मॉरीशस। राजधानी पोर्ट लुई से महज 15 किलो मीटर दूर मॉरीशस का त्रियोले गाँव कई मायने में खास है। समुद्र तट के करीब होने से जहाँ सैलानियों से ये जुड़ता है वहीं हिन्दू बहुल इस इलाके में हिंदी प्रेमियों की सबसे ज़्यादा संख्या है। मॉरीशस के प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार अभिमन्यु अनत की जन्म भूमि वाले इस गाँव में ही चंद्रप्रकाश विनय दसोय का निवास है। लेखक और रंगकर्मी दसोय प्रवासी भारतीयों के संगठन गोपिओ (ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ पीपुल ऑफ़ इंडियन ओरिजन) के अध्यक्ष भी है। करीब 70 साल की उम्र में भी रोज सुबह उठकर आसपास की सफाई और फिर स्कूलों में जाकर हिंदी पढ़ने वाले बच्चों और शिक्षकों को सलाह देना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है। यही वजह है कि कुछ लोग उन्हें मॉरीशस के ‘गाँधी’ भी बोल देते हैं।
“भले हम घर के बाहर फ्रेंच या क्रियोल बोलते हो, घर में कोशिश करते हैं हिंदी में ही बात करें। ये कुछ लोगों का भ्रम है कि यहाँ हिंदी कोई नहीं समझता। अगर आप बोलेंगे तो यहाँ के ज़्यादातर भारतीय आपकी बात समझ जायेंगे, “दसोय कहते हैं।
मॉरीशस के सरकारी स्कूलों में हिंदी एक विषय के रूप में तो है, लेकिन प्राइमरी कक्षा के बाद उसे अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह ही अनिवार्य नहीं किया गया है। यही वजह है स्कूल, कॉलेज या बाजार में बोली जाने वाली फ्रेंच या क्रियोल की तुलना में हिंदी बोलना बच्चों के लिए व्यावहारिक नहीं है। यहाँ हिंदी या अंग्रेजी भाषा में कोई पत्र पत्रिका प्रकाशित नहीं होती है। चंद्रप्रकाश विनय दसोय को लेकिन यकीन है अगर आर्थिक मदद और प्रोत्साहन मिले तो नामुमकिन कुछ भी नहीं है।
यहाँ के गाँव के लोगों का कहना है मॉरीशस में हिंदी को बढ़ावा देने में हिंदी लेखक संघ, इंद्र धनुष सांस्कृतिक परिषद और हिंदी प्रचारिणी सभा का बेशक योगदान है, यहाँ के भारतीय मूल के लोगों ने फ्रेंच और क्रियोल मिश्रित भोजपुरी या हिंदी बोल कर इसे ज़्यादा प्रभावी बनाया है।
दसोय कहते हैं, “गोपियों-मॉरीशस संगठन के 25 साल पूरा होने और भारतीय आज़ादी का अमृत महोत्सव के मौके पर हालही में हमने ‘कफ़न’ नाटक का मंचन किया। इसे देखने के लिए थियेटर में खूब भीड़ जुटी। ऐसे कई नाटक हमने स्थानीय कलाकारों को प्रशिक्षित कर भारत और अफ्रीका के दूसरे देशों में किया है। इससे युवाओं को न सिर्फ अपनी भाषा, संस्कृति का ज्ञान रहता है बल्कि उनके लिए जीवन की सही दिशा का चुनाव आसान हो जाता है।”
टीचर से ज़्यादा गहरा है दोस्त का सम्बन्ध
चंद्रप्रकाश विनय दसोय का मानना है, अगर बच्चों को सहज तरीके से कोई बात सिखाई जाए तो वो जल्द उसे समझते हैं । वे आज भी जब स्कूलों में जाते हैं तो पहले हर उम्र के बच्चों के दोस्त बन जाते हैं। उसके बाद उनकी दिलचस्पी और सपनों को जाने के बाद उन्हें सीखने का सरल तरीका समझाते हैं।
“शुरू में लोग मुझसे कहते थे कौन हिंदी में नाटक करेगा या देखने आएगा। लेकिन जब हमने तीन से 30 लोगों की टीम जुटाई तो यकीन करना मुश्किल था ये वहीं लोग हैं जो सिर्फ क्रियोल या फ्रेंच में सहज थे। अभिनय में हमारे कलाकार इतना डूब जाते हैं कि वे भाषा के बंधन से काफी दूर निकल जाते हैं, “दसोय कफ़न नाटक ही क्यों की वजह समझाते हुए कहते हैं।
