सर्दियों की गुनगुनी धूप में छत पर बैठे सोनू सर झुकाए अपनी आप बीती बता रहे थे, “लॉकडाउन के शुरुआत में तो ज्यादा दिक्कत नहीं हुई तब बहुत लोग खाना बांटते थे लेकिन एक महीने बाद पेट भरना मुश्किल पड़ने लगा? इसे आप भीख समझिए या पेट की आग, मंदिर के सामने तीन महीने तक मांगकर खाना पड़ा,” ये कहते हुए उनका गला रुंध गया।
इस कोरोना महामारी में सोनू कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं जिनका रोजगार छिना हो, इनकी तरह साल 2020 में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। लाखों की संख्या में पलायन करके जो लोग अपने गाँव पहुंचे हैं वहां भी वो जिंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं, वहीं जो शहर में रुके रहे उनकी मुश्किलें भी कम नहीं रहीं।
गाँव कनेक्शन की इस ग्राउंड रिपोर्ट में मिलिए कुछ ऐसे ही लोगों से, जिन्हें हालातों से मजबूर होकर भिखारी बनना पड़ा। पर अब ये भीख नहीं मांगते, खुद का रोजगार कर रहे हैं। इनके आत्मनिर्भर बनने की कहानी आपको हौसला देगी, हिम्मत देगी और निराशा में कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरित करेगी।
“भीख मांगने के तीन महीने 30 साल के बराबर लगे। हम गरीब परिवार से हैं, बचपन में पिता की मौत हो गयी थी तब भी कभी ऐसी नौबत नहीं आयी कि भीख मांगना पड़ता। लेकिन इस कोरोना में सबके सामने सर झुकाकर, हाथ फैलाकर मांगकर पेट भर लेते थे लेकिन दिन में काम भी खोजते थे। सड़क पर काम मांगने वालों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि काम मिलना बहुत मुश्किल था,” सोनू अपना दर्द साझा करते हैं।

लॉक डाउन में बेरोजगार हुए सोनू झा ने बदलाव संस्था के प्रयास से इस कोविड काल में खिलौने की दुकान खोल ली है. फोटो : नीतू सिंह
सोनू झा मूल रुप से बिहार के समस्तीपुर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर शाहपुर पटोरी गाँव के रहने वाले हैं। सोनू के पिता रोजगार की तलाश में कई साल पहले परिवार समेत लखनऊ आ गये थे। बीमारी की वजह से इनके पिता का साल 2001 में देहांत हो गया। सोनू की पांच बहने हैं। पिता की मौत के बाद घर के खर्चे की ज़िम्मेदारी सोनू के कंधों पर आ गयी। इनकी माँ और बहनें भी मजदूरी करती थीं। यही वो शहर है जहाँ सोनू का परिवार पिछले 20-25 साल से मेहनत-मजदूरी करके गुजारा कर रहा था। इस शहर से सोनू के परिवार को बहुत उम्मीदें हैं।
उनकी बातों में बीतें दिनों का दर्द था, अब जो वो कर रहे हैं उसमें उम्मीद भी। अपनी नम आखों को साफ करते हुए सोनू, उत्साह के साथ बताते हैं, “शरद भैया जबसे हमें यहाँ (शेल्टर होम) लाये हैं तबसे कोई दिक्कत नहीं। यहां रहना-खाना सब फ्री है। दो महीने पहले भैया ने 10,000 रुपए देकर खिलौने की ठेलिया लगवा दी है। अभी बहुत ज्यादा तो नहीं पर रोजाना 200-300 रुपए की बचत हो जाती है कभी इससे ज्यादा भी।”
सोनू जिस शरद नाम के युवा का जिक्र कर रहे थे यही वो शख़्स है जिसने पिछले तीन साल में 225 और इस कोविड महामारी के दौरान 30 लोगों को छोटे-छोटे बिजनेस शुरु कराकर आत्मनिर्भर बनाया है। ये सभी वो लोग हैं जिन्हें हालातों से मजबूर होकर भीख माँगना पड़ा। इनमें से कुछ वो लोग थे जिनके कोरोना और लॉकडाउन ने रोजगार छीन लिए थे तो कुछ वो थे जो किसी हादसे में दिव्यांग हो गये। इनमें से एक वो भी था जिसकी दुकान पर दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया और पत्नी को मार डाला। एक वो भी था जिसे कुष्ट रोग हो गया था तो घरवालों ने निकाल दिया। इन सब में एक वो भी था जो नौकरी करने इस शहर आया था, ताकि परिवार को अच्छी जिंदगी दे सके, यहां हालात ने हाथ में कटोरा पकड़ा दिया।
