ड्रीम स्कूल: जहाँ झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों के सपनों को मिल रहे पंख

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में विशालाक्षी फाउंडेशन झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों का केवल बेहतर शिक्षा दे रहा है। यहां हर दिन 75 बच्चे और कुछ युवा इकट्ठा होते हैं, जिन्हें ड्रीम स्कूल में पढ़ाई के साथ ही बच्चों को सपने देखना भी सिखाया जाता है।
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लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। दोपहर के करीब 3 बजे प्लास्टिक के तिरपाल और बांस से बनी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले ज्यादातर लोग कहीं काम पर चले गए हैं, उस समय सुमन और सपना अपने बैग तैयार करने में व्यस्त हैं, क्योंकि उन्हें जल्द से जल्द अपने स्कूल पहुंचना है।

सुमन और सपना के साथ एक-एक करके वहां के तिरपाल से बने इन छोटे-छोटे घरों में से कई और भी बच्चे स्कूल के लिए निकल पड़ते हैं, एक-दूसरे के हाथ पकड़े ये बच्चे अपने घरों से लगभग 200 मीटर दूर अपने स्कूल पहुंचते हैं। बांस की फट्टियों की चारदीवारी और उसी चारदीवारी में बांस की फट्टियों और हरी चादर से ढका एक झोपड़ीनुमा कमरा, यही है इन बच्चों का ‘ड्रीम स्कूल’।

अपनी कॉपी में गणित का सवाल हल करते हुए 11 साल की सुमन गाँव कनेक्शन से कहती हैं, “मेरे पापा ईंट-गारा करते हैं और मम्मी झाड़ू-पोछा करती हैं, पहले तो मैं किसी स्कूल में नहीं जाती थी, अब दो साल से यहां आ रहीं हूं।” वो आगे बताती हैं, “मुझे हर दिन दोपहर होने का इंतजार रहता है कि कितनी जल्दी स्कूल आ जाऊं, यहां आना अच्छा लगता है, घर जाकर भी मम्मी से यहीं के बारे में बताती रहती हूं।” सुमन भी आगे टीचर बनना चाहती हैं।

इस स्कूल को शुरू किया है, 25 साल के अलिंद अग्रवाल और उनके साथियों ने। 

इस स्कूल को शुरू किया है, 25 साल के अलिंद अग्रवाल और उनके साथियों ने। 

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गोमती नगर विस्तार में जनेश्वर मिश्र पार्क के पास चलने वाला ड्रीम स्कूल कई मायनों में खास है, यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे आसपास की झुग्गी झोपड़ियों में रहने मजदूरों के बच्चे हैं, सपना और सुमन भी उन्हीं बच्चों में से एक हैं।

ऐसे हुई शुरूआत

जहां पर आज ये ड्रीम स्कूल चल रहा है, दो साल पहले तक यहां कूड़े का ढेर लगता था। इस स्कूल को शुरू किया है, 25 साल के अलिंद अग्रवाल और उनके साथियों ने। वैसे तो अलिंद गुड़गांव की एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते हैं, लेकिन पिछले दो साल से स्कूल भी चला रहे हैं। स्कूल की शुरुआत के बारे में अलिंद गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “जनवरी, 2021 को जब यहां पर आए तो हमने देखा कि यहां पर बहुत सारा कूड़ा पड़ा हुआ था, चारों ओर गंदगी ही गंदगी थी। हमने सोचा कि हम किसी से शिकायत नहीं करेंगे, हम लोगों की मदद लेंगे और इस जगह को साफ करके दिखाएंगे। और लोगों को बताएंगे कि ये हम लोगों का ही काम है।”

वो आगे कहते हैं, “हमने यहां के लोगों से फावड़े और तसले मांगे और यहां सफाई अभियान शुरू कर दिया, तीन दिन की मेहनत के बाद इस जगह को साफ कर दिया गया। जब हम सफाई कर रहे थे तो आसपास की बस्तियों के बच्चे भी हमारी मदद करने के लिए आ गए थे।”

