साल 1997 में जब जावीद अहमद टाक अपने चाचा से मिलने जा रहे, तब उनकी उम्र 23 साल थी और वे दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग डिग्री कॉलेज में पढ़ते थे। उस समय उन्हें नहीं पता था कि वह यात्रा उनके और कई अन्य लोगों के लिए जिंदगी बदलने वाली है।
टाक को बंदूकधारियों ने गोली मार दी थी और गोलियों ने उनकी रीढ़ को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया था। “तब से मैं व्हीलचेयर से बंधा हूं, ” 47 वर्षीय टीचर ने गाँव कनेक्शन को बताया।
2006 में, टाक ने कश्मीर से सामाजिक कार्य में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और दो साल बाद, 2008 में, उन्होंने अनंतनाग जिले में बिजबेहरा में ज़ैबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ इनक्लूसिव एजुकेशन की स्थापना की।
टाक के संस्थान में 130 छात्र हैं, जिनमें से कुछ ऑटिज्म स्पेक्ट्रम में हैं, सुनने और देखने में अक्षमता और शारीरिक चुनौतियों से ग्रस्त हैं। 21 विशेष शिक्षक हैं जो व्यावसायिक और पुनर्वास प्रशिक्षण सहित छात्रों को शिक्षा प्रदान करते हैं।
टाक मानवता कल्याण संगठन नामक एक गैर-लाभकारी संगठन भी चलाते हैं, जो दिव्यांग व्यक्तियों की मदद करता है। टाक ने कहा, “हम विशेष रूप से स्कूल जाने वाले बच्चों को श्रवण यंत्र, व्हील चेयर, बैसाखी जैसे सहायक उपकरण प्रदान करते हैं।” 2020 में टाक को उनके सामाजिक कार्यों के लिए पद्मश्री से नवाजा गया था।
उनके अनुसार, दक्षिण कश्मीर के चार जिलों अनंतनाग, कुलगाम शोपियां और पुलवामा में 15,000 से अधिक दिव्यांग बच्चे हैं।
आशा की किरण
दक्षिण कश्मीर में अनंतनाग जिले के बिजबेहरा की रहने वाली अफरोजा जान के लिए यह संस्थान उनकी नौ साल की बेटी मुंतहा फैयाज के लिए उम्मीद की किरण बन गया है।
अफरोजा जान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जब मुंताहा केवल 45 दिन की थी, तब वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थी और तब से लकवाग्रस्त हो गई है, और चलने-फिरने या यहां तक कि खुद से खा भी नहीं सकती है।”
“दो साल पहले हमने उसे ज़ैबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ़ इनक्लूसिव एजुकेशन में नामांकित किया था और मुंतहा में एक बड़ा सुधार देखा है जो अब बिना सहारे के बैठ सकती है और अपनी बाहें उठा सकती है। वह कलम पकड़कर लिखने की भी कोशिश कर रही है, ”भावुक मां ने कहा। उन्होंने कहा कि यह सब संस्थान में फिजियोथेरेपिस्ट के प्रयासों के लिए धन्यवाद है।
अफरोजा जान अब यह उम्मीद करने की हिम्मत कर रही हैं कि उनकी बेटी भी दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जा सकेगी। हर सुबह मुंताहा को खाना खिलाने के बाद अफरोज़ा उसे मुख्य सड़क पर ले जाती है, जो घर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर है। वहां से एक बस मुंतहा को संस्थान ले जाती हैं जहां उसकी फिजियोथेरेपी होती है।
ज़ैबा आपा इंस्टीट्यूट ऑफ इनक्लूसिव एजुकेशन बस किराया सहित प्रति माह 50 रुपये से 300 रुपये के बीच शुल्क लेता है। महामारी के दौरान, टाक के गैर-लाभकारी संगठन ने विकलांग लोगों और उनके परिवारों को दवाएं और राशन प्रदान करने के लिए अथक प्रयास किया।
सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, “हम मुख्य रूप से सार्वजनिक दान पर चलते थे, लेकिन 2018 के बाद से, बेंगलुरु, कर्नाटक में स्थित अजीम प्रेमजी परोपकारी पहल ने संस्थान को आर्थिक रूप से समर्थन दिया है।”
विशेष जरूरत वाले बच्चों की जिंदगी में बदलाव लाना
टाक का संस्थान ब्रेल में प्रशिक्षण भी प्रदान करता है और यह वह था जिसने 20 वर्षीय डुकरू जकाई के लिए संभावनाएं खोलीं। यहीं पर उन्होंने ब्रेल में किताबों के साथ मुफ्त शिक्षा प्राप्त की। उनके चाचा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उसे घर से ले जाया जाता है और स्कूल के बाद वापस छोड़ दिया जाता है।”
जकाई, जो बचपन से ही नेत्रहीन हैं, ने संस्थान में दसवीं कक्षा तक की शिक्षा पूरी की और आज नई दिल्ली में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं।
उनके चाचा ने कहा कि 10वीं कक्षा के बाद, उन्हें नई दिल्ली जाना पड़ा क्योंकि घाटी में ऐसे छात्रों के लिए कोई उच्च शिक्षा संस्थान उपलब्ध नहीं थे।
एक सरकारी कार्यालय में काम करने वाले मंजूर अहमद ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरी बेटी मिस्बाह, जो 12 साल की है, बोलने और सुनने में अक्षम है और संचार में काफी कठिनाइयों का सामना करती है।”
अनंतनाग में चेरसू अवंतीपोरा से, मिस्बाह ने ज़ैबा आपा समावेशी शिक्षा संस्थान में भाग लिया और अब सांकेतिक भाषा को अच्छी तरह समझती है। मंज़ूर अहमद ने कहा कि वह स्पीच थेरेपी भी प्राप्त कर रही हैं। वह विशेष रूप से खुश हैं कि उनकी बेटी, जो खेल से प्यार करती है, को संस्थान में खेलने का मौका दिया गया है।
“बच्चों के पास उनके लिए कई खेल गतिविधियां उपलब्ध हैं। ये अवसर इन छात्रों को बढ़ने, सक्रिय रहने और दूसरों के साथ संवाद करने में मदद करते हैं, “उन्होंने बताया।