मच्छर मारने के तरीके, कहीं आदमी तो नहीं मार रहे

मच्छर

मच्छर से कौन परेशान नहीं! और क्या-क्या उपाय नहीं किए मच्छर भगाने के लिए- तेल, अगरबत्ती, टिकिया, डीडीटी का छिड़काव, वेपोराइजर्स लेकिन मच्छर भगाने का कारगर उपाय ढूंढने में हम इतने मसरूफ रहे कि इन उपायों का हमारे शरीर और सेहत पर क्या असर पड़ता है, यह पक्ष बहुत हद तक अनदेखा रह गया। इसी पक्ष की पड़ताल करता यह लेख आखिर में मच्छर भगाने के सुरक्षित, सेहतमन्द विकल्पों की भी जानकारी देता है।

मच्छर

गर्मियों और सर्दियों के कुछ समय को छोड़ दिया जाए तो हमारे गाँव व शहरों में लगभग साल भर मच्छरों की भिनभिनाहट सुनी जा सकती है। मच्छर मलेरिया, हाथी पांव व कई प्रकार के वायरल रोग जैसे जापानी इनसेफेलाइटिस, डेंगू, दिमागी बुखार, पीत ज्वर (अफ्रीका में) आदि रोग फैलाते हैं।

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मच्छर भगाने वाली ऐसी अगरबत्तियां जिनमें डीडीटी और अन्य कार्बन-फास्फोरस यौगिकों का समावेश रहता है, मच्छर भगाने में अप्रभावी होती हैं। मच्छर भगाने की अन्य युक्तियां भी टिकियाओं की तरह ही अनुपयोगी सिद्ध हुई हैं। फिलहाल बाजार में कई मच्छर भगाऊ उपाय जैसे टिकिया, अगरबत्ती, लोशन, वेपोराइजर्स (रासायनिक भाप छोड़ने वाले यंत्र) आदि उपलब्ध हैं। इन सभी मच्छर भगाऊ उपायों में एलथ्रिन समूह के यौगिकों, जड़ी बूटियों, तेल या डाइ इथाइल टॉल्यूमाइड (डीईईटी) का उपयोग होता है। मच्छर भगाने के ये सभी उपाय 2 से 4 घंटे तक ही प्रभावी रहते हैं।

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भारतीय परिप्रेक्ष्य

भारत में मच्छर भगाऊ उपायों का कारोबार 500 से 600 करोड़ रुपए सालाना का है। यह कारोबार प्रतिवर्ष सात से 10 प्रतिशत वृद्धि कर रहा है। मच्छर भगाऊ उत्पादों की लोकप्रियता बढ़ने का कारण हमारे पर्यावरण का निरन्तर क्षरण व इन उत्पादों को खरीदने की लोगों की क्षमता में लगातार वृद्धि होना है।
भारत में मच्छर भगाऊ उत्पादों का विपणन काफी संगठित है इसीलिए पूरे देश में कई प्रकार के मच्छर भगाऊ ब्रा‍ंड उपलब्ध हैं। भारत में मच्छरमार औषधि को बाजार में उतारने से पहले इसका पंजीयन केन्द्रीय इंसेक्टिसाइड्स बोर्ड में कराना होता है। इंसेक्टिसाइड्स बोर्ड भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त संस्थान है। मच्छरनाशकों के पंजीयन के लिए यह आवश्यक होता है कि वे मानव स्वास्थ्य, पशुओं व अलक्षित प्रजातियों के लिए सुरक्षित रहें। इंसेक्टिसाइड्स बोर्ड मच्छरनाशकों को बाजार में उतारने की इजाजत तभी देता है जब उत्पाद बोर्ड के सुरक्षित मानकों के अनुरूप हो। एक बार अनुमोदन मिल जाने के बाद इसकी मॉनीटरिंग, स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों के आकलन आदि का कोई प्रावधान नहीं है।

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मच्छर भगाने के उपाय और स्वास्थ्य

अनुसन्धानकर्ता अब मच्छर भगाऊ उपायों के हानिकारक प्रभावों के आंकड़े उपलब्ध करने में लगे हैं। मच्छरनाशकों के रसायन पायरिथ्रॉएड्स का प्रभाव मुख्यतः शरीर के ‘सोडियम चैनल’ में होता है। प्रभाव कुछ ऐसा होता है कि यह चैनल काफी समय तक खुली रहती है जिससे सोडियम आयन का बहाव बढ़ जाता है। यह तंत्रिका तंत्र में अतिउत्तेजना का कारण बनता है। एलथ्रिन जैसे संश्लेषित पायरिथ्रॉएड्स सोडियम चैनल के खुलने के समय को प्रभावित करते हैं, जिससे तंत्रिका तंत्र कभी कम तो कभी ज्यादा उत्तेजित हो जाता है।

