जमशेदपुर, झारखँड। जब अरविंद उराँव को पता चला कि पाँचवी कक्षा के बाद उनकी छोटी बहन स्कूल नहीं जा पाएगी तो उन्हें काफी दुख हुआ। उन्होंने कुछ ऐसा करने का मन बना लिया जिससे उनकी बहन के साथ-साथ गाँव के बाकी बच्चों को भी पढ़ाई न छोड़नी पड़े। उनके इन्हीं प्रयासों का नतीजा है झारखँड में गढ़वा जिले के गाँव मँगलो में ‘कर्तिउराँव आदिवासी कुँड़ुख स्कूल’।
2008 में जब अरविंद उराँव ने स्कूल की स्थापना की तब उनकी उम्र महज 20 साल थी। आज, लगभग 300 आदिवासी बच्चे यहाँ पढ़ते हैं। गणित, अँग्रेजी और हिंदी जैसे विषयों के साथ-साथ बच्चे अपनी मातृभाषा कुँड़ुख भी पढ़ते हैं। यह एक युवा की अपने समुदाय की जनजातीय भाषा को जीवित रखने की इच्छाशक्ति का जीता जागता उदाहरण है।
तकरीबन 4,000 वर्ग फुट में फैले इस स्कूल की जमीन को स्थानीय ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से दान में दिया था।
उराँव जनजाति के लोग कुँड़ुख भाषा बोलते है। ये जनजाति झारखँड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बँगाल और असम, बिहार और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों में फैली हुई हैं। ‘कुँड़ुख’ जिसे कुरक्स, आराँव या उराँव भी कहते है, द्रविड़ परिवार की एक लुप्तप्राय जनजातीय भाषा है।
कुँड़ुख की लिपि तोलोंग सिकि है। ‘तोलोंग’ शब्द आदिवासी समुदायों के पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले पारंपरिक परिधान से लिया गया है। वहीं ‘सिकी’ कुँड़ुख शब्द ‘सिका’ से लिया गया है, जो एक पारंपरिक प्रथा है। इस प्रथा में एक पुरुष की सहनशीलता को नापने के लिए उसकी कलाई पर दहकते कोयले से निशान लगाया जाता है।
राज्य की राजधानी राँची से लगभग 200 किलोमीटर दूर स्थित कर्तिउराँव आदिवासी कुँड़ुख स्कूल में पहली से लेकर आठवीं क्लास तक के बच्चों को पढ़ाया जाता है। यहाँ आठ शिक्षक हैं, जो 300 आदिवासी छात्रों में शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। स्कूल की मासिक फीस 300 रुपये से लेकर 400 रुपये तक होती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस कक्षा में पढ़ रहे हैं।
35 साल के अरविंद उराँव ने जिस कारण अपने गाँव में एक स्कूल बनाने का फैसला किया था, उस घटना का जिक्र करते हुए कहा, “मेरी छोटी बहन अँजलि को पाँचवीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए आस-पास कोई स्कूल नहीं था। इस घटना ने मुझे अँदर तक हिला दिया और यही स्कूल खोलने के लिए मेरी प्रेरक शक्ति भी बना। अगर मेरी बहन को पाँचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई जारी रखनी होती, तो उसे आठ किलोमीटर दूर दूसरे स्कूल में जाना पड़ता, जो नदी के उस पार था।”
अरविंद उराँव को अपनी बहन से खासा लगाव था और उन्होंने उसे पढ़ाने में कुछ समय बिताने का फैसला किया।
उन्होंने कहा, “मैंने उसे घर पर पढ़ाया लेकिन उसे सीखने के लिए कक्षा के माहौल की ज़रूरत थी इसलिए मैंने गाँव के ज्यादा से ज्यादा बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिए अपने पास बुलाना शुरू कर दिया। और इस तरह मेरे मन में गाँव में एक प्राइमरी स्कूल खोलने का विचार आया। लेकिन मैं चाहता था कि बच्चों को कुँड़ुख भाषा में पढ़ाऊँ।”
अरविंद उराँव हाल ही में टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा आयोजित आदिवासी सम्मेलन ‘सँवाद’ में भाग लेने के लिए जमशेदपुर आए थे। वहाँ उन्होंने स्वदेशी भाषाओं को सँरक्षित करने की जरूरत के बारे में बात की थी। फिलहाल वह भूगोल में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं और आने वाले समय में लेक्चरर बनने का सपना है।
कर्तिउराँव आदिवासी कुँड़ुख स्कूल के छात्रों को अपनी मातृभाषा सीखना पसँद है। स्कूल की 15 वर्षीय छात्रा नेहा बारा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मुझे वह भाषा पढ़ना पसँद है जो मेरे घर में बोली जाती है। ऐसे बहुत कम स्कूल हैं जो वास्तव में कुँड़ुख को एक विषय के रूप में पढ़ाते हैं। मैं बड़ी होकर कुँड़ुख भाषा में लेक्चरर बनना चाहती हूँ।”
अरविंद उराँव ने यह भी बताया कि कभी-कभी मुश्किल अवधारणाओं को अपनी मातृभाषा पढ़ाने से छात्रों को उन्हें बेहतर ढँग से समझने और सीखने में मदद मिलती है।
