निशा जब गाँव से शहर पढ़ने के लिए हॉस्टल आई तब बाकी सामान, बड़ों का आशीर्वाद व गोरेपन की क्रीम की एक ट्यूब ले कर आई। उसके दिमाग में यह बैठा हुआ था कि चाहे वो बीएससी या एमएससी कर ले, उसका उद्धार तब ही संभव है, जब उसका रंग साफ़ हो जाए। बचपन से ही उसे सांवले रंग के कारण उपेक्षा का शिकार बनना पड़ा। घर में दादी, चाची आदि उसे ‘कालो’ कहकर बुलाती थी। शादी की बात चलने पर पिता चिंतित हो जाते थे।
आज भी हमारे देश में लाखों लड़कियां रंगभेद के कारण हीन भावना से जूझ रही हैं। शादी के बाजार में रिजेक्ट हो रही इन लड़कियों को गोरा करने की एक क्रीम की ट्यूब में ही निदान दिखाई देता है। अखबार के शादी के विज्ञापन में लोग साफ़-साफ़ गोरी लड़की की डिमांड करते हैं।
क्या है यह पागलपन गोरे रंग के प्रति हमारी त्वचा का रंग हमारी जेनेटिक्स पर निर्भर है यानी वंशानुगत है। इसे हम बदल नहीं सकते। फिर यह जूनून कैसा? क्या यह हमारी गुलाम मानसिकता है जो अभी भी गोरे रंग को सर्वश्रेष्ठ मानती है। जबकि हमारे सभी देवी देवता सांवले रंग के हैं। क्यों लड़कियां आज भी महंगे से महंगा इलाज करा के गोरी दिखना चाहती हैं, यहां ये बताना आवश्यक है कि किसी भी प्रोफेशनल कोर्स में गोरेपन के अधिक नंबर नहीं होते। डॉक्टरी या आईएएस कहीं भी आपके त्वचा के रंग का कोई महत्व नही होता।
हमारे देश की इन बच्चियों की हीनभावना पर विश्व में बिलियन डॉलर का बाजार चल रहा है। लड़कियां इस जाल में फंस जाती है। बच्चियां ईश्वर की बनाईं बेजोड़ नियामत हैं। आवश्यक है कि वो पढ़े-लिखे और योग्य बने न कि गोरेपन की क्रीम की डिब्बी में अपना भविष्य तलाशें।