भरतपुर (बाँकुरा), पश्चिम बंगाल। संघिता मित्रा ने बंगाल की लोक कला पटचित्र को एक नया जीवन देते हुए इसके कलाकारों को उम्मीद की एक नई किरण दिखाई है।
कुछ साल पहले यह कला मर रही थी और कलाकारों का जीवन बद से बदतर होता जा रहा था। लेकिन जब 40 वर्षीय मित्रा ने सॉफ्टवेयर कँपनी से अपनी नौकरी छोड़ उनके गाँव में कदम रखा तो उनके जीवन में बदलाव आने लगा। आज मित्रा की बदौलत ये लोग आसानी से अपना जीवन यापन कर पा रहे हैं। पिछले एक दशक से वह लोक कलाकारों के साथ काम कर रही हैं। भरतपुर गाँव में इन पारँपरिक कलाकारों को पटुआ कहा जाता है और इनके 18 परिवार यहाँ रहते हैं।
भरतपुर राज्य की राजधानी कोलकाता से 220 किलोमीटर दूर स्थित है और पटचित्र कला के लिए जाना जाता है। पिछले दस साल से मित्रा बाँकुरा जिले के छतना ब्लॉक के गाँव में कलाकारों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। ये कलाकार हाशिये पर पड़े ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) समुदाय से आते हैं।
मित्रा न सिर्फ उन्हें मेलों तक ले जाकर उनकी पटचित्र कला को बढ़ावा देती हैं, जहाँ वे अपनी कलाकृतियों का प्रदर्शन और बिक्री कर सकते हैं, बल्कि उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं तक पहुँचने में भी मदद करती हैं। उनके प्रयासों की बदौलत आज पश्चिम बँगाल सरकार से हर एक को एक हजार रुपये का सुनिश्चित मासिक वजीफा भी मिल रहा है।
भरतपुर के एक पटुआ सँभु चित्रकार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जब संघिता दीदी हमारे जीवन में नहीं थी, तब हममें से ज्यादातर लोगों लिए एक वक्त के खाने का इँतजाम करना भी मुश्किल हो जाता था।”
माना जाता है कि बँगाल की पटचित्र कला तेरहवीं शताब्दी की है। भरतपुर और आसपास के इलाकों में पटुआ कलाकारों की उत्पत्ति सौ साल से भी पहले की है। उस दौरान लगभग 20 किलोमीटर दूर कालीपहाड़ी गाँव के कालीचरण चित्रकार ने यहाँ बसने का फैसला किया था। 18 पटुआ परिवार उनके वँशज होने का दावा करते हैं।
कालीचरण चित्रकार के 72 वर्षीय पोते सहदेब चित्रकार ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कालीचरण एक कलाकार थे और उन्होंने अपने चित्रों में सँथाल आदिवासी समुदाय के जीवन और समय का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया। फिर अपने गीतों के जरिए उन चित्रो का वर्णन किया।”
गीतों के जरिए पाटा चित्रों का वर्णन करने की परँपरा भरतपुर में आज भी जिंदा बनी हुई है। पटुआ कागज या पतले कपड़े (पाटा) पर कहानियाँ चित्रित करते हैं और उन्हें गाकर सुनाते हैं। ज्यादातर कलाकार आज भी क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक रँगों का इस्तेमाल करते हैं।
लेकिन लगातार उपेक्षा के चलते इस पारँपरिक कला के रँग फीके पड़ने लगे थे। पटुआ मुश्किल से ही अपना गुजारा कर पाते थे। भरतपुर के रहने वाले एक कलाकार ने बताया कि संघिता मित्रा ने प्राचीन कला में नई जान डाल दी है।
