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पेड़ों को मानते हैं बेटियाँ, अब तक कर चुके हैं 10 लाख से ज़्यादा कन्यादान

भारत में जहाँ सरकारी नौकरी एक तबके के लिए सपना है वहीं एक शख़्स ऐसा भी है जिसने ऐसी नौकरी छोड़कर उन बच्चों का हाथ थामा जिनके पास न अच्छे कपड़े थे और न खाने के लिए भरपेट खाना। आचार्य चंद्र भूषण तिवारी पर्यावरण को अपना परिवार मानते हैं और पेड़ों को अपनी बेटी। गाँव पॉडकास्ट में उन्होंने बताया कैसे एक समय लोग उनके इस काम के कारण उनको पागल तक समझने लगे थे।
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सरकारी नौकरी छोड़कर अपना जीवन समाज को समर्पित कर देना बहुत बड़ा फैसला था। इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

जब मैं पढ़ाई करता था, तब मजदूरों के बच्चों को पढ़ाता था, उन बच्चों के लिए कपड़े और खिलौने जुटाता था; पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं, तालाब- पोखरों, और रिश्तेदारों के प्रति मेरा लगाव था; पढ़ाई के क्रम में यह बात समझ में आ गई कि धरती पर कोई भूखा नहीं सोना चाहता और कोई मानव अज्ञानी नहीं रहना चाहता।

बीएड करने के बाद मेरी नौकरी लग गई संबलपुर, ओडिशा के केंद्रीय विद्यालय में; मेरे बच्चे मुझे चिट्ठी लिखने लगे कि आप कब आएँगे खिलौने, कपड़े और किताबें लेकर? यह सब देखने के बाद, एक सत्र पढ़ाने के बाद मैंने नौकरी छोड़ दी और उसके बाद बच्चों को पढ़ाना और पेड़ लगाना जीवन का लक्ष्य बना लिया।

आपका लक्ष्य बड़ा है और उसका रास्ता बेहद मुश्किल; ऐसे में आपके परिवार और लोगों से आपको क्या प्रतिक्रिया मिली?

मुझे एक बड़ा मकसद मिल गया, लेकिन शुरुआत में तो कठिनाई होती ही है; लोग समझ नहीं पाते हैं, तो जब कोई बड़ा उद्देश्य दिखता है और आदमी उस पर चल देता है, तो लोग उसे ऐसा करते देख सहज नहीं हो पाते, लोग समझते हैं कि ये थोड़े खिसक गए हैं। परिवार आशा लगाए रहता है कि सरकारी नौकरी पाएगा तो परिवार को देखेगा, लेकिन मुझे कुछ बड़ा दिख गया था इसलिए मैं इसी दिशा में निकल गया।

मेरे इस फैसले पर लोगों ने बहुत सवाल उठाए और लोग अक्सर कहते थे कि मैं खिसक गया हूँ। लेकिन मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ और कैसे करना है; इसलिए जब मैं चला, तो घर-परिवार वालों ने तो साथ नहीं दिया, रिश्ते-नातों ने भी नहीं दिया, लेकिन उन लोगों ने मेरा साथ दिया जो मुझे जानते नहीं थे, उन्हें पता था कि मैं किसी अच्छे मार्ग पर चल रहा हूँ और लोग सहयोग देते गए। मेरा अभियान अपने लक्ष्य की तरफ तेजी से आगे बढ़ रहा है।

आपका लक्ष्य आखिर क्या है और क्या आप इसे हासिल कर पाए?

