जिन सरकारी और निजी अस्पतालों में ईलाज के लिए जाते हैं वहां लापरवाही और उदासीनता के चलते लोगों की सेहत से खिलवाड़ होता है। WHO की रिपोर्ट में ये चौंकाने वाले आंकड़े सामने आएं हैं। हालांकि अधिकारी अलग कहानी कह रहे हैं… पढ़िए क्योंकि आपकी सेहत इससे जुड़ी है..
स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क
मेरठ/लखनऊ। सरकारी और निजी अस्पतालों में दवाओं और इंजेक्शन का रखरखाव का ध्यान न रखने की वजह से मरीजों को असुरक्षित इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की सर्वे रिपोर्ट में यह खौफनाक सच सामने आया है। रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और एनसीआर के सरकारी प्रतिरक्षण केंद्रों पर 79 फीसदी इंजेक्शन असुरक्षित पाए गए हैं।
वहीं सरकारी अस्पतालों में 68 प्रतिशत इंजेक्शन असुरक्षित मिले हैं, जो लोगों को ठीक करने की बजाए और बीमार कर सकते हैं। सिर्फ मेरठ के सरकारी अस्पतालों में 53 और निजी अस्पतालों में 32 फीसदी इंजेक्शन असुरक्षित पाए गए हैं।
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मेरठ के मेडिकल कॉलेज के डॉ. अनिरुद्ध बताते हैं, “इंजेक्शन असुरक्षित होने का मुख्य कारण लापरवाही है, इंजेक्शनों को सुरक्षित रखने के लिए तय मानक होते हैं, उन्हें यदि उन मानकों के हिसाब से रखा जाए तो इंजेक्शन असुरक्षिरत नहीं होते है।” रिपोर्ट में सामने आया है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों को लगाए जाने वाले 68 फीसदी इंजेक्टेबल दवाएं असुरक्षित हैं, वहीं निजी अस्पतालों में यह आंकड़ा 59 फीसदी है।
यूपी के झोलाछाप डॉक्टर : बीमारी कोई भी हो सबसे पहले चढ़ाते हैं ग्लूकोज
वहीं निजी अस्पतालों और नर्सिंग होम में लगाए जाने वाले 59 प्रतिशत इंजेक्टेबल दवाएं असुरक्षित मिली हैं। जाहिर है इतनी तादाद में दवाओं का असुरक्षित होना आम आदमी की सेहत के साथ खिलवाड़ है। शहर के अस्पतालों में जहां इन इंजेक्शनों के असुरक्षित होने के पीछे लापरवाही प्रमुख कारण नजर आई तो ग्रामीण इलाकों में बिजली की आवाजाही भी। प्रदेश कई इलाकों में लैंप की रोशनी में प्रसव होते हैं, ऐसे में न्यूनतम तापमान पर सुरक्षित रखने की अऩिवार्य शर्त इस अस्पतालों में कैसे पूरी होती होगी।
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रिपोर्ट में दवाइयों और इंजेक्शनों के रखरखाव पर बड़े स्तर पर कमियां बताई गई हैं। इनमें इंजेक्शनों को सुरक्षित रखने के लिए उचित तापमान में न रखा जाना, इंजेक्शनों को लंबे समय तक दवाइयों के नीचे दबाकर रखे रहना, दवा कंपनियों की ओर से सील लगाने में लापरवाही बरतने जैसी खामियां सामने आई हैं।
गाँव कनेक्शऩ ने पिछले दिनों यूपी के 20 जिलों में ग्रामीण स्थल पर स्वास्थ्य सेवाओं का जायजा लिया था, जिसमें कई जगह दिक्कतें तो थी हीं झोलाछाप डॉक्टर बड़ी समस्या बने थे। मरीजों का कहना था ये अप्रशिक्षित डॉक्टर बीमारी कोई भी हो इंजेक्शन लगाते हैं और ग्लूकोज चढ़ाते हैं। कन्नौज से 22 किलोमीटर दूर बलनपुर गाँव निवासी मोहम्मद हनीफ (45 वर्ष) की बेटी का एक पैर गलत इंजेक्शन के चलते खराब हो गया है। वो बताते हैं, “बिटिया सात माह की थी, उसे बुखार आया था तो डॉक्टर ने इंजेक्शन लगा दिया। तब से उसका एक पैर खराब हो गया। बहुत इलाज कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।”
उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग और अधिकारियों ने इस रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए नकार दिया है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य महानिदेशक डॉ. पद्माकर सिंह ने बताया, “उत्तर प्रदेश में कहीं भी ऐसा नहीं कि ऐसे इंजेक्शन का प्रयोग किया जा रहा हो, जो असुरक्षित हो। हर अस्पतालों में इंजेक्शन को रखने के लिए पुख्ता इंतजाम हैं। किसी भी अस्पताल में इंजेक्शन रखने में लापरवाही नहीं बरती जाती है।”
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जौनपुर के शाहगंज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीक्षक डॉ. डीएस यादव बताते हैं, “जो दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। उसका रजिस्टर मेंटेन किया जाता है। यह पता होता है कि दवा कब एक्सपायर होने वाली है। दवाओं का समय—समय पर वेरिफिकेशन भी किया जाता है। वहीं इंजेक्शन के लिए फ्रीजर की व्यवस्था है। कूलिंग के लिए जनरेटर की व्यवस्था की गई है, ताकि कूलिंग बनी रहे।”
अगर सालाना आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया में लगाए जाने वाले 16 अरब इंजेक्शनों में से भारत में 26.30 फीसदी इंजेक्शन उपयोग किए जाते हैं। डब्ल्यूएचओ की साउथ ईस्ट एशिया जनरल ऑफ पब्लिक हेल्थ में छपे एक शोध के अनुसार, इंडिया में प्रति व्यक्ति औसतन एक साल में दो इंजेक्शन दिए जाते हैं। इनमें 62 फीसदी असुरक्षित हैं। इस शोध में सरकारी टीकाकरणों और सरकारी अस्पतालों के अलावा नर्सिंग होम्स और प्राइवेट हॉस्पिटल्स को भी शामिल किया गया है।
मेरठ के सीएमओ राजकुमार चौधरी बताते हैं, “सरकारी अस्पतालों में समय-समय पर चेकिंग होती रहती है, साथ ही हम भी दवाई और इंजेक्शन की पूरी जांच करते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी दवा कंपनियों की लापरवाही के चक्कर में कई बार ऐसे इंजेक्शन और दवाई भेज दी जाती हैं, जो मानकों पर खरी नहीं उतरती हैं।”
डिस्पोजल भी असुरक्षित
इस सर्वे में ये भी सामने आया है कि डिस्पोजल माने जाने वाले प्लास्टिक के इंजेक्शन भी सेफ नहीं है। नए पैक्ड इंजेक्शनों में 18 फीसदी डिस्पोजल खराब मिले हैं। वहीं कांच के 70.07 फीसदी इंजेक्शन संक्रमित हैं। डॉक्टर्स के अनुसार, इंजेक्शन संक्रमित होने का सबसे बड़ा कारण उनकी सही रखरखाव न होना बताया गया है।
ये हैं मुख्य वजह
- संबंधित इंजेक्शन के हिसाब से उचित तापमान न होना
- इंजेक्शन के रख-रखाव में लापरवाही बरतना
- दवा कंपनियों द्वारा सील लगाने में लापरवाही बरतना
- इंजेक्शनों को बहुत ज्यादा दिनों तक दवाइयों के नीचे दबाकर रखना
मेरठ के सीएमओ राजकुमार चौधरी ने बताया सरकारी अस्पतालों में समय-समय पर दवाई और इंजेक्शन की जांच होती है, इसके बावजूद भी दवा कंपनियों की लापरवाही से कई बार ऐसे इंजेक्शन और दवाई भेजे जाते हैं, जो मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं।
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