मित्रा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “पहले जो जीवन वह जी रहे थे, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। अपनी नौकरी छोड़ने के बाद मैं भरतपुर गाँव पहुँची। उसके बाद मैंने उनकी स्थिति सुधारने के लिए उनकी मदद करने के बारे में सोचा और उनके साथ काम करना शुरू किया।”
मित्रा बाँकुरा शहर में रहती हैं, लेकिन उनका पैतृक घर सुसुनिया गाँव है। यह भरतपुर से ज्यादा दूर नहीं है। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा वहीं की और फिर, बाँकुरा सम्मिलानी कॉलेज से स्नातक होने के बाद 2005 में कोलकाता चली गईं। वहाँ उन्होंने डिजिटल विज़ुअल कम्युनिकेशन, ग्राफिक और वेब-सेंट्रिक कँप्यूटिंग में एक कोर्स पूरा किया।
उसके बाद मित्रा एक सॉफ्टवेयर कँपनी में काम करने लगीं। लेकिन 2013 में उन्होंने इसे छोड़ दिया और पटचित्र कलाकारों के साथ काम करने का फैसला किया। उन्हें अपने जीवन में नई राह पर चलने के लिए अपने पिता और पति से काफी समर्थन मिला। उनके पिता एक रिटायर हाई-स्कूल टीचर हैं और उनके पति रेलवे में काम करते हैं।
भरतपुर के एक अन्य पटुआ आभारी सँभू चित्रकार ने कहा, “हम आज भी सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे काम को कर रहे हैं। लेकिन अब हम भूखे नहीं मरते हैं। हम अच्छा खाते हैं, हमारे बच्चे स्कूल जाते हैं और हम आराम से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।”
आनँद चित्रकार ने गर्व से कहा, “हमारे पटचित्र अब आधिकारिक समारोहों में स्मृति चिन्ह के रूप में दिए जाते हैं। हमें अपने चित्रों के लिए 300 से 12,00 रुपये के बीच मिल जाती है।”
भरतपुर गाँव में खादी और ग्रामोद्योग आयोग द्वारा स्थापित एक कॉमन फैसिलिटी सेंटर भी है।
पश्चिम बंगाल खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड के जिला अधिकारी परेश पाल ने गाँव कनेक्शन को बताया, ” कॉमन फैसिलिटी सेंटर बनाने के लिए लगभग 30 लाख रुपये खर्च किए गए हैं। यहाँ कलाकार अपनी कला का अभ्यास कर सकते हैं और आने वाले पर्यटकों को अपनी पेंटिंग दिखा सकते हैं और बेच भी सकते हैं।” .
पहले कलाकारों की आय बेहद कम थी। अगर दिन अच्छा रहा तो कभी-कभी वे 300 से 400 रुपये तक कमा लेते थे। लेकिन कई बार तो उन्हें खाली हाथ घर लौटना पड़ता था। लेकिन अब उन्हें राज्य सरकार से हर महीने 1,000 रुपये वजीफे के तौर पर मिलते हैं।
पाल ने कहा, “मेलों में जाने और सामान्य सुविधा केंद्र में पर्यटकों को अपनी कलाकृतियां बेचकर इनमें से से कुछ लोग तो हर साल 50,000 रुपये तक कमा लेते हैं।”
मित्रा के प्रयासों की बदौलत छतना ब्लॉक प्रशासन ने भरतपुर गांव में 18 पटुआ परिवारों के लिए घर भी बनाए हैं।
छतना पोरामानिक के ब्लॉक विकास अधिकारी (बीडीओ) सिसुतोष पोरामानिक ने गाँव कनेक्शन को बताया, “70 लाख रुपये की लागत से पटचित्र कलाकारों के लिए सरकारी जमीन पर पक्के घर बनाए गए हैं। उनके घरों के लिए बिजली, स्ट्रीट लाइट, पँखे भी मुहैया कराए गए हैं।”
मित्रा ने कलाकारों के पटुआ समुदाय की दुर्दशा को सामने लाने के लिए काफी सँघर्ष किया है। उन्होंने बीडीओ पोरामनिक को उनकी स्थिति के बारे में बताया और उन्हें उसके काफी सकारात्मक परिणाम मिलें।