मेरा लक्ष्य यही था कि कोई बच्चा अनपढ़ न रह जाए और कोई भूखा न सोए; भूख मिटाने के लिए, 26 जनवरी 2006 से 11 लाख फलदार पेड़ लगाने का संकल्प लिया था और अब तक हमने 10 लाख से अधिक पेड़ लगा दिए हैं। पेड़ों को हम अपनी बेटी के रूप में देते हैं और जिसे देते हैं, कहते हैं “यह पौधा नहीं, मेरी पुत्री है; बड़े ही लाड़-प्यार से पली है, कोमल है, नाज़ुक है, जानवर देखकर डरती है, गर्मी में इसे प्यास बहुत लगती है, दो साल पालेंगे तो पीढ़ियों-पीढ़ियों को पालेगी; मेरी बेटी जिंदा रहती है तो फल, फूल, छाया देती है, मर जाती है तो चौखट, पल्ला बनकर घर की रखवाली करती है, मेरी बेटी मरघट तक साथ देती है। इसे लगा लीजिए, अपने घर-आँगन में बसा लीजिए और मुझे अपना समधी बना लीजिए।

पेड़ों को अपनी बेटी मानना यह आपके दिमाग में कैसे आया?

जब मैंने पेड़ लगाने का अभियान शुरू किया तो लोगों को पौधे दे दिया करता था, लेकिन लोग उसका ख्याल नहीं रखते थे; तो मैंने उपाय सोचा कि भारत देश नारी शक्ति का सम्मान करता है और देवी के प्रति दया भाव रखता है, तो मैंने पेड़ों को ही बेटी बना लिया और मेरा अभियान है समधी से समाधान की ओर।

तो मैं बेटी के रूप में लोगों को पेड़ देने लगा, किसी की बेटी योग्य कुल या खानदान में चली जाए तो उसका पिता कितना खुश होता है, वही खुशी मुझे मेरे पेड़-पौधों को देखकर होती है। महावीर स्वामी ने कहा था कि ‘जियो और जीने दो’, लेकिन मैं कहता हूँ ‘जीने दो और जियो’। पहले सामने वाले को जीने दो, क्योंकि अगर सामने वाला खुश नहीं है, हँसता मुस्कुराता नहीं है, तो आप भी वैसा नहीं रह पाएंगे।

हर माता-पिता की कामना होती है कि उनका बेटा जीवन में सफल और सुरक्षित हो; ऐसे में आपके माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया थी?

देखिए, मेरे माता-पिता देवरिया में रहने वाले छोटे किसान थे; उन्हें पता भी नहीं था कि उनके बेटे ने क्या फैसला लिया है। मैंने अपनी पूरी पढ़ाई अपने दम पर पूरी की, उन्होंने मुझे पाल-पोस दिया था, और मैं बचपन से ही स्वावलंबी हो गया था। मैं नीम की निम्बोली बेचकर अपनी किताब-कॉपी खरीदता था। मजदूरी करके मैं अपनी फीस भरता था। संगीत की वजह से मेरी फीस माफ रहती थी। लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ा, लेकिन चारबाग स्टेशन पर अखबार बेचकर अपनी फीस भरा करता था।

शायद यही वजह थी कि माता-पिता का ज़्यादा दबाव हम पर नहीं पड़ा; लेकिन जब आप एक परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और आप पर तथाकथित मीडिया और तमाम तरह के लोगों की दृष्टि पड़ती है, तो बाकी लोगों के ऊपर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है कि ये किसी ठीक-ठाक काम में लगे हैं और किसी को नुकसान नहीं पहुँचा रहे, भले हमें फायदा नहीं पहुँचा रहे।

यादों के क्रम में आचार्य चंद्र भूषण ने अपने जीवन के बारे में बहुत सारी बातों पर खुलकर गाँव पॉडकास्ट में बात की। उन्होंने यह भी बताया कि जब वे अपने बच्चों के लिए पुराने कपड़े या खिलौने माँगने लोगों के घर जाते थे, तो हर दरवाजा उनके लिए एक नया सबक होता था। कभी कोई मदद के लिए आगे आता था, लेकिन कई बार डाट, तिरस्कार और अभद्र व्यवहार का सामना करना पड़ता था। लेकिन ऐसे दरवाजों से प्रेरणा लेकर वे उन पर गाना बना देते थे और अपने लक्ष्य के लिए और भी ज़्यादा उत्साहित हो जाते थे। वास्तव में आचार्य जी का जीवन त्याग और समर्पण का उदाहरण है और गाँव पॉडकास्ट में आप उनका पूरा इंटरव्यू सुन और देख सकते हैं।

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