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चेंग व उनके साथियों ने चूहों को डी एलथ्रिन युक्त अगरबत्तियों के सम्पर्क में रखा और उनके फेफड़ों के रोएं में कमी व रक्त प्रवाह में बढ़ोतरी देखी। लियु व सन ने बताया कि मच्छर भगाऊ अगरबत्ती में खुशबूदार व वसीय हाइड्रोकार्बन होते हैं जो टिकिया में मौजूद लकड़ी के बुरादे, रंजक आदि के जलने से निर्मित होते हैं। चूहों को 60 दिन तक अगरबत्ती के धुएं में रखने पर उनकी श्वास नलिका की रोमयुक्त कोशिकाएं कमजोर होने लगीं, असामान्य कोशिकाएं बनने लगीं और फेफड़ों की रक्षात्मक कोशिकाओं में संरचनागत परिवर्तन होने लगे।

लियु ने दक्षिण अमेरिका व एशिया की मच्छर भगाऊ अगरबत्तियों के विश्लेषण के बाद बताया कि इनके धुएं से एक माइक्रॉन से भी कम आकार के कण काफी मात्रा में भारी धातुओं, एलथ्रिन तथा विविध प्रकार के वाष्पित पदार्थों जैसे फीनोल तथा ओ-क्रीसोल में लिपटे होते हैं। यही नहीं टिकिया में उपयोग की जाने वाली एलथ्रिन दिमाग में रक्षक पर्दे (ब्लड-ब्रेन बेरियर) की अभेदन क्षमता को भी कमजोर करती है। इससे दिमाग का रक्षकपर्दा धीरे-धीरे परिपक्व होता है और जैव रासायनिक बदलाव स्वास्थ्य पर भारी साबित होते हैं, खासतौर पर कम उम्र के बच्चों में। कुछ शोधकर्ता कोशिकाओं की भीतरी दीवार पर एलथ्रिन के इकट्ठे होते जाने की भी बात करते हैं।

एरिक्सन व एहल्बोम ने जब नवजात चूहों को डीडीटी से उपचारित किया तो उनके दिमागी कॉर्टेक्स में एक प्रकार के तंत्रिका तंत्र रसायनग्राही मस्क्रीनिक एसिटाइलकोलीन रिसेप्टर (MAChRs) के घनत्व में परिवर्तन देखा गया। बाद में वयस्क हुए इन चूहों को बायोएलथ्रिन दी गई जिसके न पलटे जाने वाले MAChR परिवर्तन हुए व उनके व्यवहार में भी बदलाव हुआ। जॉनसन ने उन वयस्क चूहों में मतिभ्रंश पाया जिन्हें बायोएलथ्रिन से उपचारित किया गया था। हम भारतीयों के शरीर में डीडीटी की पहले से ही अधिक मात्रा के परिप्रेक्ष्य में ये खोजें और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं।

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डायल ने शरीर के प्रतिरोध तंत्र पर एस बायोएलथ्रिन के विषैले प्रभाव को दर्शाते हुए बताया कि यह शरीर की रक्षा करने वाली कोशिकाओं लिम्फोसाइट्स के उत्पादन को रोकता है। उक्त क्रिया एलथ्रिन की मात्रा पर निर्भर करती है। डी ट्रांसएलथ्रिन हॉर्मोन स्राव द्वारा प्रजनन क्षमता को क्षति पहुँचा सकता है तथा शरीर का विकास अवरुद्ध कर कैंसर का कारण बन सकता है।