“हम लगभग सात सालों से इन भिक्षुकों (शरद उन्हें भिखारी नहीं कहते) के बीच काम कर रहे हैं। शुरुआत के तीन चार साल सरकार के साथ मिलकर पैरोकारी की लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। थक-हारकर मैंने व्यक्तिगत कुछ समाजसेवियों से, कुछ संस्थाओं से मदद लेकर इन्हें आत्मनिर्भर बनाने की ठान ली। पिछले तीन साल में 200 से ज्यादा लोगों को छोटे-छोटे माइक्रो बिजनेस करवाए है, 209 लोगों को उनके अपनों से मिलवा दिया है, इनके बच्चों को पढ़ने के लिए एक निशुल्क पाठशाला खोल दी है,” शरद पटेल ने अपना अनुभव साझा किया।

ये हैं शरद पटेल, जिनके प्रयासों से 200 से ज्यादा भिखारियों ने भीख माँगना छोड़कर छोटे-छोटे रोजगार शुरु कर दिए हैं. फोटो : नीतू सिंह
भिखारियों को भीख माँगना छुड़वाकर उन्हें रोजगार से जोड़कर समाज की मुख्यधारा में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का हौसला और हिम्मत देने वाले शरद पटेल बताते हैं, “जो लोग एक बार भीख मांगने लगते हैं उन्हें भीख माँगना छुड़वाकर रोजगार शुरु करने के लिए प्रेरित करना इतना आसान काम नहीं है। रोज फील्ड जाकर इनके साथ एक रिश्ता बनाना पड़ता है, इन्हें भरोसे में लेना पड़ता है, काउंसलिंग करनी पड़ती है तब कहीं जाकर ये शेल्टर होम पर आते हैं। एक बैच में 20-25 लोगों को एक साथ ले आते हैं। लगभग छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद इनके व्यवहार में परिवर्तन कर इन्हें छोटे-छोटे माइक्रो बिजनेस शुरु करा पाते हैं।”
समाज कल्याण मंत्रालय ने लोकसभा में मार्च 2018 में एक सवाल के जवाब में भारत में भिखारियों की संख्या के बारे में सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने आंकड़े बताए। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में इस वक्त कुल 4,13760 भिखारी हैं जिनमें 2,21673 भिखारी पुरुष और 1,91997 महिलाएं हैं। भिखारियों की इस लिस्ट में सबसे ऊपर पश्चिम बंगाल है। बंगाल में भिखारियों की संख्या सबसे अधिक है और उसके बाद दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश और तीसरे नंबर पर बिहार है। भिखारियों की संख्या के लिहाज से देखें तो पूर्वोत्तर के राज्य काफी अच्छी स्थिति में हैं। केंद्र शासित दमन और दीव में 22 भिखारी और लक्षद्वीप में सिर्फ 2 ही भिखारी हैं। अरुणाचल प्रदेश में 114, नगालैंड में 124, मिजोरम में सिर्फ 53 भिखारी ही हैं। सामाजिक कल्याण मंत्रालय की इस लिस्ट में एक और बात स्पष्ट हुई है कि पर्वतीय प्रदेशों में भिखारियों की संख्या काफी कम है। उत्तराखंड में 3320 भिखारी और हिमाचल प्रदेश में 809 भिखारी हैं। दिल्ली में भिखारियों की संख्या 2187 है।
West Bengal has the highest number of beggars,vagrants in India followed by Uttar Pradesh and Bihar at number 2 and 3 respectively: Reply of Social Justice Minister Thawar Chand Gehlot in Lok Sabha today pic.twitter.com/uI1GpyLKNp
— ANI (@ANI) March 20, 2018
