कैनवा क्लासेस, ग्राफिक डिजाइनिंग और वर्चुअल लर्निंग – ग्रामीण शिक्षा से जुड़ी सोच को दरकिनार करता गांव का एक स्कूल

लखनऊ से लगभग 40 किलोमीटर दूर कुनौरा के 'भारतीय ग्रामीण स्कूल' में एक स्किल सेंटर चलाया जा रहा है। यहां गांव के बच्चों को पारंपरिक शिक्षा पद्धति से हटकर, नई तकनीक से जुड़े ग्राफिक डिजाइनिंग जैसे कोर्सेज कराए जाते हैं। इस पहल को ग्रामीण बच्चों को रोजगार के नए अवसरों की ओर ले जाने में मदद करने के उद्देश्य से शुरु किया गया है। कोविड महामारी ने दुनियाभर के स्कूलों को वर्चुअल लर्निंग के लिए मजबूर कर दिया है। लेकिन यह स्कूल उससे काफी पहले से ऑनलाइन क्लासेस चला रहा है।
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कुनौरा (लखनऊ), उत्तर प्रदेश। नीले रंग का कुर्ता, सफेद सलवार और मैचिंग दुपट्टा पहने कुशमा देवी अपने डेस्कटॉप कंप्यूटर के माउस और कीबोर्ड के तारों को सीपीयू में प्लग करने में व्यस्त हैं। उसके बालों में तेल लगा है और बड़े करीने से दो चोटियां बनी हुई हैं। वह अपने कंप्यूटर पर कैनवा – एक ग्राफिक डिजाइनिंग वेबसाइट– खोलती हैं और कुछ डिजाइन करने लगती हैं। वह पोस्टर बना रही हैं।

त्यौहारों का मौसम है और दीवाली पास है। ऐसे में राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 40 किलोमीटर दूर कुनौरा पंचायत के भारतीय ग्रामीण विद्यालय में कुशमा की तरह 12वीं कक्षा के अनेक छात्र बड़ी संख्या में पोस्टर डिजाइन करने में जुटे हैं।

कैनवा वेबसाइट ने कुशमा से पूछा- आप क्या डिजाइन करेंगी?

वह जल्दी से कुछ कॉपीराइट-फ्री तस्वीरों को ढूंढती हैं और वहां से पीले फूल के पराग पर बैठी एक रंगीन तितली की तस्वीर डाउनलोड कर लेती हैं।

गांव कनेक्शन रिपोर्टर ने कुशमा से बातचीत करते हुए पूछा, “क्या आपको तितलियां पसंद हैं?”

वह जवाब देती है,”हां, क्योंकि वो जहां चाहें जा सकती हैं!”

कुशमा भी तितलियों की तरह उड़ान भरने के लिए उतावली हैं।

कुशमा देवी पिछले कुछ दिनों से पोस्टर मेकिंग सीख रही हैं।

भारतीय ग्रामीण विद्यालय में उसके जैसे अनेक छात्र ग्राफिक डिजायनिंग कर रहे रहे हैं। यह स्कूल सदियों से ढर्रे पर चली आ रही शिक्षा की बेड़ियों को तोड़ते हुए अपने छात्रों को इंटरनेट और नई तकनीक का इस्तेमाल करना सिखा रहा है। ताकि वे भविष्य में रोजगार के नए अवसरों के साथ जुड़ पाएं। अनूठी पहल ‘स्वयं स्किल सेंटर’ के जरिए गांव के छात्रों को ग्राफिक डिजायनिंग सिखाकर, उनके हाथ में एक नया हुनर दिया जा रहा है।

कुशमा एक ग्राफिक डिजाइनर बनना चाहती है। यह एक ऐसा जॉब प्रोफाइल है जिसके बारे में उनके गांव में किसी को कोई जानकारी नहीं है। लेकिन बाहर बाजार में इसकी काफी मांग है।