जहां पर आज ये ड्रीम स्कूल चल रहा है, दो साल पहले तक यहां कूड़े का ढेर लगता था।

जहां पर आज ये ड्रीम स्कूल चल रहा है, दो साल पहले तक यहां कूड़े का ढेर लगता था।

“जगह तो साफ हो गई हमने बच्चों से कहा आप लोग स्कूल जाते हो तो बच्चों ने कहा कि हम स्कूल नहीं जाते हैं। तब हमारे फाउंडर ने कहा अगर मैं अकेले गुड़गांव में ड्रीम स्कूल चला सकता हूं तो यहां पर तो कई लोग हैं, तो क्यों नहीं पढ़ा सकते हैं, “उन्होंने आगे कहा। शुरुआत 3 बच्चों से हुई और आज 75 से अधिक बच्चे आ रहे हैं।

बस यहीं से लखनऊ में ड्रीम स्कूल की शुरुआत हुई, ड्रीम स्कूल का संचालन विशालाक्षी फाउंडेशन करता है, जिसकी शुरुआत साल 2019 में में निलय अग्रवाल ने की थी। विशालाक्षी फाउंडेशन शुरू करने के पीछे की कहानी भी प्रेरणादायक है। निलय ने अपने दोस्त विशालाक्षी की अचानक हुई मौत के बाद इस संस्था को शुरू करने का फैसला किया, साल 2018 में उन्होंने अपने दोस्त को खोया और साल 2019 में विशालाक्षी फाउंडेशन की शुरुआत की।

एक बार शुरू हुआ ये सिलसिला बढ़ता ही गया, आज लखनऊ के साथ ही गुड़गांव, कश्मीर के पुलवामा, झारखंड के सिमडेगा जैसे कई जगह पर ड्रीम स्कूल का संचालन किया जा रहा है।

बच्चों को पढ़ा रही युवाओं की टोली

इस स्कूल की एक और बात भी बहुत खास है, यहां पर पढ़ाने वाले सभी टीचर मुफ्त में पढ़ाते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से मास्टर इन सोशल वर्क कर रहीं मानसी सिंह भी उन्हीं में से एक हैं और पिछले 6 महीने से यहां आ रहीं हैं। बच्चों के साथ टाटपट्टी पर बैठी मानसी गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “कॉलेज की तरफ से मुझे पांच दिनों के लिए फील्ड वर्क पर इस स्कूल में भेजा गया था, तब मुझे पता चला कि ये ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें कोई नहीं पढ़ाता है। तब से मैं यहां पर रेगुलर आ रही हूं।”

इस स्कूल की एक और बात भी बहुत खास है, यहां पर पढ़ाने वाले सभी टीचर मुफ्त में पढ़ाते हैं।

इस स्कूल की एक और बात भी बहुत खास है, यहां पर पढ़ाने वाले सभी टीचर मुफ्त में पढ़ाते हैं।

“कॉलेज के बाद सीधे आ जाती हूं, कई ऐसे बच्चे हैं जो हमारे आने का इंतजार करते रहते हैं, अगर एक दिन आओ तो दूसरे दिन पूछते हैं कि मैम आप कल क्यों नहीं आयीं थीं, “मानसी ने आगे कहा।

हिंदी, अंग्रेजी, गणित, कला जैसे विषयों के साथ ही बच्चों को नैतिक शिक्षा का भी पाठ पढ़ाया जाता है। अलिंद कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि हमने दो घंटे पढ़ा दिया और हमारी जिम्मेदारी खत्म हो गई, अब बच्चों का दाखिला भी सरकारी स्कूल में करवाते हैं।”

