उस दिन भी यहीं हुआ लड़ाई किसी और ने की थी लेकिन मैंने उसे अपनी लड़ाई बनाकर अन्य साथियों से खूब झगड़ा किया। मुझे अपने साथियो का हर परिस्थिति मे साथ देना बहुत पसंद था नतीजन हर लड़ाई मेरी व्यक्तिगत बन जाया करती थी। इसके अलावा मैं क्रिकेट खेलना बहुत पसंद करता था। धीरे-धीरे मुझे दिन रात क्रिकेट की ही बातें करनी अच्छी लगती। मुझे एक तरह का नशा सा चढ़ चुका था।
मेरे बाबा पं श्रीकृष्ण मिश्र बहुत सख्त मिजाज के थे। वैसे तो मैं पढ़ने में अच्छा था लेकिन जिस तरह मैं झगड़ा करने में पारंगत होता जा रहा था वह निश्चित तौर पर मेरे लिए ठीक नहीं था। मुझे लगता था कि मेरे रहते मेरे साथियो के साथ कुछ गलत नहीं होगा और मैं गलत करने वाले को भले ही मारना पीटना पड़े उसे सही रास्ते पर ले ही आऊंगा।
कृषक इंटर कालेज महोली में मैं सबसे अच्छे पढ़ने वाले बच्चों में शामिल था। स्कूल के प्रिंसिपल जीवन में अनुशासन को बहुत महत्व देते थे।
एक गुरू अपने शिष्य पर बहुत पैनी निगाह रखता है। कृषक इंटर कॉलेज महोली के पूर्व प्रिंसिपल भगवती प्रसाद गुप्त जी मेरे घर आ धमके। हम तीन भाई उनके पास पढ़ाई करने जाते थे ।
मेरे चाचा, ताऊ और पिताजी सब उनके पास ही पढ़े थे।
उन्हे मेरी सभी क्रिया कलापों की पूरी जानकारी थी। घर आकर उन्होने अपने प्रिय बड़े भाई मेरे बाबा जी से मुलाकात की वैसे प्रिंसिपल साहब अक्सर बाबाजी से मिलने आते रहते थे इसलिए उनके आने पर उसदिन मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। उन्होने मेरे बारे में कहा कि कल से आपका यह बच्चा मेरे साथ ही रहेगा। मैं इसे अपने घर पर रहकर पढ़ाऊंगा। मुझे लगता है कि ट्यूशन के अलावा इसे घर पर बच्चे को पढ़ाना मेरे लिए अच्छा होगा। मैं खुश हुआ चलो कोई शिकायत नहीं की। प्रिंसिपल साहब को हम सब मास्टर साहब कहते थे।
लेकिन मेरे बाबा ने उन्हे बताया कि इस बच्चे को क्रिकेट के अलावा कुछ दिखाई सुनाई नहीं देता है। महा क्रोधी और लड़ाई करने में एक नम्बर है यह।
प्रिंसिपल साहब ने कहा क्या आप मेरे शिष्य के बारे में मुझसे ज्यादा जानते हैं? कल से इसे मेरे घर रहना है यह कहकर वह चले गए। हर रोज की तरह मैं अगले दिन मैं कालेज गया और घर आया। घर आने के बाद मुझे खाना दे दिया गया।
खाना खाने के बाद बाबा ने तुरंत प्रिंसिपल साहब के घर जाने का आदेश जारी कर दिया। प्रिंसिपल साहब का घर मेरे घर से मुश्किल से आधा से एक किलोमीटर दूर था। प्रिंसिपल साहब ने मुझे सुधारने के लिए पूरा प्लान तैयार कर लिया था। मैं उनके घर पहुंचा और घर जाते ही उन्होने पढ़ाना शुरू कर दिया। देर शाम तक पढ़ाई कराई। मैं उनके पोते जिनका नाम अतुल गुप्त है के साथ थोड़ी देर बैठा इसके बाद रात को फिर पढ़ाई और फिर सुबह उन्हीं के घर से सीधे स्कूल पहुँचा।