मित्रा ने कहा,“मैंने बहुत सारे कलाकारों को देखा है जो पेंटिंग करना छोड़ चुके थे। यह बहुत दुखद था। मैंने उन्हें प्रोत्साहित करने का फैसला किया। ”
सँभू चित्रकार ने बताया, “संघिता दीदी ने हमसे कहा कि हमें पेंटिंग करना बँद नहीं करना चाहिए। उन्होंने हमें जरूरी कागज, कपड़ा, ब्रश और रंग भी दिए। वह सप्ताह में चार दिन हमसे मिलने आती थीं और हमें प्रोत्साहित करती थीं।”
मित्रा इस बात का खास ध्यान रखती हैं कि पटचित्र कलाकार बाँकुरा और कोलकाता में आयोजित होने वाली कार्यशालाओं में भाग लेते रहें।
बीडीओ पोरामनिक ने कहा, “राज्य भर में सरकार प्रायोजित मेलों में पटचित्र कलाकारों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जाता है।” उन्होंने यह भी कहा कि भरतपुर पटचित्र के लिए भौगोलिक सूचकाँक (जीआई) टैग प्राप्त करने के लिए जरूरी कागजात और जानकारी सँबंधित अधिकारियों को भेज दी गई है।
कला का नया रूप
महिलाएँ पहले पेंटिंग नहीं करती थीं, लेकिन उन्होंने भी अब यह काम करना शुरु कर दिया हैं। भरतपुर की दो महिला कलाकारों गोलापी और सुमिता चित्रकार ने कहा, “पहले महिलाएँ पटचित्र नहीं बनाती थीं। लेकिन अब हमें भी रँगों से खेलना आ गया हैं। हमारी बनाई पेंटिंग भी बिक रही हैं। ” वो अपने बच्चों को भी इस कला को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने लगीं हैं।
ज्यादातर पटचित्रों में आज भी स्थानीय रुप से उपलब्ध प्राकृतिक रँगों का इस्तेमाल किया जाता है। पीला रँग कच्ची हल्दी से आता है, हरा फलियों और कुँदरी (एक प्रकार की सब्जी) के पत्तों के रस से, बैंगनी रँग मालाबार पालक के बीज (स्थानीय रूप से इसे पुइँशाक मेचुरी कहते हैं) से, लाल रँग आल्ता (जिसे महिलाएं अपने पैरों पर लगाती हैं) से और काला रँग जली हुई लकड़ी से लिया जाता है।
पुराने समय में कलाकार घर-घर जाकर अपनी बनाए चित्रों को दिखाते थे और उनमें बुनी गाथा को गाकर सुनाते थे। इसके बदले में उन्हें लोगो से चावल, आलू और कभी-कभी थोड़े से पैसे मिल जाया करते थे।
घर-घर जाकर कहानियाँ बाँचने का उनका ये तरीका आज भी नहीं बदला है। लेकिन उनके रहन-सहन में काफी बदलाव आ गया है। आज भी पटुआ एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते रहते हैं, कहानियाँ गाते हैं और अपनी पेंटिंग दिखाते हैं। लेकिन वे बेहतर तरीके से रहते हैं, बेहतर खाते हैं और कला को जिंदा बनाए रखने के लिए प्रयासरत हैं। इस सब के लिए मित्रा ने इन लोगों का काफी साथ दिया और उनकी मदद की। इसके लिए उनका शुक्रिया कहना तो बनता है।
मित्रा ने कहा, “बाँकुरा की बेटी होने के नाते पटचित्र की कला को जीवित रखना मेरा कर्तव्य है। यह देखकर मुझे बहुत खुशी होती है कि कलाकारों ने कैसे आत्मविश्वास हासिल कर लिया है।” वह आगे कहती हैं, अगर पारँपरिक कला को प्रोत्साहित करने, बनाए रखने और सँरक्षण देने के प्रयास नहीं किए गए तो यह लुप्त हो जाएगी।
उन्होंने कहा, “हम सभी चाहते हैं कि अगली पीढ़ी पटचित्र कला को अपनाए और उसे जिंदा बनाए रखने के लिए आगे आए।”