कुशमा खुश होते हुए बताती हैं, ” फिलहाल हम पिक्साबे से फोटो डाउनलोड करना सीख रहे हैं। पहले पोस्टर चुनें, उसे हेडलाइन दें, उसका रंग बदलें, फ़ॉन्ट चेंज करें और फिर कैनवा पर पोस्टर बनाएं। बस इतना ही है।” वह आगे कहती हैं, “मुझे पोस्टर बनाने में मज़ा आता है। मैं सिलाई-कढ़ाई नहीं करना चाहती।” गांव के 15 से ज्यादा छात्र जिनमें कई लड़कियां भी हैं, स्कूल में बेसिक ग्राफिक डिजाइनिंग सीख रहे हैं।

12वीं कक्षा की छात्रा मोहिनी सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “जब गांवों में लड़कियां स्कूल जाने लगती हैं तो उनसे कहा जाता है कि चौका-बरतन (रसोई का काम संभालना) तो तुम्हें करना ही पड़ेगा। मुझसे भी यही कहा गया था। अब जब मैं पोस्टर बनाने लगी हूं तो मुझे लगता है कि मैं कुछ अलग कर सकती हूं। ” वह कहती हैं, “मेरे गांव के लोग कहते हैं कि हम लड़कियां कुछ नहीं कर सकतीं। मैं पोस्टर डिजाइन करना सीखकर उन्हें गलत साबित करना चाहती हूं।”

पोस्टर बनाने के लिए ग्राफिक डिजाइनिंग प्लेटफॉर्म का उपयोग करते छात्र।

इस पहल का नेतृत्व भारतीय ग्रामीण विद्यालय के संस्थापक और एक भूविज्ञानी डॉ एसबी मिसरा कर रहे हैं। उन्होंने साल 1972 में इस स्कूल की नींव रखी थी।

एसबी मिसरा ने गांव कनेक्शन को बताया, “बारहवीं कक्षा तक पारंपरिक शिक्षा लेने के बाद, छात्र, शहरों में नौकरियों के लिए भटकते हैं। उन्हें नई तकनीक और उससे जुड़े रोजगारों की जानकारी ही नहीं होती है। बस इसी को ध्यान में रखकर हमने एक स्किल सेंटर बनाया है और कुछ नए पाठ्यक्रम भी शुरू किए हैं ताकि वे रोजगार से जुड़े अलग-अलग क्षेत्रों के बारे में जान सकें और उस तकनीक को सीख सकें। हम उन्हें टैली, हाउसकीपिंग, कैमरा (फोटोग्राफी), रिपेयरिंग (मोबाइल और कंप्यूटर), ट्रिपल सी (सीसीसी या कंप्यूटर से जुड़े कोर्स) जैसे कोर्स करा रहे हैं। स्कूल प्रबंधक कहते हैं, “इस तरह से गांव को बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे अपने समकक्ष शहरी बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा कर पाने में सक्षम बन पाएंगे।”

80 साल के मिसरा अपनी सुनने वाली कान की मशीन को थोड़ा ठीक करते हुए कहते हैं, “गांव में रहने वाले बच्चे, शहरी बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं। उनके पास सीखने के अवसरों की कमी है। अगर हम उन्हें अवसर मुहैया करा दें तो वे किसी से भी मुकाबला कर सकते हैं। अन्य स्कूल भी अगर खुद को तकनीक और आधुनिक तरीकों से जोड़ लेंगे तो ग्रामीण शिक्षा काफी तेजी से आगे बढ़ जाएगी।”

डॉ शिव बालक मिसरा जिन्होंने 1972 में इस स्कूल की शुरुआत की थी।

रूढ़ियों को तोड़ना

उत्तर प्रदेश के केंद्र में स्थित, भारतीय ग्रामीण विद्यालय का उद्देश्य नई तकनीक के इस्तेमाल से ग्रामीण छात्रों को हुनर सिखा कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है। स्कूल की गतिविधियों को एक प्रबंधन समिति द्वारा चलाया जाता है। इस समिति का स्कूल की प्रगति में काफी योगदान है।

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया प्लेटफॉर्म गांव कनेक्शन के संस्थापक नीलेश मिसरा स्कूल की इस प्रबंधन समिति के उपाध्यक्ष हैं। उनका मानना ​​है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवाओं को लेकर एक घिसी-पिटी सोच बनी हुई है।