स्कूल के सँस्थापक ने कहा, “हम घर पर कुँड़ुख बोलते हैं। लेकिन बाहर लोगों से बातचीत करने के लिए हमें हिंदी में बात करनी पड़ती है। फिर अँग्रेजी भी तो है। जब चीजें उनकी स्थानीय भाषा में समझाई और सिखाई जाती हैं तो छात्र तेजी से सीखते हैं। ”
राँची स्थित बाल रोग विशेषज्ञ नारायण उराँव ‘उराँव’ जनजाति की कुँड़ुख भाषा को बढ़ावा देने और सँरक्षित करने के अरविंद उराँव के सफर में उन्हें प्रोत्साहित और मार्गदर्शन करते रहे हैं। यह पेशे से एक मेडिकल डॉक्टर नारायण उराँव ही थे, जो 1999 में कुँड़ुख भाषा के लिए एक लिखित लिपि ‘तोलोंग सिकि’ को लेकर आए थे।
यह 1999 की बात है, जब बिहार से अलग राज्य बनने से पहले झारखँड आँदोलन अपने चरम पर था। उन्हीं दिनों नारायण उराँव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उनकी लिखित लिपि को लिखित कुँड़ुख भाषा के मानकीकृत रूप के रूप में मान्यता दी गई थी।
बाल रोग विशेषज्ञ और कुँड़ुख भाषा के विद्वान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अफसोस की बात है कि हमारे पास कुँड़ुख में बहुत अधिक प्रकाशित रचनाएँ नहीं हैं, जिससे भाषा को बढ़ावा देना मुश्किल हो जाता है। मैंने कुँड़ुख टाइम्स नाम से एक वेबसाइट लॉन्च की है जो एक ऑनलाइन पत्रिका की तरह है। अरविंद जैसे लोग हमारी भाषा को सँरक्षित करने का बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जो हमारी आदिवासी पहचान के लिए महत्वपूर्ण है।”
उन्होंने बताया कि किस तरह से केंद्रीय शिक्षा मँत्रालय की 2020 में पेश की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी छात्रों को स्थानीय भाषा में पढ़ाने की वकालत करती है।
उन्होंने कहा, “ हम यह बात जानते हैं कि अगर बच्चों को उस भाषा में सिखाया जाता है जिसे वे घर पर बोलते हैं, तो वह बेहतर सीखते हैं। मुझे उम्मीद है कि कर्तिउराँव आदिवासी कुँड़ुख स्कूल जैसे और भी स्कूल स्थापित किए जाएंगे। न सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सरकार भी अपने कदम इस ओर बढ़ाएगी।”
विज्ञान शिक्षक विश्वनाथ उराँव पिछले 10 सालों से कर्तिउराँव आदिवासी कुँड़ुख स्कूल में पढ़ा रहे हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया कि कभी-कभी उन्हें कुँड़ुख भाषा में छात्रों को वैज्ञानिक अवधारणाओं के बारे में बताना या सिखाना बहुत आसान लगता है।
30 वर्षीय विश्वनाथ ने कहा, “अगर मैं उन्हें अँग्रेजी या हिंदी में पढ़ाता हूँ, तो भी वे समझ जाते हैं। लेकिन जब बातचीत कुँड़ुख में होती है, तो वे इसे बेहतर ढँग से समझ पाते हैं।”
विश्वनाथ ने कहा, यह जानकर काफी अच्छा लगता है कि उनके बहुत से छात्र कुँड़ुख भाषा को गहराई से जानना चाहते हैं और इसमें अपना करियर बनाना चाहते हैं। गौरवान्वित शिक्षक ने कहा, “उनमें से कई बच्चे इस भाषा में अपना शोध कर रहे हैं और जल्द ही लेक्चरर बन जाएंगे।”
10 किलोमीटर दूर सिर्फ दो और ऐसे स्कूल हैं जहाँ कुँड़ुख भाषा में पढ़ाया जाता है। इनमें से एक शिवनाथपुर में है और दूसरा सिसायी गाँव में।
उधर टाटा स्टील फाउँडेशन भी स्थानीय आदिवासी समुदायों के साथ-साथ उनकी भाषाओं और सँबंधित लिपियों को सँरक्षित और लोकप्रिय बनाने के लिए काम कर रहा है।
टाटा स्टील फाउँडेशन में ट्राइबल आइडेंटिटी के प्रमुख जिरेन जेवियर टोपनो ने कहा, “हम झारखँड, ओडिशा और पश्चिम बँगाल के कई अलग-अलग स्थानीय स्कूलों में 610 से अधिक भाषा केंद्र चला रहे हैं, जहाँ छात्रों को हो, सँताल, मुँडा, उराँव और भूमिज समुदायों की जनजातीय भाषाएँ सिखाई जाती हैं। ये कक्षाएँ शनिवार और रविवार को ली जाती हैं। ”
उन्होंने कहा, “इन भाषा केंद्रों में लगभग 1,000 शिक्षक पढ़ा रहे हैं। न्यूनतम नामाँकन 50 छात्रों का है और अधिकतम 100-150 छात्रों तक जा सकता है।” उनके मुताबिक, कई स्कूल अपने सँस्थानों में भी इन जनजातीय भाषाओं के पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए पहुँच रहे हैं।
टोपनो कहते हैं, “आदिवासी भाषाओं को सँरक्षित और सुरक्षित किया जाना चाहिए। अगर उनकी भाषा मर जाएगी, तो समुदाय भी मर जाएगा।”