देश के कई राज्यों में गाँवों की महिलाओं के लिए कमाई का ज़रिया भी है जलकुँभी

भारत सरकार की 'जलज' परियोजना न सिर्फ जलीय प्रजातियों के संरक्षण में मदद कर रही है, बल्कि उन ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार का ज़रिया भी बन रही है जो जलकुंभी से टोकरियाँ, कटोरे, टी कोस्टर और फुट मैट बनाकर बाजारों में बेच रही हैं।
water hyacinth

भारत सरकार ने गंगा नदी के संरक्षण और पुनर्जीवित करने के अपने एक प्रोजेक्ट में ग्रामीण महिलाओं को शामिल किया है। इस पहल की बदौलत उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे छह राज्यों में 3,000 से ज़्यादा महिलाएँ न केवल गँगा को बचाने के काम में मदद कर रहीं हैं बल्कि उसे अपने लिए रोज़गार का एक ज़रिया भी बना लिया है।

भारत में जल निकायों में आमतौर पर मिलने वाले जलीय खरपतवार जलकुँभी को वह अपने हुनर के जरिए लॉन्ड्री बास्केट, टोकरियाँ, प्लेटें, कटोरे, चाय कोस्टर, कैरी बैग और फुट मैट जैसे उपयोगी उत्पाद तैयार कर रही हैं। इनकी बिक्री से उन्हें अच्छी खासी आमदनी हो जाती है।

झारखंड की शीलन देवी महिलाओं के उस समूह का हिस्सा हैं जो केंद्र सरकार की जलज परियोजना के साथ जुड़ी हुई हैं। इस परियोजना का मकसद गँगा और नदी के बेसिन में रहने वाले लोगों के बीच सहजीवी संबंध बनाना है और आजीविका के अवसरों को जलीय प्रजातियों के सँरक्षण के साथ जोड़ना है।

साहिबगंज जिले के मस्कलैया गाँव में रहने वाली 40 वर्षीय शीलन देवी पिछले एक साल से अपने गाँव और उसके आसपास के नदी तालाबों से जलकुँभी इकट्ठा कर, उनसे तरह-तरह के चीजें तैयार करती हैं। उन्होंने इन इको-प्रोडक्ट्स को बनाने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग ली है।

उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “तालाब से जलकुंभी निकालना एक मुश्किल काम है क्योंकि खरपतवार का निचला हिस्सा जड़ों में गहराई से जुड़ा होता है। इसे दराँती से बड़ी ही मुश्किल से निकाल पाते हैं। उसके बाद इस खरपतवार को धूप में सुखाने के लिए रख दिया जाता है और फिर मैं इससे चीजें बनाती हूँ।” उनके मुताबिक जलकुंभी की सूखी टहनियों से लॉन्ड्री बास्केट, प्लेटें, कटोरियाँ आदि बनाया जाता है।

उन्होंने कहा, “जब से मैंने काम करना शुरू किया, तब से मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ गया है; अब मैं भी पैसे कमाने लगी हूँ, मैं हर महीने लगभग 6,000 रुपये तक कमा लेती हूँ; दरअसल कमाई कितनी होगी, ये प्रोडेक्ट की डिमाँड पर निर्भर करता है।” शीलन देवी के पति मज़दूरी करते हैं और उनके तीन बच्चे हैं।

जल शक्ति मंत्रालय ने पिछले अगस्त गँगा नदी और उसकी सहायक नदियों के किनारे रहने वाले लोगों के लिए आजीविका के अवसर पैदा करने के लिए एक पहल ‘जलज’ शुरू की थी। स्थानीय लोगों को इसके लिए ट्रेनिंग दी गई और फिर उन्हें अपने साथ जोड़ा लिया गया।

यह पहल उत्तर प्रदेश (11 केंद्र), पश्चिम बंगाल (छह केंद्र), बिहार (पाँच केंद्र), उत्तराखंड (दो केंद्र), झारखंड (एक केंद्र) और मध्य प्रदेश सहित छह राज्यों में गँगा, यमुना, गोमती, हुगली और चंबल नदियों के किनारे बसे 26 गाँवों में शुरू की गई है।

देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) पर्यावरण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त सँस्थान है। यह संस्थान स्थानीय समुदायों के साथ काम करके परियोजना के कार्यान्वयन में भारत सरकार की मदद कर रहा है।

जलज परियोजना में महिलाओं को जलकुंभी से उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए ‘जलज उत्सवी महिला समूह’ केंद्र खोले गए हैं। झारखंड की शीलन देवी एक ऐसी ही महिला समूह का हिस्सा हैं।

वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के प्रोजेक्ट असिस्टेंट कॉर्डिनेटर 26 वर्षीय मयँक ओझा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “झारखँड में महिलाएँ कूड़ेदान, टोकरी, पेन स्टैंड, प्लाॅटर्स, लॉन्ड्री बास्केट, प्लेट, कटोरे, चाय कोस्टर, कैरी बैग और फुट मैट बना रही हैं। इनकी कीमत 300 रुपये से शुरू होती है। दरअसल प्रोडक्ट के हिसाब से कीमतें तय होती हैं।”

ओझा शुरुआत से ही जलज परियोजना के साथ जुड़े रहे हैं और उन्होंने ग्रामीण महिलाओं के लिए कई प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित की हैं।

ओझा ने कहा, “हम जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित करना चाहते हैं और ऐसा करने के लिए हमने तालाबों से जलकुंभी हटाने और उससे उत्पाद बनाने के बारे में सोचा; हमारा मकसद ग्रामीण लोगों को रोज़गार का एक ज़रिया देना और ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बनाने में मदद करना है।”

परियोजना के हिस्से के रूप में डब्ल्यूआईआई ने स्थानीय लोगों का एक ट्रेनिंग कैडर ‘गँगा प्रहरी’ बनाया। दरअसल ये गंगा प्रहरी वालियंटर होते हैं, जो स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जैव विविधता सँरक्षण और नदी को फिर से ज़िंदा करने का काम करते हैं।

जलज उत्सवी महिला समूह केंद्र ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण देता हैं और कार्यशालाएँ आयोजित करता हैं। इन केंद्रों पर महिलाएँ पहले गँगा प्रहरियों से चीजें बनाना सीखती हैं और फिर अपने गाँव में खरपतवार इकट्ठा करके उनसे चीजें तैयार करती हैं।

ओझा के मुताबिक फिलहाल इस परियोजना के तहत कुल 26 ऐसे केंद्र बनाए हैं और उनमें से एक झारखँड में है। इस केंद्र से लगभग 150 महिलाएँ जुड़ी हुई हैं।

जलकुंभी से उत्पाद बनाने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए साहिबगंज जिले में जलज परियोजना के गंगा प्रहरी (स्वयंसेवक) 27 वर्षीय बरुण कुमार ने कहा कि महिलाएँ अपने घरों से पास के तालाबों और नदियों तक तक जाती हैं और जलकुंभी इकट्ठा करती हैं।

कुमार ने समझाते हुए कहा, “जलकुँभी आमतौर पर पास के तालाबों या नदियों में आसानी से मिल जाती है और गाँव वाले इसे निकाल कर घर ले जाते हैं; फिर उन जलकुंभी की टहनियों को सुखाने के लिए धूप में रखा जाता है। उसके बाद ही इनसे अलग-अलग तरह की चीजें बनाई जाती है।”

कुमार ने आगे बताया, “हमें इसमें पानी डालते रहना होता है ताकि यह पूरी तरह न सूखे; इसमें थोड़ी-बहुत नमी बरकरार रहना जरूरी है, फिर इस जलकुम्भी से कई तरह की चीजें बनाई जाती हैं और फिर उन चीजों को धूप में सुखाने के लिए रख दिया जाता है, दो से तीन दिनों में ये सूख कर तैयार हो जाते हैं।”

जलज परियोजना ने कुछ विक्रय केन्द्र भी बनाए हैं जहाँ महिलाएँ नियमित रूप से अपने उत्पाद सीधे ग्राहकों को बेचती हैं। ये महिलाएँ व्यापार मेलों और प्रदर्शनियों में भी भाग लेती हैं और अपने उत्पादों का प्रदर्शन करती हैं।

शीलन देवी के मुताबिक बाज़ार में पेन स्टैंड और बास्केट की काफी माँग है।

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