वर्चुअल क्लास में पढ़ाई करते बच्चे।

नीलेश मिसरा ने गांव कनेक्शन को बताया, “ग्रामीण बच्चों को क्या पढ़ाया जाना चाहिए, इस पर लोगों ने कुछ बातें पहले से ही दीमाग में बिठा रखी हैं। जिन्हें दूर करना जरुरी है। अगर आप एक स्किल सेंटर खोलते हैं, तो लोगों को लगता है कि उन्हें बढ़ईगीरी और खेती या फिर शारीरिक श्रम से जुड़े किसी क्षेत्र में ट्रेनिंग दी जा रही होगी।” वह आगे कहते है, “हालांकि इसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन गांव के युवा सिर्फ इन विकल्पों तक ही सीमित क्यों रहे? क्यों नहीं हम उन्हें अपनी इस सोच से आगे कुछ सिखा सकते? यह पहल (स्किल सेंटर) इन रूढ़ियों को तोड़ने में मदद करेगी।”

प्रबंधन समिति के उपाध्यक्ष ने कहा, “ऐसे समय में जब भारत का मीडिया उद्योग फलफूल रहा है और सभी को ग्राफिक डिजाइनरों की जरूरत है, क्या ग्रामीण बच्चे इसमें मदद कर सकते हैं? हमारी छोटी सी पहल गांवों के सैकड़ों स्कूलों के लिए एक आशा बन सकती है। यह कोई छोटा बदलाव नहीं है। यह पीढ़ियों को प्रभावित करेगा।”

जिस स्कूल में पढ़ते थे आज वही पढ़ा रहे हैं

दुनिया गोल है। इसे फ़राज़ हुसैन से बेहतर कौन जान सकता है। 21 साल के ग्राफिक डिजाइनर ने भारतीय ग्रामीण विद्यालय से अपनी पढ़ाई की है और अब वे गांव कनेक्शन के साथ काम करते हैं। हुसैन अपनी इच्छा से अपने इस स्कूल में छात्रों को पोस्टर बनाना सिखा रहे हैं। हुसैन ही नहीं, उनके पिता भी कुनौरा के उसी स्कूल में पढ़ते थे।

हुसैन ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने बारहवीं क्लास तक इसी स्कूल में पढ़ाई की है। और अब मुझे अपने ही स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का मौका मिला है।” वह कहते हैं, ” गांव के कितने बच्चें हैं जिन्हें यह नहीं पता कि उन्हें आगे (करियर में) क्या करना है। उन्हें बताने वाला कोई नहीं है। मैं भी इस तरह के हालातों का सामना कर चुका हूं। पढ़ाई के बाद शहर गया और वहां ग्राफिक डिजाइनिंग सीखी।”

फ़राज़ हुसैन कक्षा 12 के छात्र को पोस्टर बनाना सिखा रहे हैं।

जब हुसैन गांव कनेक्शन से बात कर रहे थे, उस समय कंप्यूटर लैब में एक अन्य छात्र जितेंद्र कुमार कैनवा वेबसाइट पर दीवाली के पोस्टर और किताबों के कवर बनाने में व्यस्त थे। हुसैन ने गर्व से कहा, “अभी कुछ ही दिन पहले ही उसने कंप्यूटर से पोस्टर डिजाइन करना शुरू किया है। लेकिन बहुत जल्दी सीख गया।”

जितेंद्र ने गांव कनेक्शन को बताया, “मुझे लगता था कि मैं अपने जीवन में कभी कंप्यूटर को छू भी नहीं सकता और न ही जीवन में कुछ कर पाऊंगा। लेकिन आज मैं पोस्टर बना रहा हूं। इसे करने से मेरा आत्मविश्वास और उम्मीद दोनों बढ़ गई हैं। ”

