मुंबई की ज़िंदगी छोड़ स्पीति के दूर पहाड़ी गाँव में शुरू किया फ्री बोर्डिंग स्कूल

बर्फ़ की चादर से लिपटे पहाड़ों और तीन फीट बर्फ़ से जमी हुई सड़कों के बीच, जहाँ बिजली और इंटरनेट कनेक्टिविटी भी बड़ी मुश्किल से पहुँचती है वहाँ पर शहर की सुख-सुविधाओं को छोड़कर पोर्शिया बस गई हैं, ताकि स्पीति के बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ कर सकें।
planet spiti Portia Putatunda boarding school

सुबह-सुबह जब चिड़ियों की आवाज़ भी नहीं आ रही होती, उस समय बच्चे खिड़की पर खड़े होकर अपनी मैम को बुलाते हैं, “मैम, चलिए पढ़ाई करते हैं।”

ये हैं उनकी पसंदीदा टीचर पोर्शिया मैम..

साल 2018 में पोर्शिया पहली बार मुंबई से स्पीति घूमने आईं थीं, लेकिन एक बार आईं तो फिर यहीं की होकर रह गईं, उन्हें यहाँ के बच्चों के प्यार ने रोक लिया। 

उस दिन को याद करते हुए पोर्शिया गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “2019 में जब मैंने अपनी सेटल जॉब छोड़कर यहाँ आने का फैसला किया, तो बहुत सारे सवाल और सेल्फ डाउट्स थे। मुंबई की जिंदगी छोड़कर यहाँ बसना मेरे लिए आसान नहीं था। पर एक इनर कॉलिंग थी, जो मुझे यहां खींच लाई।”

हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी के कोमिक गाँव में एक बड़े न्यूज चैनल की पत्रकार और न्यूज़ प्रोड्यूसर पोर्शिया पुतातुंडा ने प्लैनेट स्पीति फाउंडेशन की नींव रखी। फिर स्पीति के 75 अलग-अलग गाँव और लाहौल के 150 से ज़्यादा गाँव में ग्रामीण स्कूली लड़कियों और लड़कों की पहचान की गई है, जहाँ बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। 

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सबसे बड़ी चुनौती तब आई जब उन्होंने बच्चों के माता-पिता को समझाने की कोशिश की

पोर्शिया बच्चों के लिए सिर्फ़ साधारण पढ़ाई में विश्वास नहीं रखती हैं, बल्कि वह उन्हें गार्डनिंग से लेकर अलग-अलग लाइफ स्किल्स भी सिखाती हैं। पोर्शिया खुद सीखती हैं और साथ ही वे उन चीज़ों को बच्चों को भी सिखाती हैं, ताकि बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ वे सभी हुनर सीख सकें, जो आगे उनकी ज़िंदगी में काम आए। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए उन्होंने बच्चों के साथ मिलकर कचरे से बैग और कई तरह के दूसरे सामन बनाने की भी कोशिश की थी।

पोर्शिया आगे कहती हैं, “मुझे सबसे बड़ी चुनौती यह लगी कि कोई ऐसा लीडर फ़िगर नहीं था, जिससे मैं खुद सीख सकूँ या फिर किसी को यह बता सकूँ कि इसे ऐसा करना चाहिए। कोई ऐसा व्यक्ति हो जो मुझसे ज्ञान साझा कर सके, खासकर इस क्षेत्र की जलवायु परिस्थितियों के बारे में, ताकि मैं लोगों को सही तरीके से समझा सकूँ।”

मूल रूप से झारखंड के रांची की रहने वाली हैं पोर्शिया, लेकिन उन्होंने रांची में कुछ क्यों नहीं किया? इस सवाल पर वो कहती हैं, “मैं चाहती हूँ कि अपने जन्मस्थान के लिए कुछ करूँ, लेकिन स्पीति अपने आप में ही एक जगह है। शिक्षा के लिए स्थान की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन यहाँ इस दिशा में कोई और काम नहीं कर रहा था। वहीं, रांची में देखा जाए तो वहाँ संचार की अच्छी सुविधा है और पहले से ही बहुत लोग इस जगह में काम कर रहे हैं।”

उनके परिवार वाले इस मुहिम में उनका पूरा समर्थन करते हैं। अपने पिता के बारे में बताते हुए पोर्शिया कहती हैं, “आज मैं जो कुछ भी कर रही हूँ, वह सब मैंने अपने पापा से सीखा है। आज पापा नहीं हैं, लेकिन उनकी सीख हमेशा मेरे साथ है।”

मीरा रंधावा, जो पेशे से फिल्मकार हैं और प्लेनेट स्पीति फाउंडेशन की वॉलंटियर भी हैं, गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “यह एक अद्भुत अनुभव था। वहाँ बच्चे एक साथ मिल-जुलकर रहते हैं और एक-दूसरे से सीखते हैं। मिल-बांटकर रहने में ही खुशी है। मैं अपने काम से वहां गई थी, लेकिन साथ ही प्लेनेट स्पीति फाउंडेशन में वॉलंटियरिंग भी कर रही थी। वहां के स्पीति रीजन की शिक्षा पर एक फिल्म बनाने के लिए आई थी।”

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मीरा आगे कहती हैं, “वहाँ मैं बच्चों को पढ़ाती भी थी। यहाँ बच्चे बचपन से ही आकर रहते हैं, तो वे हर चीज़ें सीखते हैं।”

पोर्शिया पहले मुक्तेश्वर में बच्चों को पढ़ा रही थीं, लेकिन उनका हमेशा से मानना था कि उन्हें स्पीति जाकर पढ़ाना है।