सोनू झा के खिलौने की ठेलिया से कुछ दूरी पर फटे कपड़ों की सिलाई कर रहे 53 वर्षीय धनीराम रैदास (पप्पू) बताते हैं, “पहले मैं एक बड़े शोरूम में पर्दे और गद्दियों के कवर की सिलाई करता था। एक हादसे में मेरा पैर टूट गया, हम बैशाखी से चलने लगे। मार्च में जब आराम मिला तो फिर काम करने आ गये पर तब तक कोरोना की चर्चा हो गयी थी। हमें काम पर नहीं रखा गया, पैर टूटने की वजह से अपनों ने भी साथ छोड़ दिया इसलिए घर जाने का मन नहीं किया। चार-पांच महीने हनुमान सेतु मन्दिर पर मांगकर खाया।”
मन्दिर पर गुजारे दिनों को याद करते हुए धनीराम रैदास का गला भर आया। धनीराम कहते हैं, “बहुत पुलिस की लाठियां खाईं हैं। खाना जब बंटता था तब बहुत छीना-झपटी होती थी तब कहीं जाकर खाना मिल पाता था। खाना क्या अपमान का घूंट पीते थे? पास की बगिया में पुलिस से भागकर बैठे रहते थे। जिंदगी नरक थी वहां, अब जबसे यहाँ आ गये हैं सुकून है, हमने तो जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। डेढ़ दो महीने से भैया (शरद) ने सिलाई मशीन दिला दी है। रोड पर यहीं बैठकर सिलाई करता हूँ, दिन के 100-50 रुपए आ जाते हैं, कभी इससे कम तो कभी ज्यादा भी कमा लेते हैं।”

धनीराम रैदास का काम लॉकडाउन में छूट गया था, बदलाव संस्था इन्हें सिलाई मशीन दी गयी है, अब ये पुराने कपड़ों की सिलाई कर रहे हैं. फोटो: नीतू सिंह
सोनू झां और धनीराम की तरह नगर निगम द्वारा संचालित ऐशबाग मील रोड पर बने एक शेल्टर होम में अभी 22 लोग रह रहे हैं। लखनऊ में नगर निगम द्वारा 23 शेल्टर होम हैं जिनका संचालन कुछ गैर सरकारी संगठन कर रहे हैं। ऐशबाग में चलने वाले दो शेल्टर होम बदलाव संस्था द्वारा संचालित किये जा रहे हैं।
सैकड़ों भिखारियों की जिंदगी बदलने वाले तीस वर्षीय शरद पटेल मूल रुप से उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर माधवगंज ब्लॉक के मिर्जागंज गाँव के रहने वाले हैं। शरद लखनऊ में 2 अक्टूबर 2014 से ‘भिक्षावृत्ति मुक्त अभियान’ चला रहे हैं। शरद ने 15 सितंबर 2015 को एक गैर सरकारी संस्था ‘बदलाव’ की नींव रखी जो लखनऊ में भिखारियों के पुनर्वास पर काम करती है। शरद ने 3,000 भिक्षुकों पर एक रिसर्च किया जिसमें 98% भिक्षुकों ने कहा कि अगर उन्हें सरकार से पुनर्वास की मदद मिले तो वो भीख माँगना छोड़ देंगे। राजधानी लखनऊ में जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे से 88% भिखारी उत्तर प्रदेश के जबकि 11% अन्य राज्यों से हैं। जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे से 31% लोग 15 साल से ज्यादा भीख मांगकर ही गुजारा कर रहे हैं।
आज की चकाचौंध से कोसों दूर, बहुत ही साधारण पहनावे में एक बैग टांगकर शरद अकसर आपको भिखारियों से बाते करते हुए लखनऊ में दिख जायेंगे। शरद पटेल बताते हैं, “राजधानी में पहले से ही भिक्षुकों की संख्या कम नहीं थी लेकिन इस कोरोना में ये संख्या और ज्यादा बढ़ गयी है। अभी भीख मांग वालों में बच्चों की संख्या भी बढ़ गयी है। इस कोरोना में 30 लोगों को भीख माँगना छुड़वाकर उन्हें रोजगार से जोड़ा है। इनमें से कोई सिलाई कर रहा है, कोई सब्जी बेच रहा कोई खिलौने की दुकान चला रहा। इनके व्यवहार परिवर्तन में समय तो बहुत लगता है क्योंकि भीख मांगते-मांगते ये नशे के आदी हो जाते हैं। हमारी कोशिश रहती है छह महीने में एक भिक्षुक को रोजगार से जोड़ दें।”

शरद पटेल ने लखनऊ में 3,000 भिखारियों के साथ एक शोध किया था जिसमें कई महत्वपूर्ण आंकड़े सामने आये हैं.