नीलेश मिसरा के अनुसार, भारतीय ग्रामीण विद्यालय में इस छोटे से प्रयास से एक बड़ा बदलाव आया है। वह कहते हैं, ” इन बच्चों ने अपने जीवन में पहली बार (4 अक्टूबर को) कंप्यूटर को हाथ लगाया था। इस उम्र में बच्चे बहुत ही तेजी से सीखते हैं। और सचमुच वे बहुत जल्दी सीख गए। इससे मेरे अंदर एक उम्मीद जगी है कि बदलाव हो सकता है। ”

दुनिया से पहले शुरू हुई वर्चुअल क्लासेस’

अगर हम स्वयं स्किल सेंटर की बात न करें, तो वो क्या है जो भारतीय ग्रामीण विद्यालय को बाकी सब से अलग करता है। वो है प्रोजेक्टर, माइक्रोफोन, प्रोजेक्शन स्क्रीन और हाई स्पीड इंटरनेट से लैस इसका वर्चुअल क्लास सेंटर।

13 अक्टूबर को गांव कनेक्शन ने जब स्कूल को दौरा किया तो वहां वर्चुअल क्लास चल रही थी। साफ-सुथरे कालीन वाले फर्श पर बैठी एक लड़की अपनी किताब के एक हिस्से को पढ़ कर सुना रही थी- “ज्यादातर गरीब गांवों में रहते हैं या भारत में अधिकांश लोग गांवों में रहते हैं शहरों में नहीं।”

कुनौरा से लगभग 800 किलोमीटर दूर चंडीगढ़ की एक वॉलिंटियर चारु टंडन, बच्चों को ऑनलाइन ‘संसाधनों के समान वितरण’ के बारे में सिखा रहीं थीं।

चारु टंडन, चंडीगढ़ स्थित एक वॉलिंटियर, बच्चों को पढ़ाती हैं।

कोविड महामारी के कारण स्कूल कॉलेज बंद कर बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने पर काफी जोर दिया गया। मौजूदा स्थिति में ये पढ़ाई का एक आदर्श जरिया है। लेकिन इससे बहुत पहले, भारतीय ग्रामीण विद्यालय ने 2019 में ही लॉंग डिस्टेंस ऑनलाइन क्लासेस शुरू कर दी थीं।

नीलेश मिसरा कहते हैं, “इंटरनेट गांवों तक पहुंच गया है। गांव में रहने वाले बच्चे नई चीजें सीखना चाहते हैं। शहरों में भी ऐसे कई टीचर हैं जो उन्हें पढ़ाना चाहते हैं। हम इंटरनेट और वर्चुअल क्लासेस के जरिए उन्हें एक-दूसरे के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। ” उन्होंने कहा, “जब हमने वर्चुअल क्लासेस शुरू कीं थी, तो यह दुनिया भर में पहला स्कूल था जो बच्चों को रोजाना ऑनलाइन शिक्षा दे रहा था।”

भारत से लेकर संयुक्त अरब अमीरात के वॉलिंटियर इन छात्रों को इंग्लिश, फिजिक्स और मैथ पढ़ाते हैं और उनके साथ अपने अनुभव भी साझा करते हैं। वर्चुअल क्लास में कुल 20 लड़कें और लड़कियों का पढाया जाता है। जिनका अनुपात 1:1 है।

12वीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा मोहिनी सिंह कहती हैं, “ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीकों से पढ़ने में अच्छा लगता है। लेकिन मुझे ऑनलाइन क्लासेज ज्यादा पसंद हैं। क्योंकि यहां शिक्षक शहरों के अपने अनुभव हमारे साथ साझा करते हैं और हम उनके अनुभवों से सीखते हैं। ”

नीलेश मिसरा ने कहा, “विषय चाहे जो भी हो, ग्राफिक डिजाइनिंग, वीडियो और साउंड एडिटिंग या फिर फिजिक्स व इंगलिश, हम इस स्कूल को भारत का पहला ऐसा स्कूल बनाना चाहते हैं जहां ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह की क्लासेस लगें। मुझे लगता है कि इस पहल से ग्रामीण स्कूलों की शिक्षा प्रणाली में मौजूद अंतर को दूर करने में मदद मिल सकती है।” 

अंग्रेजी में खबर पढ़ें

अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

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