मिलिए अपने समुदायों की कहानियों को आवाज़ देने वाली आदिवासी फिल्म निर्माता से

टाटा स्टील फाउंडेशन के ‘संवाद’ सम्मेलन में युवा आदिवासी फिल्म निर्माता मैरी संध्या लाकरा की लघु फिल्म को साझा किया गया था। यह फिल्म आदिवासी प्रवासी श्रमिकों की ज़िंदगी में आने वाली मुश्किलों को सामने लाने का उनका एक प्रयास है।
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जमशेदपुर, झारखँड। बेतरतीब तरीके से उलझे बाल, गंदा चेहरा और उम्र महज सात या आठ साल। कैमरे का फोकस बर्तनों के ढेर को साफ करने वाली इस लड़की पर है। उसके नज़दीक एक ऊँची चिमनी भी दिखाई दे रही है, जो इस बात का संकेत है कि ईंट का भट्टा उसके घर से ज़्यादा दूर नहीं हैं।

यह लघु फिल्म ‘उम्मीद उड़ानों की – पँख फैला, आसमान छूने की’ का शुरुआती शॉट है। यह फिल्म उन बच्चों के बारे में है जो अपने माता-पिता के साथ आजीविका की तलाश में पलायन करते हैं।

18 मिनट की इस फिल्म को पिछले महीने जमशेदपुर में टाटा स्टील फाउँडेशन (टीएसएफ) द्वारा आयोजित ‘संवाद’ नामक आदिवासी समुदायों के वार्षिक सम्मेलन में शामिल किया गया था। इसकी निर्माता मैरी संध्या लाकरा हैं, जो ओराँव आदिवासी समुदाय से आती हैं। सिनेमा के जरिए आदिवासी कहानियों का बाहर लाने के लिए ‘समुदाय के साथ’ नामक एक मँच बनाया गया है। इसी मंच द्वारा आयोजित पाँच दिवसीय कार्यशाला में भाग लेने के लिए 29 वर्षीय सँध्या को आमंत्रित किया गया था।

‘‘समुदाय के साथ’’ इस साल नवंबर में उन फिल्म निर्माताओं को एक साथ लेकर आया था, जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिए आदिवासी समुदायों के जीवन, उनकी समस्याओं, उनकी परंपराओं और संस्कृतियों, उनके संगीत, भोजन और लोक कथाओं का दस्तावेजीकरण किया है।

टीएसएफ ने 2015 में आदिवासी सांस्कृतिक पहचान को सामने लाने और भारत में आदिवासी समुदायों के आसपास के विकास पर एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य को बढ़ावा देने के जरिए सिनेमा की ताकत को समझने, उसका इस्तेमाल करने और प्रसारित करने के लिए एक पहल शुरू की थी।

लाकरा की डॉक्यूमेंट्री ‘उम्मीद उड़ानों की – पँख फैला, आसमान छूने की’ उनके इस मक़सद में कामयाब रही है। इसने झारखँड पर काम करते हुए देशभर के आदिवासी समुदायों के सामने आने वाले एक बहुत ही वास्तविक और वर्तमान मुद्दे पर प्रकाश डाला। लाकरा खुश थी कि उसकी पहली डॉक्यूमेंट्री को जगह मिली।

युवा फिल्म निर्माता ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैंने संवाद के बारे में इंटरनेट से जाना था। मैंने यहाँ अपनी डॉक्यूमेंट्री भेजी और ज्यूरी ने इसे चुन लिया। उसके बाद मुझे ‘‘समुदाय के साथ’’ ने जमशेदपुर में फिल्म निर्माण पर आयोजित पाँच दिवसीय कार्यशाला में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया।”

लाकरा ने इसे एक अनोखा अवसर बताते हुए कहा, ‘समुदाय के साथ’ ने उनके जैसे फिल्म निर्माताओं को अपने कौशल को निखारने और देश के अन्य हिस्सों के उन फिल्म निर्माताओं के साथ बातचीत करने का मौका दिया, जिन्होंने इसी तरह का काम किया है। इससे लोगों के बीच यह जागरूकता बढ़ाने में मदद मिल रही है कि आदिवासी समुदाय का हिस्सा बनना कैसा होता है।

उन्होंने कहा कि टीएसएफ के कॉन्क्लेव में आदिवासी प्रवासी मज़दूरों पर अपनी डॉक्यूमेंट्री को साझा करना एक सम्मान की बात थी। फिल्म निर्माताओं की ज्यूरी ने लाकरा की डॉक्यूमेंट्री का चयन किया, क्योंकि यह एक ऐसे विषय के बारे में थी जो बहुत वास्तविक और कई आदिवासी समुदायों के जीवन की सच्चाई को बयाँ करती है।

आदिवासी प्रवासी मज़दूरों के सैकड़ों और हज़ारों बच्चों के पास शिक्षा तक पहुँच नहीं है या वे बिल्कुल भी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उनकी दुर्दशा ने लाकरा को उनके बारे में एक फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया।