वे कहते हैं , “रंगमंच की सरहद में आने वाली हर कला का ताना-बाना सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों की तस्दीक करता है लेकिन नाटक का तिलिस्म कुछ ऐसा है कि उसका असर बहुत गहरा और व्यापक होता है। उसका दायरा जीवन के ओर-छोर को नापता है। दरअसल, जीवन की रंगभूमि पर जो कुछ भी घटित होता है नाटक उसकी हर कार्यवाही को जीवंत करने में सक्षम है। इसीलिए समाज को नाटक की और नाटक को समाज की हर दौर में दरकार रही है।”
खुद दसोय को जीवंत अभिनय के लिए 1980 में देश के सर्वोच्च ‘नटराज सम्मान’ से नवाज़ा जा चुका है। रंगमंच के लिए उन्हें मॉरीशस के बाहर भी कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
इतिहास साक्षी है और कफ़न दसोय के चर्चित नाटक है। इन नाटकों के जरिये वे स्थानीय समस्या को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं।
युवाओं को सीख भी देता है नाटक
वे कहते हैं, “मैं नाटक के मंचन में ध्यान रखता हूँ कि स्थानीय लोग उससे जुड़े। इसलिए संवाद को उनके हिसाब से लिखता हूँ।”
दसोय कुछ पात्रों को दर्शकों के बीच बैठाकर न सिर्फ देखने वालों को भी मंच से जोड़ते हैं, बल्कि एक फिल्म की तरह ही लाइट, कैमरा और ध्वनि का बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं। जिस तरह प्रेमचंद ने जीवन के आखिरी वर्षों में अभिनय और फिल्म का रुख किया था, विनय दसोय भी कफ़न नाटक के अंत में खुद भिखारी का शानदार अभिनय कर दर्शकों को हैरत में डाल देते हैं। उनके छात्रों और स्थानीय युवाओं के लिए ये अनोखा प्रयोग मनोरंजन के साथ कई सीख भी देता है।
“मुंशी प्रेमचंद जमीन से जुड़े साहित्यकार थे, उनका जीवन स्वयं में उपन्यास है, इसे जितना पढ़ा जाए , उतना ही आनंद आता है। रंगमंच ऐसी विधा है जो लोगों को कला के साथ जोड़े रखती है। मैने रंगमंच को जिया है और ताउम्र इसको ही जीता रहूँगा। मैंने मॉरीशस के बच्चों को यहाँ की पृष्ठ भूमि पर बनी फिल्म ‘स्टोन बॉय’ में भी मौका दिलाया था। चाहता हूँ हिंदी से जुड़ीं सभी विधा में वो कमाल करें, “दसोय कहते हैं।
मॉरीशस की लाइब्रेरी में विलियम शेक्सपियर और मुंशी प्रेमचंद जैसे महान कथाकार कई दशकों से किताबों के रूप में जीवित हैं। लेकिन मंच पर उतरकर कर दर्शकों तक कड़वी सच्चाई दिखाने में बाजी हमेशा प्रेमचंद के हाथ ही लगी है।
मॉरीशस के बच्चों को हिंदी से जोड़ने में प्रेम चंद ही क्यों के सवाल पर दसोय कहते हैं, “प्रेम चंद अपने काल में ही मॉरीशस पर कलम चला चुके थे। अपनी मृत्यु से दो साल पहले 1934 में प्रेमचंद एक्टर की भूमिका में आ गए थे । उनको अभिनय से खूब लगाव था, इसी का नतीजा था कि वे 1934 की फ़िल्म ‘मजदूर’ में मजदूर नेता का अभिनय किया। इस अभिनय को करते हुए प्रेमचंद मजदूरों के प्रति काफी भावुक हो गए थे। इस बात की खबर ब्रिटिश सत्ता तक पहुंचते ही प्रेमचंद के किताबों की तरह उनकी फ़िल्म के प्रदर्शन पर भी रोक लगा दी गई। नतीजतन एक साल बाद ही प्रेमचंद को बॉलीवुड से घर लौटना पड़ा और ‘गोदान’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास की रचना की। इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद प्रेमचंद 8 अक्टूबर 1936 को दुनिया को अलविदा कह दिए। लेकिन इस कहानी में मॉरीशस (मारीच) का जिक्र कर वो अफ्रीका के इस देश से हमेशा के लिए जुड़ गए।”
(सर्वेश तिवारी मॉरीशस में भारतीय मूल के पत्रकार हैं। )