मिसाल कायम कर रहे हैं आज के द्रोणाचार्य

शिक्षा के अलग-अलग आयामों में से एक प्रमुख खेल भी है, आज़ ग्रामीण भारत से निकले हज़ारों खिलाड़ी देश-दुनिया में नाम कर रहे हैं। इन खेलों में आगे बढ़ते लोगों के पीछे किसी न किसी गुरु का हाथ होता है। ऐसे ही गुरुओं पर आधारित है इस बार की टीचर कनेक्शन ई-मैगज़ीन।
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अपने हुनर और कड़ी मेहनत से हिन्दुस्तान के कई गाँवों में आज के द्रोणाचार्य मिसाल कायम कर रहे हैं। कुछ जहाँ नए अंदाज़ में खेल- खेल में सबक याद करा रहे हैं तो कुछ टीचर खेल के ज़रिए बच्चों को उनके सपने साकार करने में मदद कर रहे हैं।

गांदरबल में गोगजीगुंड गाँव के मुज़मिल महमूद जहाँ प्राइमरी स्कूल में टीचर के साथ फुटबॉल कोच की भूमिका में कमाल कर रहे हैं वहीं यूपी के सीतापुर में सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल योगेंद्र कुमार पांडे बच्चों को खेल कूद के साथ अख़बार निकालने के गुर सीखा रहे हैं।

बरेली में प्राथमिक विद्यालय मानपुर की पूजा शुक्ला और गोरखपुर की उजाला पांडेय जैसी कई अध्यपिकाएँ भी हैं जो दूर दराज़ के गाँवों में गीत, नृत्य और खेल के ज़रिए बच्चों में स्कूल आने की ललक पैदा कर रहीं हैं। कल तक स्कूल के नाम से भागने वाले बच्चे अब ख़ुद ब ख़ुद किताबों से जुड़ रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज खेल के महत्व को हर समाज और देश ने न सिर्फ समझा और स्वीकारा है बल्कि प्रोत्साहित भी किया है। अगर ये कहें कि प्राचीन सभ्यताओं से ही विश्व संस्कृति का ये अभिन्न अंग रहा है तो ग़लत नहीं होगा। जब भी हम संस्कृति और समाज का उदाहरण देते हैं खेल सबसे पहले रहता है। कहते हैं ओलंपिक खेल की शुरुआत तो 3 हज़ार साल पहले हो गई थी। आज खेल संस्कृति की लोकप्रियता दुनिया भर में फुटबॉल और क्रिकेट के चाहने वालों के आधार से तय की जा सकती है।

सभी खेल लोगों को उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाए रखने में मदद करते हैं। स्कूलों में किताबी ज्ञान के साथ खेल के जुड़ने से छात्रों में रूचि और जिज्ञासा बनी रहती है। जिन स्कूलों में दाखिले के बाद भी छात्र घर बैठ जाते हों, लेकिन फुटबॉल, वॉलीबॉल या क्रिकेट के बहाने स्कूल आने लगे तो क्या कहेंगे? ऐसे कई स्कूल, कॉलेज हैं जहाँ टीचर खेल के ज़रिए बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। कुछ टीचर तो दूसरे राज्यों या स्कूल के लिए मिसाल बन गए हैं।

भारत में शुरू से ज्ञान के साथ शारीरिक बल को भी ज़रूरी माना गया। विवेकानंद ने तो एक युवक को सिर्फ इसलिए गीता का ज्ञान देने से मना कर दिया था क्योंकि वो स्वस्थ्य नहीं था। कहते हैं उन्होंने युवक से कहाँ पहले छह महीने वो फुटबॉल खेले और अपनी क्षमता के मुताबि क गरीबों की मदद करे, फिर फि गीता पर वो बात करेंगे। युवक ने सोचा शायद टालने के लिए ऐसा कह रहे हैं। उसने पूछ ही लिया आखिर गीता का फुटबॉल से क्या सम्बन्ध? सवाल सही भी था। तब विवेकानंद ने समझाया गीता , वीरों और त्यागियों का महाग्रंथ है। जिसमें इन दोनों का अभाव होगा वो गीता के गहरे श्लोकों और कृष्ण-अर्जुन के बीच बात चीत का रहस्य नहीं समझ पाएगा। अर्थ साफ़ था फुटबॉल और कसरत से अपना तन बलशाली बनाएँ और सेवा से जीवन को पवित्र करें।

वैदिक काल में जहाँ ब्राह्मणों के अध्यात्मिक, मानसिक विकास पर ज़ोर दिया जाता था, वहीं क्षत्रियों को शारीरिक विकास के लिए रथों की दौड़, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, घुड़सवारी, मल-युद्ध, तैराकी और आखेट सिखाया जाता था। आज के ओलम्पिक खेलों में कई खेल भारत की देन हैं, जो भारत के ज़रिए कभी यूनान गयीं थीं ।

धार्मिक किताबों में भी देखिए, बलराम, भीमसेन, हनुमान, जामवंत और जरासन्ध जैसे कई नाम ऐसे मिल जाएँगे जो मल-युद्ध में माहिर थे।

गुप्त काल में जहाँ चीन के फ़ाहियान और ह्यूनत्साँग ने कई तरह की भारतीय खेल प्रतिस्पर्धाओं का जिक्र किया है, वहीं नालन्दा और तक्षशिला के छात्रों में तैराकी, तलवारबाज़ी, दौड़, मलयुद्ध जैसे कई खेल लोकप्रिय थे। जो नियमित तौर पर वे अपने गुरुओं से सीखते रहते थे।

गाँव कनेक्शन की पत्रिका टीचर कनेक्शन का हिंदी अंक ऐसे ही गुरुओं के नाम है। (पूरी पत्रिका यहाँ पढ़ें )  

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