सामा की रोटी और चटनी सेहत के लिए फायदेमंद

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पूरे देश में चर्चा है कि बुंदेलखंड वाले घास की चटनी और रोटियां खाने पर मजबूर है। लेकिन सामा के बीज और ताज़ी हरी पत्तियां सैकड़ों वर्षों से गाँव के लोगों की पसंदगी वाले व्यंजन बनाने में इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। सामा या समई के नाम से प्रचलित घास कुल (पोएसी) के इस पौधे का वानस्पतिक नाम एकिनोक्लोआ कोलोना है जो कि गर्म एशियाई देशों में बहुतायत से पाया जाता है, अंग्रेजी में इसे सावा मिलट या जंगल राइस भी कहते हैं। भारत के अनेक प्रांतों में इसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। गुजरात में इसे सामो या मोरिया कहते हैं तो महाराष्ट्र में वारिया या वारीचा तंडुल तो मध्यप्रदेश में इसे       सामा का चावल या मोरथन कहा जाता है।

मैं एक महीने पहले ही पातालकोट गया था, पातालकोट (मध्य प्रदेश) में धरातल से 3,000 फ़ीट गहरी घाटी है, जो आज भी आधुनिक समाज से अलग-थलग है। कुल मिलाकर दो रातें इस घाटी में मैंने बिताईं और सामा की पत्तियों की चटनी, सामा के बीजों की खिचड़ी, कुटकी का भात और मक्के की रोटी का भरपूर आनंद लिया। अब चाहे तो इसे कह दिया जाए कि पातालकोट की दुर्दशा ऐसी है कि लोग घास-फूस खाने को मजबूर हैं, लेकिन ऐसा कुछ तो है ही नहीं।

पातालकोट और बुंदेलखंड की बात एक किनारे करें। स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट (अमेरिका) के वैज्ञानिकों जुलिस्सा रोजस सन्डोवल और पेद्रो अस्वेदो ने तो बाकायदा इस पौधे के बारे में एक लंबी चेकलिस्ट और प्रोफाइल तैयार सारा लेखा-जोखा कैबी (सेंटर फॉर एग्रीकल्चर एंड बायोसाइंस इंटरनेशनल, उत्तर अमेरिका) के साथ साझा किया है। सवाल यहां सामा से जुड़ी जानकारियों को सुलझे तरीकों से समझने का है। सामा मजबूरी में लिया जाने वाला आहार कतई नहीं है, बल्कि इसे खान-पान की परंपरा से जोड़कर देखा जाना जरूरी है। जापान, जावा, सुमात्रा और तो और आस्ट्रेलिया के सुदूर इलाकों तक सामा की पत्तियों को बतौर आहार अपनाया जाता रहा है। सामा हमेशा से भारतीय ग्रामीण इलाकों में भी आहार का अभिन्न हिस्सा रहा है। उत्तर और मध्य भारत के अनेक इलाकों में नवरात्र के दौरान इसके बीजों को चावल का बेहतर पूरक माना जाता है।

ऑस्टिन जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन एंड फूड साइंसेस में वर्ष 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार सामा के बीजों को ग्लूटेन फ्री अनाज के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। सामा के बीज ना सिर्फ़ ग्लूटेन सेंसिटिव रोगियों के लिए बल्कि डायबिटीस से त्रस्त लोगों के लिए भी उत्तम है, क्योंकि इसका ग्लायसेमिक इंडेक्स काफी कम होता है। जर्नल ऑफ  फूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी में सन 2014 में प्रकाशित एक क्लिनिकल रिपोर्ट के जरिए प्रमाणित भी किया गया कि सामा के सेवन के बाद रोगियों में ना सिर्फ़ डायबिटीस बल्कि एचडीएल और ट्रायग्लिसेराइड्स के स्तर में भी सुधार आया। प्लांट फ़ॉर ए फ्यूचर डेटाबेस और जेम्स ड्यूक की किताब (हैंडबुक ऑफ़ एनर्जी क्रॉप्स, 1983) के अनुसार सामा के कई खास औषधीय गुण भी हैं। इनमें दी गई जानकारियों पर गौर करें तो जानकारी मिलती है कि पारंपरिक तौर से इसका उपयोग टॉनिक की तरह तो होता ही रहा है इसके अलावा कैंसर, पेट से जुड़े अनेक विकारों और बवासीर जैसी समस्याओं में भी इसे उपयोग में लाया जाता है।