मैं हर रोज स्कूल से छुट्टी होते ही अपने घर भाग जाता लेकिन वहाँ से खाना खिलाकर फिर प्रिंसिपल साहब के यहाँ भेज दिया जाता। धीरे धीरे उनके घर के सदस्यों के साथ मैं घुल मिल गया और उनका घर मेरे परिवार का हिस्सा बन गया और पता ही नही कब मै प्रिंसिपल साहब को मास्टर साहब की जगह पिता कहने लगा प्रिंसिपल साहब के परिवार मे सभी उनको पिता ही कहते थे। वह स्कूल में मेहनत करते और फिर मुझे पढ़ाते लेकिन उन्होने कभी मुझसे ट्यूशन फीस नहीं ली।
मेरे घर से दो भाई भी उनके पास पढ़ने आते थे जिनसे उन्होने कुछ फीस भी ली और वह थोड़ी देर पढ़ कर वापस चले जाते थे। एक दिन खेलते वक्त मेरा प्रिंसिपल साहब के पोते से झगड़ा हो गया। गलती मेरी थी मेरा अपने क्रोध पर काबू पाना मुश्किल होता था। बात प्रिंसिपल साहब तक पहुंची मैं तो उन्ही के घर था ही। प्रिंसिपल साहब ने मुझसे कुछ नहीं कहा और अपने पोते को डाट दिया। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं उनका सबसे प्रिय बन चुका हूं।
अब मेरे पास स्कूल के खाली समय में भी पढ़ाई के अलावा कोई काम नहीं था। क्रिकेट अच्छा तो लगता था और मै अपने कालेज की क्रिकेट टीम का कप्तान भी था लेकिन उसके बारे में सोंचने का समय मुझे मिल नहीं पा रहा था। वह मुझे खेलने से कभी नहीं रोकते थे लेकिन जैसे ही मैं क्रिकेट की बात करना चाहता थोड़ी देर सुनने के बाद पढ़ाई शुरू हो जाती। मैं कालेज के दिनों में क्रिकेट खेलता भी था और पढ़ता भी था लेकिन अब यह मेरे लिए नशा नहीं रह गया था।
भगवती प्रसाद गुप्त जी ने 1993 से लेकर 1996 तक मुझे अपने घर अपने साथ ही रखा। मुझमें और खुद के बच्चों में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। सबसे खास बात थी उन्होने कभी मुझे ना तो मारा और ना ही डाटा लेकिन मेरी सारी गलत आदतें अपने आप दूर होती चली गईं। उन्होने मुझे दंड देकर सुधारने के बजाय मेरी समस्याओं को चिन्हित कर उन पर स्वयं परिश्रम किया था।
मैंने कालेज की पढ़ाई जब पूरी कर ली और परीक्षा फल आया तो मै अपने सभी साथियो से अधिक अंको से उत्तीर्ण हुआ उस दिन उन्होने मुझसे कहा जानते हो मैंने तुम्हें क्यों अलग से पढ़ाया? मैं उन्हे देख रहा था और मैंने सोचा यह कहेंगे कि तुम एक लड़ने वाले और खेल खेलने के बजाय उसकी बातों पर समय नष्ट कर रहे थे इसलिए अपने पास रखा। लेकिन मेरा अनुमान गलत सिद्ध हुआ। उन्होने कहा कि तुम अपनी पिछली सभी कक्षाओं के अंक देखना तुम पाओगे कि तुम एक बहुत होनहार और पढ़ने वाले बच्चे हो।
ऐसे में मेरा दायित्व था कि तुम्हें पढ़ाई के दौरान पूरी मदद करना ताकि तुम हमेशा यूं ही पढ़ाई में अपना परचम लहराते रहो। मैंने उनके चरण स्पर्श कर आशिर्वाद लिया और अपने घर के लिए चल पड़ा। वह दूर तक मुझे देखते रहे। उनके पढ़ाए बच्चे आज बड़े बड़े पदों पर हैं लेकिन उनके घर रहकर पढ़ने का सौभाग्य सिर्फ हमें मिला। ऐसे थे हमारे गुरूदेव स्व भगवती प्रसाद गुप्त जी!
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