उत्तर प्रदेश भिक्षावृत्ति प्रतिषेध अधिनियम 1975 में इन भिक्षुकों के लिए क्या-क्या सुविधाएँ हैं ये जानने के लिए शरद ने ‘सूचना का अधिकार कानून 2005’ से जानकारी हासिल की। इस जानकारी में ये निकल कर आया कि उत्तर प्रदेश के सात जिलों में आठ राजकीय प्रमाणित संस्था (भिक्षुक गृह) का निर्माण कराया गया है। इन भिक्षुक गृहों में 18-60 वर्ष तक के भिक्षुकों को रहने खाने, स्वास्थ्य तथा रोजगारपरक प्रशिक्षण देने तथा शिक्षण की व्यवस्था की गयी, जिससे भिक्षुओं को मुख्य धारा से जोड़ा जाए और उन्हें रोजगार मुहैया कराया जाए। लेकिन इनमें एक भी भिखारी नहीं रहता है। इन भिक्षुक गृहों का सही क्रियान्वयन न होने से यह योजना सिर्फ हवा हवाई साबित हो रही है।
कमर के निचले हिस्से से पूरी तरह से दिव्यांग 35 वर्षीय अजय कुमार ने ट्राई साइकिल में ही एक छोटी से दुकान खोल ली है जिसमें मास्क, चिप्स, कुरकरे, बिस्किट जैसे कई समान है। अजय बताते हैं, “आठ नौ साल लखनऊ में भीख माँगी है, पैरों से चल न पाने की वजह से लोग हम पर ज्यादा तरस खाते थे। दिन के हजार डेढ़ हजार कभी इससे ज्यादा भी मिल जाते थे, बहुत नशेड़ी हो गया था। दो तीन महीने पहले ही इस शेल्टर होम पर आया हूँ। शरद भैया ने अभी ये दुकान खुलवा दी है, दिव्यांग होने की वजह से यहाँ भी लोग तरस खा जाते हैं। दिन में हजार, पन्द्रह सौ, दो हजार तक की बिक्री हो जाती है।”

शरद पटेल ने अजय कुमार को ट्राई साइकिल में ही एक छोटी सी दुकान खुलवा दी है. इनकी अच्छी आमदनी हो जाती है. फोटो: नीतू सिंह
शरद द्वारा किये गये शोध में यह भी निकलकर आया कि 65% लोग नशे के आदी हैं जिसमें 43% तम्बाकू खाते हैं। 18% बीड़ी, सिगरेट, स्मैक जैसे नशा लेते हैं। 19% भिक्षुक तम्बाकू, धूम्रपान और शराब तीनो प्रकार के नशों का सेवन करते हैं। 38% भिक्षुक सड़क पर रात काटते हैं। इनमे से 31% भिक्षुकों के पास झोपड़ी है जबकि 18% कच्चे मकान और आठ फीसदी के पास पक्के घर हैं। शोध में 31% लोग गरीबी , 16% विकलांगता, 14% शारीरिक अक्षमता, 13% बेरोजगारी, 13% पारम्परिक वहीं तीन फीसदी लोग बीमारी की वजह से भीख मांगने को मजबूर हैं। भीख मांगने वालों में 38% भिक्षुक विवाहित हैं जबकि 23% अविवाहित। इनमे से 22% विदुर, 16% विधवाएं शामिल हैं। रिसर्च में ये भी पता चला कि 66% से अधिक भिक्षुक व्यस्क हैं, जिनकी उम्र 18-35 वर्ष के बीच है। 28% भिक्षुक वृद्ध हैं, पांच प्रतिशत भिक्षुक 5-18 वर्ष के बीच के हैं।
भीख मांगने वालों में 71% पुरुष जबकि 27% महिलाएं इस व्यवसाय से जुड़ी हैं। इनके बीच अशिक्षा का आलम ये है कि 67% बिना पढ़े-लिखे हैं, लगभग सात प्रतिशत भिक्षुक साक्षर हैं और 11% पांचवी तक और पांच प्रतिशत आठवीं तक पढ़े हैं। चार प्रतिशत दसवीं पास, एक प्रतिशत स्नातक होने के बावजूद भीख मांग रहे हैं। (ये आंकड़े शरद के शोध पर आधारित हैं, गांव कनेक्शन इनकी पुष्टि नहीं करता)

शरद भिखारियों की बीच जाकर नुक्कड़ नाटक भी दिखाते हैं जिससे ये भीख माँगना छोड़कर रोजगार करने के लिए प्रेरित हो सकें.
भिखारियों के साथ आम तौर पर हम आप कैसा व्यवहार करते हैं? चल भाग, दूर हट। कभी बहुत दया आ गई तो दूर से पैसे दे दिए, या खाना खिला दिया। लेकिन लंबे बाल, फटे और मैले कुचैले कपड़ों के पीछे जो आदमी होता है वो हमारे आप जैसा ही होता। वो भिखारी क्यों बनें? ये सवाल कुछ से पूछ लेंगे तो आप की सोच बदल जाएगी। शरद की मेहनत की बदौलत अब ये भिखारी हाथ नहीं फैलाते ये अपने हाथों से काम करके पेट भरते हैं।
शरद ने बताया, “हमारे पास अभी इतने पैसे और संसाधन नहीं हैं जिससे हम सभी भिक्षुकों को रोजगार से जोड़ सकें। अगर प्रशासन स्तर पर मुझे सहयोग मिले तो हमारा काम और सरल हो जाएगा। अभी दिल्ली की ‘गूँज’ नाम की संस्था हमें सहयोग कर रही है जिनके सहयोग से इस covid 19 काल में भी हम इन्हें रोजगार देने में सक्षम हुए हैं। इनके रोजगार में एक बार में जितना भी पैसा खर्च होता है हम वन टाइम लगा देते हैं, ये पैसा इनसे वापसी में नहीं लेते हैं। हर छह महीने पर दूसरा बैच ले आते हैं।”