इस तरक़ीब से बदल सकता है देश का शिक्षा तंत्र  

अब सरकार ने पक्के स्कूल बनवा दिए है, स्कूलों में बच्चों के बैठने की व्यवस्था और पीने के पानी का इंतजाम किया और अध्यापकों को अच्छा वेतन दे रहे हैं तब भी शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आई है। आखिर गुणवत्ता कैसे आएगी? यह विचारणीय प्रश्न है।

बहुत पहले एक कहानी सुनी थी, मध्य प्रदेश के एक स्कूल में अध्यापक बच्चों को पढ़ा रहा था। वह बता रहा था गंगा अमरकंटक से निकलती है तब तक निरीक्षक महोदय आ गए और उन्होंने सुन लिया। डिप्टी साहब ने कहा मास्टर साहब यह क्या पढ़ा रहे हैं गंगा अमरकंटक से तो नहीं निकलती है तब मास्टर साहब ने कहा सर 45 रुपए में तो गंगा अमरकंटक से ही निकलेगी, हाँ यदि पूरा वेतन मिला तो गंगा हिमालय से निकलेगी। यह सच है कि एक जमाने में अध्यापकों का वेतन क्लर्क से भी कम हुआ करता था और 1964 में मैंने एम.एस.सी. पास करने के बाद एल.टी. ग्रेड में 120 रुपया प्रति माह के वेतन पर कुछ दिन काम किया था। डिग्री कॉलेज के लेक्चरर का वेतन भी तब केवल ₹300 हुआ करता था। लेकिन 1973 में हेमवती नंदन बहुगुणा जी के प्रयासों से अध्यापकों के वेतन में सुधार हुआ था। आजकल प्राइमरी स्कूलों के अध्यापकों का वेतन भी बड़े अधिकारियों से अधिक है, शायद इसलिए क्योंकि उनके पास हड़ताल की ताकत है।

परिषदीय विद्यालयों में शिक्षा का गिरता स्तर

एक दूसरा पक्ष भी है कि अभी कुछ दिन पहले हमारी सरकार ने अध्यापकों के हाजिरी को डिजिटल करने का प्रयास किया, अध्यापक इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि अधिकारियों को पता चले कि वह कब आते हैं और कब जाते हैं। गाँव के स्कूलों में प्रधान भी इस बात की चिंता नहीं करता कि उसकी पंचायत के स्कूल कितने बजे खुलते हैं। उसे तो मनरेगा, चीजों के खरीद फरोख्त, स्कूलों की बिल्डिंग बनाना आदि में ही रुचि रहती है। वह अनाज बंटवाने, राशन दिलाने पेंशन के लिए नाम बैंक को पहुँचाने और ऐसे ही लेन-देन के कामों में काफी रुचि लेता है, परंतु शिक्षा में उसकी कोई रुचि नहीं रहती और शायद ग्राम प्रधान का यह दायित्व भी निश्चित नहीं किया गया है। तो एक समय था जब अध्यापक को दयनीय वेतन मिलता था फिर भी अधिकांश अध्यापक अपनी स्वयं की प्रेरणा से छात्रों को ज्ञान बांटते रहते थे, मुझे आज भी याद है मेरे प्राइमरी के कुछ अध्यापक कितनी लगन से पढ़ाते थे।

 आजकल अध्यापकों की मोटी तनख्वाह के बावजूद परिषदीय विद्यालयों से कक्षा 5 या फिर कक्षा 8 पास कराकर भेजते है तो उनकी दशा देखने लायक होती है। प्राइवेट विद्यालयों में नाम लिखाने के लिए फीस देकर पढ़ने की इच्छा रखने वाले तमाम छात्र परिषदीय विद्यालयों से आते हैं उनका टेस्ट अध्यापक लोग लेते हैं और कक्षा 8 पास का छात्र कक्षा तीन या चार के लायक भी नहीं होता। आखिर यह दशा क्यों आ गई है कि परिषदीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर और वहाँ की गुणवत्ता पुराने जमाने से बहुत खराब हो गयी है।

ज़रूरी है विद्यालयों का समय-समय पर  निरीक्षण

अब सरकार ने पक्के स्कूल बनवा दिए है, स्कूलों में बच्चों के बैठने की व्यवस्था और पीने के पानी का इंतजाम किया और अध्यापकों को अच्छा वेतन दे रहे हैं तब भी शिक्षा में गुणवत्ता नहीं आई है। आखिर गुणवत्ता कैसे आएगी? यह विचारणीय प्रश्न है। हालत यह है कि अभिभावक बिना फीस वाले परिषदीय विद्यालयों को छोड़कर और फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों को भेजना पसंद करते हैं। यहाँ तक कि गाँव में प्राइमरी कक्षाओं के लिए लोग अच्छी फीस देने को तैयार हैं और वह फीस देते भी हैं लेकिन बिना फीस वाले परिषदीय विद्यालयों में सीटें खाली पड़ी रहती है। हालत यह है कि प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है और परिषदीय विद्यालयों में अध्यापकों की संख्या बढ़ती जा रही है परंतु क्या कारण है? दरअसल शिक्षा का स्तर जो अंग्रेजों के जमाने में या आजादी के प्रारंभिक वर्षों में हुआ करता था वह नहीं रहा। उसका एक प्रमुख कारण है कि उन दिनों विद्यालयों में समय-समय पर सघन निरीक्षण होता था लेकिन अब निरीक्षण करने वाला स्टाफ शायद शहरों की कुर्सियां छोड़ना ही नहीं चाहता और गाँव के सड़कों पर भी जाना नहीं चाहता, जबकि पहले पगडंडियों पर जाकर निरीक्षण करता था।