वो आगे कहती हैं, “जॉब छोड़ने के बाद मेरे लिए 2018-2019 का समय बहुत डाउटफुल था। मैंने अपनी नौकरी छोड़ने से पहले बहुत सारे लोगों की राय ली थी, लेकिन सभी ने मुझे डिस्करेज ही किया। लोगों ने कहा कि पहाड़ के लोग पहाड़ में ही रह सकते हैं, शहर के लोग यहाँ कुछ दिनों के बाद छोड़कर चले जाते हैं। मेरे एडिटर्स ने भी कहा कि यह एक गलत निर्णय है।”

लेकिन उन्हें पता था कि वह अपने काम में अच्छी हैं और यह रिस्क लेने के लिए तैयार थीं। उन्होंने सोचा, “पीछे तो कभी भी जा सकती हूँ, लेकिन एक कोशिश तो ज़रूर करूंगी।” इसी सोच के साथ उन्होंने अपने आपको मेंटली तैयार किया और लॉजिक के पीछे न जाकर अपनी इनर वॉइस को चुना।

पोर्शिया आगे कहती हैं, “मुझे बहुत छोटी उम्र से ही पता था कि मैं जर्नलिस्ट बनूंगी। मैंने 11-12 साल तक इस फील्ड में काम किया है। जब से यह करना शुरू किया, तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा।”

तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली तेंजिन नॉरज़ोम गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “पोर्शिया मैम हमें मैथ्स, इंग्लिश और हिंदी पढ़ाती हैं। वह बहुत अच्छा पढ़ाती हैं। अभी ऑनलाइन क्लासेज चल रही हैं, लेकिन मुझे स्कूल जाकर पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है।”

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बच्चों को बेहतर शिक्षा मिलने से उनके अभिभावक भी खुश हैं, तेंजिन नॉरज़ोम के पापा, तेंजिन दुत्तुल गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “स्पीति के गाँव में अच्छी पढ़ाई नहीं हो रही थी, लेकिन जब से यह स्कूल शुरू हुआ है, मेरा बेटी बहुत कुछ सीख रही है और पढ़ाई भी अच्छे से हो रही है। यहाँ तो कई बार 4 दिन तक बिजली नहीं रहती, 3 फीट तक बर्फ जम जाती है, जिससे आना-जाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन इस स्कूल में उन्हें अच्छी शिक्षा मिल रही है।”

लेकिन ऐसा नहीं था कि ये राह पोर्शिया के लिए आसान थी, उनके सामने तमाम मुश्किलें भी आईं, लेकिन वो डटी रहीं, वो आगे कहती हैं, “चुनौतियाँ तो हर पहलू में होती हैं। मेरे पास सीमित संसाधन थे और कोई बड़ा फंड भी नहीं था। सिर्फ मेरी इच्छाशक्ति और थोड़ी-सी जमा पूंजी के साथ मैं घर से निकली थी।”

“साइकोलॉजिकल और फाइनेंशियल चुनौतियाँ भी थीं और एक महिला होने के नाते कहीं भी अकेले रहना भी किसी चुनौती से कम नहीं था, “पोर्शिया उस दौर को याद करके कहती हैं। 

उन्होंने शहर की सुख-सुविधाओं, दोस्ती-यारी को छोड़कर पहाड़ों में आने का फैसला किया, यह सोचकर कि उन्हें यहाँ कुछ करना है।

पोर्शिया चुनौतियों के बारे में बताते हुए कहती हैं, “सोशल चैलेंजेज भी थे। यहाँ सोशल लाइफ वैसे नहीं है जैसे शहरों में होती है। अगर आपका मन खराब हो तो आप किसी दोस्त से मिल सकते हैं, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है। मैंने खुद को इन सबके लिए तैयार कर लिया था।”

लेकिन उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण उनकी इनर कॉलिंग थी कि उन्हें पहाड़ों में बच्चों के लिए कुछ करना है। पोर्शिया आगे कहती हैं, “जब चुनौतियाँ आती हैं, तो कई बार गिव अप करने का मन करता है। लेकिन जब मुश्किलें आएं, तो जी भरकर रो लेना चाहिए, ना कि हार मान लेनी चाहिए।”

अभी है और आगे बढ़ना 

ऐसा नहीं है कि पोर्शिया यहीं पर थम जाएंगी, अभी तो उन्होंने शुरूआत की है आगे और भी लड़ाई है, भविष्य को लेकर वो कहती हैं, “जब तक है जान’ तब तक फाइट करते रहेंगे। अगर बीच में छोड़ देंगे, तो यह कोई मिशन नहीं रहेगा। शिक्षा का असर तुरंत नहीं दिखता, इसका परिणाम तब दिखेगा जब बच्चे कक्षा 10 या 12 तक पहुँचेंगे।”

उन्हें हमेशा से कोई ऐसा चाहिए था, जो क्लाइमेट और इस काम के महत्व को समझे, जिससे वह बच्चों के लिए कुछ नया और इनोवेटिव कर सकें।

सबसे बड़ी चुनौती तब आई जब उन्होंने बच्चों के माता-पिता को समझाने की कोशिश की। उन्हें लगा कि ऐसे तो बहुत लोग आते हैं, कुछ दिन पढ़ाकर चले जाते हैं। इसलिए माता-पिता बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। लेकिन अब उनके स्कूल में 105 बच्चे पढ़ते हैं और 5 शिक्षक हैं। साथ ही, कभी-कभी वॉलंटियर भी आकर पढ़ाते हैं। पोर्शिया यहाँ की प्रिंसिपल भी हैं।

बहुत सारे सेल्फ-क्वेश्चन्स और डाउट्स के साथ उन्होंने इस सफर की शुरुआत की थी। कभी जहाँ 5 बच्चे थे, आज वहाँ 105 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं।

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