पैसे पास होते तो चार चने लाते,
चार में से एक चना घोड़े को खिलाते,
घोड़े को खिलाते, घोड़ा पीठ पर बिठाता
घोड़ा पीठ पर बिठाता तो बड़ा मज़ा आता।
चौथी कक्षा में पढ़ने वाली नेहा बड़े मन से कविता सुना रही थीं, आजकल उनका मन कविताओं और कहानियों में लगने लगा है। आखिर उनकी स्कूल की लाइब्रेरी जो है, जहाँ पर वो अपने मन की किताबें पढ़ती हैं।
नेहा हँसते हुए गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “हम सब रोज़ पुस्तकालय जाते हैं और वहाँ बहुत सी किताबें हैं; हमने अभी तक प्लूटो, टिनटिन जैसी किताबें पढ़ी हैं।”
“इनमें से मुझे जो सबसे पंसद है वो है साइकिल, उसमे कविता भी है और कहानी भी है उसी की एक कविता है, कौन नारियल के पेड़ो पर जादू सा कर जाता है बंध कटोरी के अंदर मीठा सा जल भर जाता है। ” नेहा फिर से अपनी पसंदीदा कविता सुनाने लगीं।
रील और इंटरनेट के इस युग में अक्सर हम देखते हैं कि लोगों ने किताबें पढ़ना छोड़ दिया है। ये जानते हुए भी कि उसके कितने फायदें है लोग और ख़ासकर बच्चों के लिए।
लेकिन सोचिए अगर ऐसा टीचर आपको मिला होता जो बचपन से ही आपकी दोस्ती किताबों से करा देता। वो आपको सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि आपको किताबों से प्रेम करा देता तो आज आप भी किताबों से घिरे होते, उनके प्यार में होते।
आप हम तो नहीं लेकिन उत्तर प्रदेश की देवरिया ज़िले की रुद्रपुर के प्राथमिक विद्यालय के बच्चों को एक ऐसे गुरु मिल गए हैं, जिन्होंने स्कूल के बच्चों को किताबों की दुनिया से मिलवाया है और न सिर्फ मिलवाया है, किताबों को उन बच्चों की ज़िंदगी का हिस्सा भी बनाया है।
अनिल यादव ने फरवरी 2021 में इस सरकारी स्कूल को ज्वाइन किया, तब स्कूल के बच्चों का किताबों से और पढ़ाई से कोई खास लगाव नहीं था और इसी समस्या के समाधान के रूप में उनके स्कूल में लाइब्रेरी खोलने का विचार आया। फिर क्या था वो लग गए अपने काम में और बना डाली एक खूबसूरत लाइब्रेरी।
अनिल गाँव कनेक्शन से बताते है, “विद्यालय में उतने क्लासरूम नहीं है, कि हम अलग से क्लासरूम को लाइब्रेरी बना ले और वहाँ पढ़ने के लिए अलग से पीरियड नहीं था, अभी टाइम टेबल में उस चीज़ को डाला गया है कि एक पीरियड है लाइब्रेरी के लिए।”
वो आगे कहते हैं, ” मेरे दिमाग में था कि पुस्तकालय तो होना चाहिए, क्योंकि सरकार ने भी रीडिंग कॉर्नर की बात कही है; उसके लिए सबसे पहले एक अलमारी थी, जिसको ठीक किया गया, बच्चों ने ही उस पर चार्ट पेपर लगा कर उसे सजाया और भी चीज़े लगायी, ये सब मैंने अपनी सैलरी से दिया, क्योंकि हम सहायक अध्यापक हैं तो सैलरी से 1500 रूपए मेरा बच्चों के ऊपर समर्पित है।”
अनिल की ये पहली नौकरी थी और जब फरवरी 2021 में उन्होंने इस सरकारी स्कूल को ज्वाइन किया तो सबसे पहला ख़्याल उनके मन में लाइब्रेरी का आया। उनका मानना था कि विद्यालय में पुस्तकालय होना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि अनिल की पढाई बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हुई है, जहाँ वो अपने दोस्तों के साथ लाइब्रेरी जाया करते थे, यही वजह थी उनको लाइब्रेरी के महत्व का एहसास था।
अनिल बताते हैं, “ये मेरी पहली नौकरी है और जैसे कि मेरी पढाई बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से हुई है तो वहाँ लाइब्रेरी का उपयोग हम लोग करते थे; तो हमे लाइब्रेरी की ज़रुरत का एहसास था और उसके बाद सोशल मीडिया के माध्यम से हमने देखा कि दिल्ली के बहुत सारे टीचर्स अच्छा काम कर रहे हैं।”
अनिल ने मुस्कुराते हुए कहा, “ये काम मुझे भी बहुत पसंद है, इसलिए पढ़ने का जो भाव है, उसको हम धीरे- धीरे बच्चों में भी लाने का प्रयास कर रहे हैं।”
वो आगे कहते हैं, “बच्चे खुद से ही किताब लेते हैं और रजिस्टर में अपना नाम लिखते हैं ; वो रजिस्टर इस वक़्त पूरा भर चुका है और समय पर वो किताब पढ़ के जमा भी कर देते हैं; लाइब्रेरी में इस समय लगभग 300 से ज़्यादा किताबें मौजूद है।”
अनिल बताते हैं कि बच्चों को किताबों की तरफ आकर्षित करना आसान काम नहीं था, लेकिन लगातार प्रयास और कभी बच्चों को प्यार से तो कभी डाँट कर लाइब्रेरी और किताबों से वो जोड़ पाए हैं। इसके लिए उन्होंने और भी कई तरीकों का पालन किया जिससे बच्चों का लगाव और इंटरेस्ट किताबों में बढ़ सके।”
“बच्चों को किताबों से जोड़ना आसान नहीं होता, सिर्फ बच्चे ही नहीं आप या हम ही क्यों न हो किताबों से लगाव बहुत जटिल प्रक्रिया है; इसमें समय लगता है तो इस काम को करने के लिए हम अलग अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। ” अनिल ने आगे कहा।
पुस्तकालय के संचालक और किताबों का सही ढंग से प्रयोग सीखने का श्रेय अनिल ने टाटा ट्रस्ट की एक संस्था पराग को देते हैं। जहाँ उन्होंने लाइब्रेरी के संचालन से लेकर बहुत सारी बाते सीखी। अनिल यादव बताते हैं, “हमको मालूम चला की टाटा ट्रस्ट की एक संस्था है पराग वो ऑनलाइन माध्यम से एक कोर्स कराते हैं। तो वहीं से थोड़ा सा जाना और समझा। वहीं से समझ मिली की पुस्तकालय को कैसे संचालित करना है और कैसे अलग-अलग तरीकों से किताबों का उपयोग करना है, ताकि बच्चों का जुड़ाव किताबों से हो पाए।”
वो आगे कहते हैं, “हम कुछ एकलव्य पब्लिकेशन की कुछ किताबे अपने पैसों से लेकर आए, फिर इक़बाल, एक तारा जो भोपाल से लेकर के आए, वहाँ से हम 8000 रूपए तक की किताबें खुद के पैसों से ख़रीदे; फिर दिल्ली गए विश्व पुस्तक मेले में वहाँ से किताबें ले आए, बच्चों की कुछ पत्रिकाएँ भी मँगाते रहते हैं।”