घर-घर समान बेचने पर इन महिलाओं का कभी उड़ता था मजाक आज वही हैं सफल उद्यमी

हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ की महिलाएँ अपनी माँ और दादी से चटनी, जैम, सूखे सेब और अन्य पारंपरिक खाने का हुनर सीख कर अपना व्यवसाय कर रहीं है; कोटगढ़ घाटी ग्राम संगठन उनके सपनों को पूरा करने और उन्हें एक सफल उद्यमी बनाने में मदद कर रहा है।
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कोटगढ़, शिमला (हिमाचल प्रदेश)। भारत का सेब का कटोरा कहे जाने वाले इस राज्य में इन दिनों एक नई हलचल देखने को मिल रही है; यहाँ के कई घरो में चटनी, जैम, सूखे सेब और अन्य पारंपरिक खाने का व्यवसाय शुरू हो गया है।

इसका श्रेय स्थानीय पहाड़ी महिलाओं को जाता है जो कोटगढ़ घाटी ग्राम सँगठन बनाने के लिए एक साथ आगे आईं और अपने सपनों को नए पँख देने लगी।

राज्य की राजधानी शिमला से लगभग 75 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ की पाँच महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) ने अपने घरों में बनाए जाने वाले अलग-अलग तरह के खाद्य उत्पादों के निर्माण और प्रचार के लिए एकजुट होने के लिए पिछले साल 2022 में सँगठन को खड़ा किया था।

और आज वे सभी सेब और बेर के जैम, चटनी, मूडी (मुरमुरे), बिच्छू बूटी (बिछुआ पत्ती की चाय), बोई (सूखे सेब) और अन्य चीजों का व्यवसाय कर रही हैं। वे अपने उत्पाद कोटगढ़ वैली वीओ ब्रांड नाम से बेचती हैं।

संगठन की शुरुआत 35 महिलाओं से हुई थी और आज इसके साथ हर उम्र की लगभग 46 महिलाएँ जुड़ी हुई हैं। कोटगढ़ वैली विलेज ऑर्गेनाइजेशन की अध्यक्ष पूनम चौहान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे पास मार्गदर्शन करने के लिए सीनियर मेंबर भी हैं और काम करने के लिए युवा महिलाएँ भी।”

महिला संगठन को इस साल जून में पाँच दिवसीय शिमला समर फेस्टिवल में सफलता मिलनी शुरू हुई। यहाँ देश और विदेश से आए लोगों के लिए उनके उत्पाद रखे गए थे।

कोटगढ़ को सेबों की जन्मभूमि के लिए जाना जाता है क्योंकि रॉयल सेब का पौधा 1916 में सत्यानंद स्टोक्स ने लगाया था। उनका असली नाम सैमुअल स्टोक्स था। ये एक अमेरिकी मिशनरी थे जो बाद में आर्य समाजी बन गए और इन्होंने एक स्थानीय महिला से शादी की थी।

इस क्षेत्र के ज़्यादातर लोग सीधे तौर पर या किसी अन्य तरह से सेब के बागानों से जुड़े हुए हैं।

पूनम चौहान ने कहा, “यह कोई नई बात नहीं है, हम वही कर रहे हैं जो हम दशकों से करते आए हैं। जैम, चटनी बनाना, सेब को सुखाना और मूडी (मुरमुरे) बनाना, ये सभी यहाँ का पारंपरिक काम हैं; बस हमने अभी इसकी मार्केटिंग के लिए एक नया पेशेवर तरीका अपनाया है।”

इन महिलाओं के हाथों बनाया गया प्लम जैम 300 रुपये प्रति किलोग्राम और सेब जैम 400 रुपये किलोग्राम के बीच बिकता है। मूडी का 250 ग्राम का पैकेट 130 रुपये में और चटनी 300 रुपये किलो बिकती है।

कोटगढ़ गाँव की 70 वर्षीय महिला शकुंतला भाइक ने कहा, “हम सेब के बगीचे की देखभाल करते हुए बड़े हुए हैं; हम पहले अपने लिए चटनी और जैम बनाते थे, लेकिन कभी नहीं सोचा था कि यह इस तरह भी काम कर सकता है। युवा महिलाएँ उद्यमशील होती हैं, उन्हें बस परिवार के साथ की जरूरत होती है।”

महिला संगठन को इस साल जून में पाँच दिवसीय शिमला ग्रीष्म महोत्सव में कुछ सफलता मिलनी शुरू हुई थी। यहाँ देश और विदेश में रह रहे लोगों के लिए उनके उत्पाद रखे गए थे।

संगठन की एक सदस्य कमलेश देवी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यह एक शानदार अनुभव रहा; हमने पारंपरिक तरीके से जैम और चटनी बनाई और उन्हें बेचा। हमने इसके जरिए कुछ पैसे तो कमाए ही थे; लेकिन सबसे बड़ी बात इसने हमारे अंदर कुछ आत्मविश्वास भी पैदा किया है।”