मिलेट नेटवर्क ऑफ  इंडिया की वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इसमें प्रोटीन की मात्रा गेहूं के समतुल्य होती है जबकि इसके फाइबर और आयरन की मात्रा की बात की जाए तो गेहूं, चावल, मक्का, बारली जैसे अनाज आंकड़ों में इससे कहीं दूर पिछड़ते दिखाई देते हैं। विज्ञान जगत में ख्याति प्राप्त जर्नल्स वैज्ञानिक पत्र पत्रिकाएं जैसे इथनोफार्मेकोलॉजी, इथनोफार्मेकोग्नोसी, फाइटोटेरापिया, जर्नल ऑफ प्लांट साइंसेज में साल दर साल अनेक शोध पत्रों के प्रकाशन हुए हैं जो सामा के औषधीय गुणों की पैरवी करते दिखेंगे।

जंक फूड कल्चर के दौर में इस तरह के पारंपरिक मोटे अनाजों का इस्तेमाल कर कई कंपनियां बाकायदा प्रोड्क्ट्स लेकर बाज़ार में कूच कर चुकी हैं। मोटे अनाजों के महत्व को समझते हुए हमारे देश में भी कई जगहों पर बाक़ायदा इनके उपयोग को लेकर अभियान चलाए जा रहे हैं। तमिलनाडु के सेलम में कलंजियम फेडेरेशन्स ऑफ सेलम रीजन और धान संस्था के महिला सदस्यों ने मिलकर एक अभियान छेड़कर मोटे अनाजों के इस्तेमाल का आह्वान किए हुए है, अब तक करीब 30000 लोग इस अभियान से जुड़ चुके हैं। 

इस अभियान के तहत लोगों को एक किलो मोटा अनाज देकर शपथ दिलाई जाती है कि वे सामा, कोदू, कुटकी जैसे पारंपरिक मोटे अनाजों को अपने आहार का अहम हिस्सा बनाएंगे। यहां इन महिलाओं ने एक स्टोर खोलकर मोटे अनाजों की बिक्री केंद्र भी स्थापित कर लिया है। एक तरफ  सेलम की ये महिलाएं हैं जो जन-अभियान के साथ सामा जैसे पारंपरिक मोटे अनाजों के गुणों को प्रचारित और प्रसारित करने का भरपूर प्रयास कर रही हैं वहीं दूसरी तरफ पातालकोट और बुंदेलखंड के ग्रामीण वनांचलों में बसे वे लोग भी हैं जो बिना किसी अभियान के इसे अपने भोजन शैली का हिस्सा बनाए हुए हैं। आज या कल से नहीं, सैकड़ों वर्षों से और आप-हम जैसे लोग इन्हें इस आहार को अपनाए देख अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगाए बैठे हैं। जो दिखता है या दिखाया जाता है, कई बार वैसा होता तो नहीं। अब आप भी कूच करें बुंदेलखंड और जरा चखकर तो आएं सामा घास की रोटी और चटनी।

सामा में हैं कई खास औषधीय गुण

सामा के कई खास औषधीय गुण भी हैं। इनमें दी गई जानकारियों पर गौर करें तो जानकारी मिलती है कि पारंपरिक तौर से इसका उपयोग टॉनिक की तरह तो होता ही रहा है इसके अलावा कैंसर, पेट से जुड़े अनेक विकारों और बवासीर जैसी समस्याओं में भी इसे उपयोग में लाया जाता है।

प्रोटीन की मात्रा गेहूं के समतुल्य 

मिलेट नेटवर्क ऑफ इंडिया की वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इसमें प्रोटीन की मात्रा गेहूं के समतुल्य होती है जबकि इसके फाइबर और आयरन की मात्रा की बात की जाए तो गेहूं, चावल, मक्का और बारली जैसे अनाज आंकड़ों में इससे कहीं दूर पिछड़ते दिखाई देते हैं।

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