बच्चों को पढ़ाने वाले ज्यादातर वॉलिंटियर या तो अभी पढ़ रहे हैं, या तो कहीं पर नौकरी कर रहे हैं, लेकिन किसी तरह बच्चों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। अलिंद बताते हैं, “मेरा कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी टीचर बनूंगा और इतने बच्चों को पढ़ा पाऊंगा, लेकिन आज मेरे साथ 75 बच्चे हैं जिन्हें मैं बेहतर जिंदगी दे पा रहा हूं।” “मैं एक वर्किंग प्रोफेशनल हूं 10 से 6 बजे तक मेरा ऑफिस रहता है, लेकिन मैं दो घंटे पहले आ जाता हूं। मेरे ऑफिस में भी लोगों को पता है कि मैं एक स्कूल चला रहा हूं, “अलिंद ने आगे कहा।

आशी पटेल पिछले 3 महीनों से ड्रीम स्कूल में पढ़ा रही हैं। उनके लिए हर दिन स्कूल आना किसी चुनौती से कम नहीं, आशी कहती हैं, “जब पढ़ाना शुरू किया तो घर वालों ने कहा कि जा सकती हो, लेकिन जब कॉलेज शुरू हुआ तो पैरेंट्स कहने लगे कि अब 2-3 महीना हो गया, अब वहां जाकर क्या करोगी।”

बच्चों को पढ़ाने वाले ज्यादातर वॉलिंटियर या तो अभी पढ़ रहे हैं, या तो कहीं पर नौकरी कर रहे हैं, लेकिन किसी तरह बच्चों के लिए समय निकाल ही लेते हैं।

बच्चों को पढ़ाने वाले ज्यादातर वॉलिंटियर या तो अभी पढ़ रहे हैं, या तो कहीं पर नौकरी कर रहे हैं, लेकिन किसी तरह बच्चों के लिए समय निकाल ही लेते हैं।

आगे बताती हैं, “मैंने 15-20 दिनों का बीच में ब्रेक भी लिया था, मुझे नहीं लगा था कि मैं दोबारा यहां आ पाऊंगी, लेकिन मैंने किसी तरह से अपने घर वालों को मनाया कि मुझे यहां आना अच्छा लगता है, बच्चों के बीच रहना अच्छा लगता है। तब से मैं अब रेगुलर यहां आ रही हूं।”

ड्रीम स्कूल करीब 50 मीटर दूरी पर रेलवे लाइन है, जहां हर आधे घंटे में ट्रेन गुजरती है, 8 साल के मोहम्मद कामिल ड्रीम स्कूल से करीब एक किमी दूर रेलवे लाइन के किनारे बनी एक बस्ती से आते हैं और डॉक्टर बनना चाहते हैं।

शिक्षा के साथ ही भरा जा रहा पेट

विशालाक्षी फाउंडेशन फाउंडेशन के जरिए प्रोजेक्ट हंगर भी चलाया जा रहा है। निलय ने जब ये मिशन शुरू किया था तब उन्होंने लखनऊ में क़रीब 100 लोगों को खाना खिलाया था। इसके बाद, सोशल मीडिया के ज़रिए क्राउडफ़ंडिंग से उन्हें क़रीब 1000 लोगों को खाना खिलाने का फंड इकट्ठा किया।

कश्मीर के पुलवामा में भी ड्रीम स्कूल चल रहा है।

कश्मीर के पुलवामा में भी ड्रीम स्कूल चल रहा है।

पिछले दो सालों में, उनका फाउंडेशन 11 शहरों दिल्ली, लखनऊ, गुरुग्राम, नोएडा, रांची, मुंबई, जयपुर, अमरोहा, फतेहपुर, बांदा, और प्रयागराज में 3,000 से ज़्यादा युवा वॉलंटियर्स की मदद से 6 लाख से अधिक लोगों को खाना मुहैया कराया गया है। हर दिन करीब 500 लोगों का पेट भरा जा रहा है।

निलय अग्रवाल ने अपना पहला ड्रीम स्कूल गुरुग्राम की झुग्गियों में 6 कमरे में किराये पर लेकर खोला था। बस यहीं से ये कारवां बढ़ता गया।

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