महिलाओं ने शिमला इंटरनेशनल समर फेस्टीवल से लगभग 1.5 लाख रुपये की कमाई की थी। फेस्टिवल में कमाए गए पैसे से, महिलाओं ने अपने जैम और चटनी बनाने के उद्यम को बढ़ाने के लिए बड़े बर्तन और पैकेजिंग मशीनें खरीदी हैं।

कोटगढ़ वैली विलेज ऑर्गेनाइजेशन की एक अन्य सदस्य सुचिता ठाकुर ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं सालों से अपनी माँ और सास को इन सेब की चटनी और जैम बनाते हुए देखती आई हूँ; लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह अतिरिक्त आमदनी का एक जरिया भी हो सकता है। इस साल, हमने स्थानीय उत्पादकों से सेब खरीदे और चटनी, जैम और सूखे सेब (बोई) बनाए।”

संगठन की शुरुआत 35 महिलाओं से हुई थी। समय के साथ-साथ इसके सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज इसके साथ हर उम्र की 46 महिलाएँ जुड़ी हैं।

सेब बागान मालिक भी इन महिलाओं का समर्थन करते हैं। कोटगढ़ में एक सेब के बगीचे के मालिक रंजीत चौहान ने कहा, “बड़े पैमाने पर ऐसा करने के बजाय, हमारे गाँव की महिलाएँ इसे छोटे समूहों में कर रही हैं; अगर हमारे पास हर गाँव में ऐसी इकाइयाँ या महिला समूह हैं, तो इससे किसानों के साथ-साथ किसान परिवारों को भी मदद मिलेगी, यह सहकारी मॉडल ही भविष्य है।”

हिमाचल प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के प्रभारी अनिल शर्मा ने कहा, महिलाओं के पास पहले से ही खान-पान से जुड़ी विरासत है। वे जानती हैं कि उन्हें क्या करना है।

शर्मा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “स्थानीय स्तर पर महिलाओं के पास बहुत सारा पारंपरिक ज्ञान मौजूद है; बस इसे बाज़ार मुहैया कराने के लिए सरकार की ओर से प्रोत्साहन की ज़रूरत है। महिलाएँ अपना काम अच्छे से जानती हैं, और यह देखते हुए कि एसएचजी का यह समूह कितनी अच्छी तरह काम कर रहा है, कोटगढ़ की और अधिक महिलाएँ भी इसमें शामिल हो रही हैं। ”

कोटगढ़ की कुछ महिलाएँ इन दिनों दिवाली से पहले मिट्टी के दीए बनाने जैसे दूसरे काम में भी लगी थीं। इन्हें भी कोटगढ़ वैली ग्राम संगठन के जरिए बेचा गया था। इन महिलाओं को ओम शिमला में स्कूल शिक्षकों के एक समूह से मूडी (एक स्थानीय नाश्ता) का ऑर्डर भी मिला है। कुछ समय पहले होली रँगों के आर्डर को भी उन्होंने पूरा किया था।

महिलाएँ बिछुआ पत्ती की चाय (बिच्छू बूटी) भी बना रही हैं। इसे एक अच्छा डिटॉक्स कहा जाता है और प्रोसेस करके डिटॉक्स पेय के रूप में बेचा जा रहा है।

कोटगढ़ घाटी ग्राम सँगठन के सदस्यों को उम्मीद है कि उनका उत्साह और उद्यम उन्हें आगे बढ़ाता रहेगा। यह पहली बार नहीं है कि उनके कुटीर उद्योग को कोई ढाँचा देने का प्रयास किया गया हो।

वीरगढ़ गाँव की कौशल्या चौहान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “लगभग 20 साल पहले जब मैं पंचायत प्रधान थी; तब भी ऐसी ही कुछ योजनाएँ सामने आईं थीं, लेकिन वे कई कारणों से आगे नहीं बढ़ पाईं। अपने से बनाए गए जैम और चटनी को बेचना शायद महिलाओं के लिए एक मुश्किल काम था, लेकिन अब यह उद्यम बहुत अधिक पेशेवर हो गया है। ”

राह में आने वाली तमाम मुश्किलों के बावजूद इन महिलाओं ने कभी हार नहीं मानी। कौशल्या चौहान ने बताया, “बाहर से कोई मदद नहीं मिलती थी। हमने अपने घर की रसोई में ही प्लम जैम, सेब जैम और चटनी बनाई और फिर घर-घर जाकर उसे बेचा।”

लोग उनके बारे में बाते करने लगें। कुछ लोगों ने उनके घर-घर जाकर मार्केटिंग करने के प्रयास का मजाक भी उड़ाया। बहुत से लोगों को यह मंज़ूर नहीं था कि घर की औरतें बाहर निकलें और उद्यमी बनें। लेकिन कोटगढ़ की महिलाओं ने हिम्मत नहीं हारी। फिर धीरे-धीरे गाँव के दूसरे लोग भी उनका समर्थन करने लगे।

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