सर्वेक्षण के नतीजे

मच्छरभगाऊ उपायों में संश्लेषित पायरिथ्रॉएड्स का टाइप I प्रयुक्त होता है। ये मच्छरनाशक ऊष्मा के प्रति स्थिर रहते हैं और टिकियाओं, अगरबत्तियों व वेपोराइजर्स में इनका उपयोग होता है। टिकिया या द्रव को गर्म करने या जलाने पर ये यौगिक 400 डिग्री. से. तक बिना विघटित हुए वाष्पित हो जाते हैं और मच्छरों को भगाने में सफल रहते हैं।
मानव स्वास्थ्य पर इन मच्छरनाशकों के बुरे प्रभाव जानने के लिए हमने नौ राज्यों के ग्रामीण व शहरी इलाकों में मच्छरनाशकों के उपयोगकर्ताओं और चिकित्सकों के बीच एक सर्वेक्षण किया। परिणामों के अनुसार लगभग 11.8 प्रतिशत उपयोगकर्ताओं ने (इसमें सभी आयु वर्ग के स्त्री व पुरुष दोनों आते हैं) अत्यधिक विषाक्तता की शिकायत की। यह नशीलापन मच्छरनाशक के उपयोग के तुरन्त बाद से लेकर कुछ घण्टों के उपयोग के दौरान तक आता है।

सबसे आम तकलीफ (4.2 प्रतिशत) थी सांस लेने में तकलीफ; अक्सर यह सिरदर्द, आंखों में चिरमिराहट या दोनों के साथ होती है। आंखों में जलन की शिकायत तकरीबन 2.8 प्रतिशत लोगों की थी। अधिकांश मामलों में इस तकलीफ के साथ उन्हें चमड़ी पर जलन, श्वास नली में तकलीफ व सिरदर्द भी महसूस हुआ। 1.67 प्रतिशत लोगों को बुखार और छींक आने के साथ-साथ खांसी, सर्दी तथा नाक बहने की परेशानी भी थी। दो मामलों में मच्छरनाशकों के उपयोग से लोगों को दमा हो गया जबकि पहले उन्हें यह बीमारी नहीं थी। मच्छरनाशक का उपयोग छोड़ देने के बाद भी दमा बना रहा।

डीईईटी युक्त क्रीम का उपयोग करने वाले 17.4 लोगों में से 20 (11.4 प्रतिशत) को चमड़ी पर रिएक्शन हुआ। इन लोगों को चमड़ी पर दाद, काले धब्बे, चमड़ी का काला पड़ जाना या तेलीय हो जाना तथा खुजली की शिकायत थी। तीन मामलों में घुटन पैदा करने वाली गन्ध तथा आँखों में जलन की तकलीफ की बात सामने आई।

डॉक्टरों ने सर्वेक्षण की रपट की पुष्टि की। सर्वेक्षण में शामिल 286 डॉक्टर उन्हीं इलाकों के थे जहां के उपयोगकर्ता थे। 165 डॉक्टरों (57.7 प्रतिशत) ने बताया कि मच्छरनाशकों के उपयोग के बाद चक्कर से आते हैं। डॉक्टरों ने बताया कि जिन मरीजों पर मच्छरनाशकों की अधिक प्रतिक्रिया हुई है उन्हें दमा या साँस नली में बेचैनी हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि आँख, नाक, कान, गले की तकलीफ वाले लोगों को इलाज की जरूरत है।

कुछ शोधकर्ताओं ने मच्छरभगाऊ उपायों के उपयोग को लेकर चेतावनी दी है। विदेशों में हुए अध्ययन के अनुसार ये मच्छरनाशक मुख्यतः पायरिथ्रूमस नामक रसायन का उपयोग करते हैं जिससे नाक बहती है, सांसों में घरघराहट होती है और धमनियाँ तथा लीवर भी नष्ट हो सकते हैं। साथ ही दमा भी हो सकता है। भारत के नाक, कान व गला विशेषज्ञों को भी अपने मरीजों में इसी प्रकार के लक्षण दिखने लगे हैं। इंडस्ट्रियल टॉक्सिकोलॉजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट लखनऊ ने भी मच्छरनाशकों के उपयोग से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गम्भीर प्रभावों को दर्ज किया है।

वैकल्पिक उपाय

रासायनिक मच्छरनाशकों के कई सारे सुरक्षित विकल्प हैं। इसमें सामुदायिक सहभागिता तथा स्थानीय निकायों की मदद ली जा सकती है। ये उपाय हैं:

मच्छर पनपने के स्रोतों में कमी लाना

जलस्रोतों में इकट्ठे पानी को हर सप्ताह निकालना या सुखाना। घरों के आस-पास के गड्ढों की सफाई तथा ऐसे स्थानों की सफाई जरूरी है जहाँ पानी इकट्ठा होता है। पानी को हमेशा ऐसी टंकियों में रखा जाए जो आसानी से साफ हो सकें और उनमें मच्छर न जा सकें।

