नहीं कोई सफाईकर्मी, बच्चें फेंक रहे कूड़ा

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लखनऊ /गोण्डा। जावेद (8 वर्ष) कक्षा-2 में पढ़ता है और उसकी मां हर रोज उसे सुबह गाँव के सरकारी स्कूल इस उम्मीद के साथ भेजती हैं कि उनका बच्चा पढ़ लिखकर एक अच्छा इंसान बनेगा, लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि स्कूल में उनके बच्चे को झाडू लगाना पड़ता है और बाल्टी में कूड़ा भरकर गाँव के बाहर फेंकने भी जाना पड़ता है। 

लखनऊ जि़ला मुख्यालय से लगभग 40 किमी दूर काकोरी ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय जहेटा में बच्चे पढ़ाई के अलावा सब कुछ करते हैं। वो स्कूल की पूरी साफ-सफाई करते हैं, कूड़ा फेंकने जाते हैं यहां तक की दुकान से अध्यापिकाओं का सामान लेने भी जाते हैं लेकिन अगर कक्षा पांच के बच्चे को आप हिंदी के कुछ शब्द लिखने को कहेंगे, तो वो उससे नहीं हो पाएगा।

कक्षा दो में पढऩे वाला जावेद बताता है, हम लोग रोज सुबह आकर पहले स्कूल साफ करते हैं फिर कक्षाओं में जाते हैं रोज अलग-अलग बच्चे सफाई करते हैं। सरकार लगातार स्कूलों में बच्चों का नामांकन और उपस्थिति बढ़ाने के लिए मिड डे मील, छात्रवृत्ति और मुफ्त पुस्तक वितरण जैसी कई योजनाएं चला रही है लेकिन फिर भी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हो रहा और इसका कारण यही है।  

देशभर में शैक्षिक गणना करने वाली संस्था राष्ट्रीय शैक्षिक प्रबंधन सूचना प्रणाली (डीआईएसई) की रिपोर्ट 2013-14 के अनुसार उत्तर प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों की संख्या 1,53,220 है और माध्यमिक स्कूलों की संख्या 31,624 है।  

ये हाल केवल जेहटा प्राथमिक विद्यालय का ही नहीं बल्कि कई स्कूलों का है। गोण्डा जिला मुख्यालय से लगभग 35 किमी दूर उत्तर दिशा में पचपेड़वा प्राथमिक विद्यालय में बच्चों को पूरे स्कूल की साफ-सफाई करना पड़ती है क्योंकि स्कूल में कोई भी सफाई कर्मचारी नहीं है। मिड डे मील कभी बनता तो कभी नहीं। वहां की प्रधानाध्यापक रंजीत कुमार सिंह बताते हैं, ”वैसे तो बच्चों को रोज मिड डे मील दिया जाता है लेकिन कभी-कभी गैस खत्म होने या रसोइए के न आने पर दिक्कत होती है लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता है। रही बात स्कूल की सफाई की तो सफाई कर्मचारी नहीं है अभी हमने खुद एक आदमी को रखा है उसे अपने पास से पैसा देते हैं।”

प्राथमिक विद्यालय पचपेड़वा में पढऩे वाला प्रभात वर्मा (12 वर्ष) कक्षा पांच में पढ़ता है वो बताता हैं, “स्कूल में या तो दलिया बनती है या फिर वो भी नहीं। हम लोग तो घर से खाना खाकर आते हैं मिड डे मील नहीं खाने जाते क्योंकि वो खाने में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।”

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के तहत मध्याह्न भोजन नियमावली को अधिसूचित करते हुए नई व्यवस्था लागू की है कि यदि अनाज, खाना पकाने की धनराशि, ईंधन उपलब्ध न होने या रसोईया के न होने पर स्कूल में मिड डे मील नहीं बनता है तो राज्य सरकार हर बच्चे को खाद्य सुरक्षा भत्ता उपलब्ध कराएगी। भत्ता की गणना बालक या बालिका की पात्रता के अनुसार अनाज की मात्रा और खाना पकाने की लागत के आधार पर की जाएगी। लगातार तीन दिन या महीने में पांच दिन मिड डे मील न दिए जाने पर संबंधित एजेंसी या स्कूल पर कार्रवाई की जाएगी।

सरकारी स्कूल में सरकार जितनी सुविधाएं दे रही है वो पूरी बच्चों तक पहुंच भी नहीं पा रही। इसका एक उदाहरण जेहटा गाँव हैं जहां के ज्यादातर घरों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढऩे जाते हैं लेकिन किसी को अभी तक वजीफा नहीं मिला है, जबकि सबके खाते बैंक में खुले हैं। अपने बच्चे की पासबुक दिखाते हुए मोहम्मद ज़ाहिद (46) बताते हैं, ”मेरा बेटा शोएब (9) कक्षा तीन में पढ़ता है आए दिन स्कूल में फार्म भरवा जाता है, फोटो मंगाई जाती है लेकिन आज तक वजीफा नहीं मिला। ये समस्या पूरे गाँव की है सभी के पास पासबुक है जिस पर केवल 100 रुपए जब उन्होंने खाता खुलवाया था वो चढ़ा है उसके बाद से कोई पैसा नहीं आया है।”

विद्यालय की प्रधानाध्यापिका मधुरिमा वर्मा बताती हैं, ”पैसा आया ही नहीं तो कहां से मिलेगा, ये तो सरकार का काम है। मिड डे मील के बारे में पूछने पर वो बताती हैं, हमारे यहां अक्षयपात्र के तहत भोजन वितरण होता है उसमें क्या आता है कितना मिलता है उससे हम लोग को कोई मतलब नहीं वो सीधे बच्चों को दे जाते हैं।”

लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी प्रवीण मणि त्रिपाठी से इस विषय पर बात करने पर उन्होंने बताया, ”ये बहुत ही गलत चीज़ है अगर ऐसा कहीं होते दिखा तो स्कूल के खिलाफ कार्रवाई की जायेगी। स्कूलों में साफ-सफाई के लिए सरकार अलग से सफाई कर्मचारी नियुक्त करती है।”

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