ठित सीट बन चुके गोरखपुर के उपचुनाव का नतीजा समाजवादी पार्टी के प्रवीण निषाद के पक्ष में आया। इसके साथ ही राजनैतिक गलियारे में महीने भर पुरानी बहस नए मोड़ से आगे बढ़ चली।
गोरखपुर के सांसद की कुर्सी पर लगातार काबिज़ रहे योगी आदित्यनाथ के सूबे की मुखिया की कुर्सी सम्भालने के बाद बीते 11 मार्च को यहां उपचुनाव हुए। भाजपा ने अपने पुराने और निष्ठावान सिपाही उपेंद्र दत्त शुक्ल पर दांव लगाया। जबकि कांग्रेस ने डॉ. सुरहिता करीम को प्रत्याशी बनाया, लेकिन सपा ने जिस नाम पर आजमाइश किया, वह नाम गोरखपुर में दो महीने पहले ही सम्पन्न एक गैर राजनैतिक नाम दिए गए जातिगत सम्मेलन का चमकता चेहरा बन चुका था।
उपचुनाव में भी यह फॉर्मूला आगे बढ़ा और बसपा के अलावा दूसरे कई दल भी सपा के साथ आ गए। हालांकि राजनीति के जानकार खासकर भाजपा के रणनीतिकार तब इस ओर बहुत ध्यान नहीं दिये। हालिया हुए त्रिपुरा और मेघालय चुनाव के नतीजों और योगी के बढ़ते कद ने कुछ इस तरह की खुशफहमी दी कि इस तरफ ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा गया। अब जब परिणाम बिल्कुल अनअपेक्षित आया है, बहस में कई तरह के तर्क सामने आ रहे हैं।
कहा जा रहा है कि उपेंद्र दत्त शुक्ल योगी की पसंद नहीं थे, लिहाज़ा प्रचार से इतर योगी ने कोई ऐसा प्रयास नहीं किया कि जीत तय हो सके। ऐसे में गोरखपुर जैसी आसान जीत भी हाथ से फिसल गई। भविष्य के चुनावों में योगी और मन्दिर की बात पार्टी के भीतर भारी रहे। योगी के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद ब्राह्मणों के नेता कहे जाने वाले हरिशंकर तिवारी के अहाते पर छापा और ठाकुर-ब्राह्मण जैसे मुद्दों ने अपनी जाति के उम्मीदवार को भी खुले मन से पसंद नहीं किया। ठाकुर समर्थक होने का आरोप योगी आदित्यनाथ के सियासी दामन से शुरू से चिपका रहा है।
सियासी समझदार यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यहां के लोगों में जिस स्वाभाविक अपेक्षा ने जन्म लिया, सरकार के तौर पर योगी उसे पूरा करने में असफल साबित हुए हैं।
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नतीजा सोशल इंजीनियरिंग से उपजा हो या फिर पार्टी के भीतर से जुड़ा हो, इतना तो तय है कि गोरखपुर की इस हार ने भाजपा को मंथन का एक ऐसा विषय दे दिया है जिस पर जरा भी उदासीनता भविष्य के लिए घाटे का बड़ा सौदा साबित हो सकती है।
मौका मिला, मंज़िल नहीं
कभी अपनी उपेक्षा से आहत होकर बागी बन चुके उपेंद्र दत्त शुक्ल को पार्टी ने इस बार मौका भी दिया तो मंज़िल नहीं मिल सकी। सौम्य और राजनीति के ईमानदार शख्स के रूप में उपेंद्र की छवि पार्टी के भीतर और लोगों के बीच भी निर्विवाद है।
इसके पहले उपेंद्र कौड़ीराम विधानसभा से तीन बार चुनाव लड़ चुके हैं। पहली बार वर्ष 1996 में यहां से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। वर्ष 2002 में भाजपा ने यहां से गौरी देवी को टिकट दिया, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। बसपा प्रत्याशी के रूप में रामभुआल विधानसभा पहुंचे, लेकिन तीन वर्ष बाद रामभुआल का चुनाव अवैध घोषित हो गया, जिसके बाद हुए उपचुनाव में उपेन्द्र दत्त शुक्ल को उम्मीद थी कि पार्टी उन्हें टिकट देगी।
लेकिन तब सांसद रहते योगी आदित्यनाथ ने यहां से अपने नज़दीकी शीतल पांडेय को टिकट दिला दिया। इससे उपेन्द्र इस क़दर नाराज हुए कि बागी बन बैठे। वह निर्दल चुनाव लड़ गए। चुनाव चिन्ह कुल्हाड़ी के साथ मैदान में उतरे उपेंद्र खुद तो नहीं जीत सके, लेकिन भाजपा के लिए हार की वजह जरूर बन गए। चुनाव बाद भाजपा में उनकी वापसी हुई। 2007 के चुनाव में वह भाजपा से टिकट लेने में तो सफल हुए, लेकिन नतीजा आया तो उन्हें तीसरा स्थान मिला।
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किसको मिले, कितने मत
भाजपा – 434632
सपा – 456513
कांग्रेस – 18858
नोटा – 8326
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