मल-जल निकासी की उत्तम व्यवस्था

नालियों में रुके पानी को निकालने के लिये समुचित ढाल दी जाए। जल की निकासी अधिक फैली न हो तथा निकासी गड्ढे गहरे हों। समय-समय पर नालियों में से गाद निकाली जाती रहे। सीवर तथा नालियों को वर्षा पूर्व साफ किया जाए ताकि पानी बिना अवरोध के नालियों में से बह जाए।

छुटपुट तकनीकी काम

भूमिगत व छत पर रखी पानी की टंकियों, कुओं तथा पानी भण्डारण क्षेत्रों को अच्छी तरह से बंद किया जाए और ढक्कन लगाकर इन्हें मच्छर रोधी बना दिया जाए। गटर के गड्ढे ढंके रहें।

जैविक नियंत्रण

सतह की नालियों पर तथा अस्थाई रूप से जमे पानी व कचरे पर बेसिलस थुरिंजिनसिस एच- 14 का छिड़काव पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में किया जाए। लार्वा खाने वाली मछलियों को तालाबों, झीलों, धान के खेतों तथा नालियों में छोड़ा जाए।

व्यक्तिगत नियंत्रण के उपाय

संश्लेषित पायरिथ्रॉएड्स से उपचारित मच्छरदानी का उपयोग किया जाए, घरों में जालीदार दरवाजे, खिड़कियां तथा रोशनदान हों।

नीम के तेल को क्रीम के रूप में उपयोग किया जा सकता है

5 हिस्से नीम तेल व 95 भाग नारियल या सरसों के तेल; नीम के तेल से उपचारित टिकिया या नीम के तेल को केरोसिन के साथ जलाकर भी उपयोग किया जा सकता है। नीम के तेल का उपयोग रासायनिक मच्छरनाशकों का सस्ता व सुरक्षित विकल्प है।

मच्छर भगाने का जैविक तरीका

वैज्ञानिकों ने बगीचे की झाड़ियों में मच्छर भगाने वाले एक ऐसे यौगिक की खोज की है जो विकासशील देशों में मच्छरों के विरुद्ध लड़ाई में कारगर हथियार बन सकता है। ब्रिटेन एवं नाइजीरिया के इन वैज्ञानिकों ने समर साइरस के बीजों के तेल से मच्छरों को आकर्षित करने वाले यौगिक का निर्माण किया है।
विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट में कहा गया है कि ब्रिटेन और नाइजीरिया के अनुसन्धानकर्ताओं ने इस पौधे के बीजों के तेल से फेरोमोन (एक सुगन्धित पदार्थ) का निर्माण किया है। यह मादा मच्छरों को आबादी से दूर जाने हेतु प्रोत्साहित करता है। इस रिपोर्ट के अनुसार न्यूयॉर्क के स्वास्थ्यकर्मी वेस्ट नाइल नामक विषाणुओं के वाहक मच्छरों के विरुद्ध इस यौगिक का प्रयोग कर चुके हैं। वेस्ट नाइल विषाणु मनुष्य के तंत्रिका तंत्र पर आक्रमण करते हैं जिससे रोगी की मौत तक हो सकती है। इन शोधकर्ताओं का कहना है कि इस यौगिक से विश्व के गरीब देशों में हाथीपाँव की भी रोकथाम की जा सकती है। ब्रिटेन स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ अरेबल क्रॉप्स रिसर्च के जॉन पकेट व उनके सहयोगियों तथा नाइजीरिया के बाउची स्थित बलेवा विश्वविद्यालय के अनुसन्धानकर्ताओं ने पता लगाया है कि ये पौधे फेरोमोन की तरह का ही एक यौगिक पैदा करते हैं जो फाइलेरियासिस और नाइल विषाणुओं के वाहक मच्छरों की प्रजातियों को आकर्षित करते हैं। यह मादा मच्छरों को किसी खास जगह पर अण्डे देने के लिये प्रोत्साहित करता है। इन फेरोमोन के संश्लेषित रूप की जाँच अफ्रीका, जापान और अमेरिका में की गई है जिसमें यह प्रभावकारी पाया गया लेकिन इसका निर्माण काफी महँगा साबित होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पर अभी अनुसन्धान जारी है।

लेखक, वीपी शर्मा, साभार-इंडिया वार्टर पोर्टल (स्रोत फीचर्स)

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