स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क
लखनऊ। जीएसटी लागू होने के बाद महिलाओं से जुड़े अहम मुद्दे को लेकर एक नई बहस शुरू हो गई है कि उनके लिए सबसे ज़रूरी चीज़ सेनेटरी पैड पर 12 प्रतिशत का जीएसटी लगाया गया है। इस बारेेे में एनजीओ ‘गूंज’ के फाउंडर और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अंशु गुप्ता ने गाँव कनेक्शन से बातचीत में बताया…
महिलाओं और बच्चों के लिए काम करने वाले एनजीओ ‘गूंज’ के फाउंडर अंशु गुप्ता कहते हैं, “सेनेटरी पैड पर टैक्स लगाना तो गलत है। जीएसटी लगने से सैनिटरी पैड को खरीदने में महिलाओं को दिक्कत होगी। गाँवों में अभी भी लोग कपड़े या अलग-अलग सामान इस्तेमाल करते हैं। यह एक मेडिकल ज़रूरत है। अगर सेनेटरी पैड का महिलाएं सही से इस्तेमाल करने लगीं तो कई तरह की बीमारियों से बच सकती हैं।
”गूंज संस्था देश के 22 राज्यों में कई मुद्दों पर काम करती है। अंशु बताते हैं,“हम ग्रामीणों को काम के बदले कपड़े, उनके बच्चों के लिए खिलौने और उनकी ज़रूरत की चीज़ें उपलब्ध कराते हैं। साथ ही हम ग्रामीणों के स्वास्थ्य का भी ख्याल रखते हैँ,”।
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ग्रामीण महिलाओं को सेनेटरी पैड उपलब्ध कराने को लेकर ‘गूंज’ काफी बड़े स्तर पर काम कर रहा है। गूंज के संस्थापक अंशु गुप्ता को ग्रामीण इलाकों और गरीबों की सेवा के लिए वर्ष 2015 में एशिया का नोबेल कहे जाने वाला रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इस तरह हुई गूंज की शुरुआत
गूंज की शुरुआत कैसे हुई इस बारे में अंशु बताते हैं, “पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद स्टोरी को लेकर मैं एक बार पुरानी दिल्ली गया था। वहां मेरी मुलाकात हबीब भाई और उनकी पत्नी अमीना जी से हुई। हबीब रिक्शा चलाते थे और उनके रिक्शे पर ‘लवारिस लाश उठाने वाला’ लिखा था। मैंने उनसे बातचीत की तो पता चला कि वे लावारिस लाश को थाने तक पहुंचाते है। हामिद बताने लगे कि अभी तो गर्मी है, इन दिनों कम लोग मरते हैं। ठंडी के दिनों में तो 24 घंटे में 10 से 12 लोग मर जाते हैं।”
उस बात ने कई दिनों तक किया परेशान
अंशु बताते हैं, “एक दिन हामिद की छोटी लड़की बोली, ‘मैं ठंड के दिनों में लाश को गले लगाकर सोती हूं। लाश ना करवट लेती है और उससे गर्मी भी होती है। यह बात मुझे कई दिनों तक परेशान करती रही। उस दिन मुझे यह अहसास हुआ कि लोग ठंड से नहीं कपड़ों की कमी से मरते हैं। उस लड़की की कही बात याद रही फिर 1998-99 में गूंज की शुरुआत हुई।”
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काम के बदले दिए कपड़े
अंशु बताते हैं, “हिंदुस्तान में कपड़ा या पुराना समान किसी को दान किया जाता है। लेकिन हमने कपड़ा या कोई भी सामान दान में देने की बजाय उसी क्षेत्र के लोगों के उनके अपने ही काम के लिए देना शुरू किया। जैसे किसी गाँव में तालाब की ज़रूरत है तो गाँव के लोगों ने मिलकर तालाब खोदा और हमने इसके बदले उन्हें कपड़े या कोई और सामान दे दिया।”
गाँव में भिखारी नहीं होते
अंशु बताते हैं, “हम गाँव के लोगों के आत्मसम्मान का ख्याल रखते हैं। गाँव में भिखारी नहीं होते, भिखारी शहर का मुद्दा है। गाँव के लोग आसानी से हमारे साथ काम करने को तैयार होते गए। अभी हम कई इलाकों में पानी पर काम कर रहे हैं। देश के आधे गाँवों में पानी नहीं हैं और आधे में पानी ही पानी है। दरअसल हमारे यहां पानी की समस्या नहीं है बल्कि मैनेजमेंट की समस्या है।”
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