सरकार का दायित्व यह तो है कि सभी छात्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था हो लेकिन यह आवश्यक नहीं कि स्वयं सरकार यह व्यवस्था करे। यदि प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा बेहतर है तो शिक्षा को प्राइवेट हाथों में दे दिया जाना चाहिए और सरकार अपने हाथ में सघन निरीक्षण की व्यवस्था रखे। यह बात केवल शिक्षा पर ही नहीं दूसरे कार्यक्रमों पर भी लागू होती है।

गाँव के लोगों में कम नहीं है प्रतिभा

शिक्षा को पूरी तरह प्राइवेटाइज करने का नुकसान भी है जिससे बचना होगा। नुकसान यह है कि जिस देश में किसी जमाने में  विद्यादान सभी दानों में महान माना जाता था मगर इस देश में आज विद्या सबसे ज्यादा लाभ देने वाला धंधा है। इस पर अंकुश ना लगने का परिणाम कोचिंग कॉलेज के रूप में अभी दिल्ली में देखा गया है। यदि समय-समय पर कड़ाई के साथ निरीक्षण और जाँच पड़ताल की गई होती तो उन तीन होनहार छात्र-छात्राओं का जीवन समाप्त नहीं होता, जो बेसमेंट में डूब कर मर गए। यदि हम अंग्रेजों के जमाने वाला निरीक्षण तंत्र खड़ा नहीं कर सकते तो प्राइवेटाइज करने से कोई लाभ नहीं होगा। और यदि निरीक्षण तंत्र मजबूत हो तो सरकारी स्कूल भी सुधर सकते हैं । कभी-कभी मान्यता, अनुदान और परीक्षा केंद्र बनाने के लिए तो निरीक्षण होता है लेकिन छात्रों के अकादमिक स्तर को बनाए रखने के लिए निरीक्षण पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह तंत्र का ही अंतर है कि गाँव से इंजीनियर, डॉक्टर और आईएएस अधिकारी बहुत कम संख्या में निकल पाते हैं, वह भी शहर में कोचिंग करने के बाद। इसके विपरीत मैंने उत्तरी अमेरिका में देखा कि जो उच्च शिक्षा के बाद शोध कार्य कर रहे थे उनमें अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए हुए लोग थे और वह कनाडा के स्थानीय लोगों को बराबर टक्कर दे रहे थे या आगे बढ़ रहे थे। इसलिए ऐसा नहीं कि ग्रामीण लोगों में प्रतिभा क्षमता या आईक्यू की कमी हो बल्कि अंतर है शहरी और ग्रामीण तंत्र का, क्योंकि ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह नकारा गया है। शहरों में बड़े नेताओं, अधिकारियों और पैसे वालों के बच्चे पढ़ते हैं इसलिए शहरी शिक्षा तंत्र को ठीक प्रकार से बनाकर रखा गया है।

भाषा से जुड़ी गुलाम मानसिकता  

ग्रामीण शिक्षा के गिरते हुए स्तर का एक कारण यह भी है कि हमारे देश में आज भी भाषा के मामले में गुलाम मानसिकता मजबूती से डटी हुई है। जिन्होंने सरकार चलाई वे अंग्रेजों के बीच में अंग्रेजों के द्वारा और अंग्रेजी भाषा में पले-बढ़े लोग थे और उन्होंने बाकी देश को भी उसी रास्ते पर ले जाने का प्रयास किया। नतीजा यह हुआ कि शहरों के बच्चे अपने पढ़े-लिखे माँ -बाप से भाई-बहनों से सीख कर और अंग्रेजी में पारंगत होते गए, लेकिन गाँव के पिछड़े इलाकों के बच्चे बराबर पीछे जाते रहे क्योंकि ना तो उनका परिवेश और ना परिवार इस गुलाम भाषा को सिखाने में मदद कर सकते थे। जितने भी देशों ने अंग्रेजी से टक्कर ली है वह सभी अपनी मातृभाषा के बलबूते पर आगे बढ़े हैं जैसे जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन, और ऐसे ही तमाम विकसित देश। मैं नहीं जानता कि अब 80 साल के बाद क्या भारत में वह जागृति आ पाएगी जिसके कारण लोगों में अपनी भाषा, अपना देश और अपना परिवेश के लिए स्वाभिमान पैदा हो।

