बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गई थी। तब मैंने कानपुर के ही एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया और पढ़ाने के कुछ समय पहले ही मेरा स्नातक कम्पलीट हुआ था। मेरे से छोटे दो भाई-बहन थे जिनकी पढ़ाई से लेकर देखभाल की जिम्मेदारी मेरी हो गई थी। मैंने भी इस जिम्मेदारी को निभाया।
एक दिन आया जब साल 2016 में मेरा सेलेक्शन सरकारी अध्यापक के लिए हो गया और मुझे राजेपूर क्षेत्र फर्रुखाबाद यूपी के एक छोटे से विद्यालय में पोस्टिंग मिल गई। अब यहां आने के बाद एक अलग तरह की शुरूआत हुई। अब मुझे इन बच्चों को कॉन्वेंट और प्राईवेट स्कुल के बच्चों के बराबर लाना था। 2-4 भी बच्चे कामयाब हो गए तो समझूंगी की मेरी जिंदगी सफल हो गई।
अब मैंने यहां को-करिकुलर-एक्टिविटी को प्रमोट करना शुरू कर दिया हालांकि काफी परेशानियां सामने पेश आई। एक बार मैंने एक बच्चा को तैयार किया की तुम्हें ‘तेरी मिट्टी में मिल जावां’ गाने पर प्रस्तुति देना है 26 जनवरी के उपलक्ष्य पर, तो उस बच्ची ने ऐसा प्रस्तुति दी कि गाँव वालों के खुशी का ठिकाना न रहा। तो उस दिन मुझे भी बहुत मजा आया और ऐसे प्रोग्रामों को कराने का मन लगने लगा।
मेरे मन में आया क्यों न एक बार फैशन शो कराया जाए, हालांकि ये भी डर था कि सफल होगा की नहीं। लेकिन मैंने ठान लिया की कराकर रहना है। मेरे दिमाग में हमेशा एक बात चलती थी कि समाज में ऐसे प्रोग्राम से कोई अच्छा मैसेज भी जाए तो हमनें इस प्रोग्राम का थीम ‘नो प्लस्टिक यूज’ रखा। बच्चों के ड्रेस हमने पत्तल और पेपर से बनाए, इन बच्चों को कैटवॉक करना भी सिखाया। इस प्रोगाम की चीफ गेस्ट उस क्षेत्र की बीईओ थीं। ये प्रोग्राम उनको काफी पसंद आया और उन्होंने इस प्रोग्राम को हाई लेवल तक ले जाने को कहा।
कभी देखा है गाँव के बच्चों का ऐसा फैशन शो
अगर नहीं तो उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद में स्थित प्राथमिक विद्यालय गौटिया के बच्चों का ये शो देख लीजिए, जिसमें बच्चों ने बेकार पड़े प्लास्टिक और अखबार से बने कपड़े पहने हैं @basicshiksha_up @thisissanjubjp @UPGovt @CMOfficeUP @B24813044 pic.twitter.com/sbo7h3Mo8C
— GaonConnection (@GaonConnection) February 13, 2023
मैंने एक कैंपेन भी चलाया जिसका नाम “खुशियों का पिटारा” रखा, इस कैंपेन में मैंने सबसे पहले अपने परिवार को जोड़ा। यहां बच्चों को बैठने के लिए टेबल-कुर्सियां तक नहीं थी। कई लोगों की मदद से बेंच और डेस्क का भी इंतजाम हो गया। जैसे-जैसे लोगों को इस कैंपेन का पता लगता है वो बच्चों के लिए कुछ न कुछ भेजवाते रहते हैँ। कोई मुंम्बई से तो कोई दिल्ली से बच्चों के लिए स्टेशनरी भिजवाता है। आज हमारी एक अलमारी है वो हमेशा स्टेशनरी से भरी रहती है।
मेरा मानना है कि महिला शिक्षक बच्चों से ज्यादा जुड़ जाती है और मैं हमेशा बच्चों की माताओं को ये बात कहती हूं आपको देखना होगा की आपका बच्चा कैसे आगे बढ़े। मैं उनसे कहती हूं कि जैसे आज में आपके बच्चों को पढ़ा रही हूं और अपने घर की भी मदद कर रही हूं वैसे ही कल ये आपकी बेटियां भी मदद करेंगी और बच्चों का भविष्य भी संवारेंगी।
यह स्टोरी गाँव कनेक्शन के इंटर्न दानिश इकबाल ने लिखी है।
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