लकरा झारखंड के चतरा जिले के सँघरी गाँव से हैं। लाकरा ने बताया, “चतरा, जहाँ से मैं आती हूँ, वहाँ से बड़ी संख्या में मज़दूरों का पलायन होता है, लेकिन मैंने जो फिल्म बनाई है वह खूँटी जिले की है।”

फिल्म में सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस बात की चिंता करते हुए दिखाया गया है कि बच्चों का प्रवासन और तस्करी कैसे नजदीक से जुड़े हुए हैं।

लाकरा का मानना है कि संवाद और समुदाय जैसे मँच आदिवासी समुदायों की कठिनाइयों भरे जीवन को लोगों के सामने लेकर आते हैं।

लाकरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे गाँवों में आजीविका के अवसरों की कमी एक बड़ी चुनौती है; मैंने अपने गाँव में अन्याय, अपराध और अत्याचार को सीधे तौर पर देखा है, मैं अपनी फिल्मों के जरिए एक सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाना चाहती हूँ।”

लाकरा ने कहा, ‘समुदाय के साथ’ में मैंने विशेषज्ञों से बहुत कुछ सीखा है, उन्होंने हमसे पटकथा लेखन, फिल्मों को पेश करने का तरीका और फण्ड कैसे जुटाया जाए आदि के बारे में बात की थी; लेकिन मेरे लिए सबसे अच्छी बात यह थी कि इससे मुझे असम, ओडिशा और नागालैंड जैसे अन्य राज्यों के आदिवासी फिल्म निर्माताओं से मिलने और उनसे बातचीत करने का अवसर मिला, इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि कैसे अन्य समुदाय अपने संघर्षों को फिल्मों के जरिए दस्तावेजीकरण कर रहे हैं, कार्यशाला में भाग लेने से मुझे बहुत सारे नए विचार मिले हैं जिन पर मैं आगे काम करने वाली हूँ।”

इस कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण लेने वालों में एक नाम स्नेहा मुंडारी और दीपक बसेरा का भी है। स्नेहा फिलहाल नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन में पढ़ा रही हैं। दीपक बैसरा ने ओडिशा में अपना खुद का फिल्म महोत्सव शुरू किया है। इसे बारीपदा लघु फिल्म महोत्सव कहा जाता है।

जमशेदपुर में ‘समुदाय के साथ’ कार्यक्रम का नेतृत्व करने वाले कुमार गौरव ने इस पहल के बारे में बताया। वह कहते हैं “इस पहल के दो भाग हैं। हमारे कार्यक्रम की एक संस्थागत शाखा है जो भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) जैसे औपचारिक सँस्थानों से स्नातक करने वाले फिल्म निर्माताओं को प्रशिक्षित करती है, जबकि एक सामुदायिक शाखा उन स्थानीय समुदायों के लोगों को प्रशिक्षित कर रही है जिनके पास फिल्म बनाने का हुनर है।”

जूरी हर साल तीन सामुदायिक फिल्म निर्माताओं और दो संस्थागत फिल्म निर्माताओं की फिल्मों का चयन करती है और उनके निर्माताओं को ‘समुदाय के साथ’ कार्यक्रम में बुलाया जाता है।

2015 से लेकर अब तक आदिवासी समुदायों के 70 से अधिक फिल्म निर्माताओं ने यहाँ प्रशिक्षण लिया है। लाकरा उन तीन सामुदायिक फिल्म निर्माताओं में से एक हैं जिन्हें इस साल चुना गया था।

स्थानीय समुदायों द्वारा बनाई गई डाक्युमेंटरी के बारे में बात करते हुए कुमार गौरव ने कहा, “अक्सर लाकरा जैसे आदिवासी फिल्म निर्माताओं द्वारा शूट की गई फिल्में पेशेवर फिल्म निर्माताओं की फिल्मों से बेहतर होती हैं; जबकि उनके पास महँगे उपकरणों तक नहीं होते हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि समुदाय के फिल्म निर्माता सामाजिक-सांस्कृतिक बारीकियों को बेहतर ढँग से समझते हैं, उनकी समझ उनकी फिल्मों में झलकती है।”

‘समुदाय के साथ’ में लाकरा के गुरु नितीश कुमार ने फिल्म निर्माण को लेकर उनमें मौजूद प्रतिभा की प्रशंसा की। नीतीश कुमार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कम सँसाधनों के साथ अपनी कहानियों को बयाँ करने की उनकी क्षमता असाधारण है; वह इस तथ्य के बावज़ूद अपने फोन पर फिल्में संपादित करती हैं कि इससे कई तकनीकी गड़बड़ियां हो सकती हैं, लेकिन वह धैर्यवान और दृढ़ हैं। ”

नीतीश कुमार एक फिल्म निर्माता हैं और वह राँची, कोलकाता और मुंबई में फिल्में और डाक्युमेंटरी बनाने वाले प्रोजेक्ट का हिस्सा रहे हैं। वह 2020 से टाटा स्टील फाउँडेशन में बतौर ट्रेनर काम कर रहे हैं।