तब तक वही सिद्धांत मानना होगा कि यदि उन्हें जीत नहीं सकते तो उनमे में शामिल हो जाओ और शायद आजकल गाँव के लोग यही कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि गाँव के संपन्न लोग मोंटेसरी स्कूलों में और तथाकथित अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में अपने बच्चों को भेज रहे हैं लेकिन ग्रामीण गरीब आज भी बिना फीस के परिषदीय विद्यालयों को भेजने के लिए मजबूर होते हैं। भला ऐसे बच्चे शहरी बच्चों से अथवा ग्रामीण धनी बच्चों से कैसे बराबरी कर पाएंगे और गरीबों के हिस्से के पद शहरी लोग और ग्रामीण अमीर हथियाते रहेंगे। इन परिस्थितियों में आरक्षण भी कोई मदद नहीं कर पा रहा है। आज आवश्यकता है सम्पूर्ण शिक्षा तंत्र में आमूल चूल परिवर्तन की। ऐसा परिवर्तन जिस पर समाज का नियंत्रण हो केवल सरकार के सहारे नहीं चलेगा। इसका मतलब है कि ग्राम समाज में स्थित विद्यालय अथवा विद्यालयों की जिम्मेदारी पंच प्रधानों को और तहसील स्तर पर ब्लॉक प्रमुख को और जिला स्तर पर जिला पंचायत के प्रमुख को सौंपी जाए। केवल बातें ही नहीं उनके पास अधिकार भी होने चाहिए और नियंत्रण भी, तभी कर्तव्य बोध हो पायेगा। जहाँ  तक सरकारी तंत्र का सवाल है उसमें डायरेक्टर, डिप्टी डायरेक्टर, बीएसए, एबीएसए और न जाने कितने अधिकारी होते हैं लेकिन क्या वे सुदूर गाँव के विद्यालयों को देखने के लिए पहुंच पाते हैं? शायद नहीं।

सभी छात्रों को समान मौका मिलना चाहिए 

कहने को शिक्षा प्रांतीय विषय है लेकिन यहाँ  पर सीबीएसई बोर्ड, आईसीएसई बोर्ड और न जाने कितने बोर्ड और सिलेबस चल रहे हैं जिससे शिक्षा में एकरूपता सामान्य नहीं आ रही है। जब तक शिक्षा में सभी छात्रों को समान अवसर नहीं मिलेंगे तब तक संपूर्ण शैक्षिक विकास संभव नहीं होगा। कक्षा एक से कक्षा 12  तक के विद्यालय तो ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में हैं लेकिन  विशेषज्ञता के लिए शिल्प, विकास, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और विश्वविद्यालय भी ग्रामीण क्षेत्रों में खोले जाने चाहिए। 70% आबादी के लिए मैं समझता हूँ बहुत कम संख्या में उच्च शिक्षा के संस्थान खोले जाते हैं। यदि आशंका यह है कि शिक्षा देने के लिए गाँव में विशेषज्ञ अध्यापक नहीं मिलेंगे तो उनके लिए और उनके परिवारों के लिए आवास आज की व्यवस्था कैंपस में की जानी चाहिए जैसा एक समय सोवियत रूस में किया गया था। चिंता यह होनी चाहिए कि देश की 70% ग्रामीण आबादी में से कितने प्रतिशत शिक्षित निकल रहे और 30% शहरी आबादी में से कितने हैं जो राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। अन्यथा समग्र विकास की बातें खोखली साबित होगी। जब असंतुलित शिक्षा दी जा रही है तो समाज का आर्थिक सामाजिक, विकास भी असंतुलित ही रहेगा, इससे बचने का एकमात्र उपाय है संतुलित समान शिक्षा गरीब और अमीर को एक समान मिले।

कैसे पूरा होगा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का सपना

पुराने समय में शिक्षा को अनुत्पादक समझा जाता था और इसलिए शिक्षा विभाग को अनुदान भी कम ही मिलता था जब कि उद्योग प्रशासन आदि को वरीयता दी जाती थी लेकिन हाल के वर्षों में शिक्षा विभाग को बड़ी मात्रा में बजट दिया जाने लगा है। फिर भी यह बजट वास्तविक शिक्षा प्रणाली पर खर्च न होकर अध्यापकों के वेतन और विद्यालयों के भवनों के निर्माण पर खर्च हो जाता है। अध्यापक भले ही बड़ी संख्या में नियुक्त किये जा रहे हैं लेकिन वह कर्तव्य बोध से प्रेरित नहीं है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रों का भला नहीं हो रहा विशेष कर उन परिवारों के छात्रों का जिन परिवारों में शिक्षित अभिभावक और दूसरे लोग नहीं हैं। ऐसे छात्रों का आवासीय विद्यालयों में भला हो सकता है लेकिन उनके परिवारों की आर्थिक दशा ऐसी नहीं कि वह खर्चा बर्दाश्त कर सके। 80 साल के बाद भी हालत यह है कि जो आरक्षण का लाभ पाकर आगे बढ़े और संपन्न हुए हैं वही बराबर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन जो विपन्न है उनके सामने विपन्नता के बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं दिखाई देता। विशेषज्ञों को इस दिशा में सोचना चाहिए अन्यथा एक भारत श्रेष्ठ भारत का सपना केवल सपना रह जाएगा।

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