दो सौ रुपए बढ़ सकता आशा बहुओं का मानदेय

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लखनऊ। गाँवों में महिलाओं की स्वास्थ्य सुरक्षा की रीढ़ कहे जाने वाली आशा बहुओं के मानदेय में दो सौ रुपए की बढ़ोत्तरी हो सकती है। जननी सुरक्षा योजना को सफल बनाने के लिए काम कर रहीं इन कार्यकर्तियों का मानदेय बढ़ाने को लेकर प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार को पत्र भेज दिया है।

भारत सरकार ने साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के तहत ग्रामीण भारत स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने के लिए आशा बहू नियुक्त करने की शुरुआत की थी। साल 2012 तक इसके पूर्ण क्रियान्वयन का लक्ष्य रखा था। साल 2011 तक भारत में कुल आशा कार्यकर्तियों की  संख्या 8,46,309 थीं। केवल उत्तर प्रदेश में ही कुल 1,36,094 आशा कार्यकर्ती हैं, जो भारत में सबसे ज्यादा हैं। भारत सरकार ने प्रति 1000 आबादी पर एक आशा कार्यकर्ती रखने का लक्ष्य रखा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 1,139 लोगों पर एक आशा कार्यकर्ती है।

राजधानी में उत्तरौधी चिनहट में शिखा सिंह आशा बहू के पद पर काम करती हैं। 

जब उनसे पूछा गया कि क्या मानदेय में दो सौ रुपए की बढ़ोत्तरी से आपको कुछ फायदा होगा तो उन्होंने बताया, “इस महीने कोई डिलीवरी नहीं हुई है तो कोई भी पैसा नहीं मिला है। विभाग कहता है कि एक हजार पर एक आशा बहु होनी चाहिए लेकिन मेरे पास दो हजार 740 लोगों की जिम्मेदारी है।” वो आगे बताती है, “छह सौ रुपए हमें डिलीवरी के, डेढ़ सौ रुपए टीकाकरण, सौ रुपए एक बच्चे के पैदा होने पर, दो सौ रुपए महिला नसबंदी कराने और तीन सौ रुपए पुरुष नसबंदी कराने पर मिलते हैं। ऐसे में परिवार पालना मुश्किल है अगर पैसे बढ़ जाते हैं तो कुछ तो राहत मिलेगी।”

यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में प्रत्येक साल 20 लाख बच्चे अस्पतालों की जगह घर में पैदा होती है। इसलिए प्रसव अस्पताल में हो और बच्चों की मृत्यु दर को कम किया जा सके इसलिए जननी सुरक्षा योजना को भी शुरू किया गया है और इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी आशा बहुओं पर है। सिफ्सा के अधिशासी निदेशक आलोक कुमार बताते हैं, “भारत सरकार को पत्र भेजा गया है कि आशा बहु का मानेदय बढ़ाने की संभावना है। केंद्र सरकार को इस संदर्भ में प्रस्ताव प्रेषित किया गया है।”

प्रदेश में 14 लाख से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं किन्तु सिर्फ 68 स्थानों पर पोषण पुनर्वास केंद्र खुले हैं। यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में प्रतिदिन 950 बच्चे कुपोषण, टीकाकरण, डायरिया और सांस की बीमारी का शिकार होते हैं और उनकी मौत हो जाती है। चिनहट के नारंदी गाँव की निवासी अनीता सिंह (25 वर्ष) आशा बहु हैं। वो बताती हैं, “हम लोग इतनी मेहनत करते हैं अगर कुछ पैसा बढ़ जाए तो मेहनत सफल हो जाएगी क्योंकि कभी-कभी तीन -चार महीने तक कोई केस नहीं मिलता तो एक भी पैसा नहीं मिलता है। अधिकतर लोग प्राइवेट अस्पतालों को ज्यादा वरीयता देते है।”

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