लाकरा ने राँची और खूँटी जिलों के कम से कम पाँच गांवों का दौरा किया और फिल्म की शूटिंग में तीन महीने लगाए। लाकरा ने अपनी डॉक्यूमेंट्री पूरी तरह से अपने मोबाइल फोन पर शूट की। उन्होंने कहा, “मेरे पास कैमरा नहीं है, लेकिन मुझे हमेशा से फोटोग्राफी और पलों को सहेज कर रखने का शौक रहा है; इसलिए मैं रुकी नहीं।” लाकरा ने अपनी फिल्म की पटकथा भी लिखी है।

उन्होंने असम स्थित ग्रीनहब नामक एक गैर-लाभकारी संस्था के तले ‘उम्मीद उड़ानों की…’ बनाई है। जुलाई, 2022 में भोपाल में ग्रीन हब फेस्टिवल में इसकी स्क्रीनिंग की गई थी।

उन्होंने कहा, “अब मैं सिखिड पँचायत के सँघरी गाँव में एक सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ काम कर रही हूँ; यह स्कूल जँगल के पास है, मैं बच्चों के साथ जंगल में जाती हूँ और उन्हें तितलियों, पक्षियों और बेशकीमती वनस्पतियों के बारे में सिखाती हूँ और उसका दस्तावेजीकरण भी करती हूँ।”

‘उम्मीद उड़ानों की – पंख फैला, आसमान छूने की’ फिल्म को कई प्रवासी मज़दूरों ने देखा है। इस फिल्म ने उन पर काफी गहरा प्रभाव छोड़ा है।

खूँटी जिले के बँज जरी गाँव के रहने वाले प्रवासी मज़दूर रंजन तिर्की ने अपने पड़ोसी का फोन उधार लेकर यूट्यूब पर यह फिल्म देखी थी।

तिर्की को कहानी अपनी ज़िदगी के काफी करीब लगी। उनकी एक आठ साल की बेटी है। वह जानते हैं कि जब वह काम की तलाश में पलायन करते हैं तो उनकी बेटी उनके साथ होती है। और इसलिए वह स्कूल नहीं जा पा रही थी।

ओराँव आदिवासी समुदाय से आने वाले तिर्की ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं और मेरी पत्नी ईंट भट्ठों पर काम करने के लिए तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों में जाते हैं; हम अपनी बेटी सबनम को अपने साथ ले जाते, जिसका मतलब था कि वह अब स्कूल नहीं जा पाएगी।”

फिल्म में सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रवासी मज़दूरों के बच्चे न सिर्फ स्कूल छोड़ देते हैं, बल्कि उनका शोषण भी होता हैं, ईंट भट्टे की दुर्घटनाओं में जलने और तस्करी के शिकार होने का ख़तरा होता है। इस फिल्म ने तिर्की की दुखती रग को छू लिया था।

उन्होंने कहा, “यह मेरे लिए बहुत मुश्किल था; फिर मैंने सबनम को उसके दादा-दादी के पास अपने गाँव में छोड़ने का फैसला किया, मुझे मालूम है कि शिक्षा ही एकमात्र जरिया है जिससे वह आगे बढ़ पाएगी, उसे मेरी पत्नी और मेरे जैसी ज़िंदगी नहीं बितानी पड़ेगी।”

सबनम तिर्की अब बाँस जरी गाँव के राजकीय उच्च विद्यालय में पढ़ती है।

‘उम्मीद उड़ानों की – पंख फैला, आसमान छूने की’ पूरी तरह से दर्द भरी दास्ताँ नहीं है। इसमें आशा और उम्मीदों का एक स्वर भी है। यह एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस (आशा) नामक गैर-लाभकारी संस्था द्वारा किए जा रहे कामों से रूबरू भी कराती है।

‘आशा’ झारखंड में राँची, खूँटी और सरायकेला जिलों में प्रवासी श्रमिकों के बच्चों को सुरक्षित आवास देने के लिए होस्टल चलाती हैं। बच्चों को फ्री में खाना, खेलों की कोचिंग और सुरक्षा मुहैया कराई जाती है। पिछले 14 सालों में इन तीन केंद्रों से 600 से अधिक बच्चों ने अपनी डिग्री पूरी की है।

‘समुदाय के साथ’ से जुड़ने के बाद लाकरा के पास अब आगे काम करने के लिए काफी नए नए विचार हैं। वह पारंपरिक आदिवासी भोजन को पर्दे पर लाने की तैयारी में हैं।

उन्होंने कहा, “अगले साल की शुरुआत में मैं चतरा जिले में एक फिल्म महोत्सव का आयोजन कर रही हूँ; राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों के फिल्म निर्माता फिल्में भेज रहे हैं जिनकी समीक्षा की जाएगी और फिर स्क्रीनिंग की जाएगी, इस पर काम चल रहा है, लेकिन मैं चाहती हूँ कि मेरे लोग इन फिल्मों को देखें और उनका लुत्फ उठाएं और उनसे सीखें।”

प्रत्यक्ष श्रीवास्तव के इनपुट के साथ

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