मानसून के साथ ही बढ़ता है दिमागी बुखार

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कहते हैं स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है लेिकन कुछ रोग ऐसे होते हैं जो आपके शरीर के साथ ही साथ आपके दिमाग को भी प्रभािवत करते हैं एेसा ही एक रोग है इंसेफेलाइटिस जिसको बोल चाल कि भाषा में दिमागी बुखार भी कहते हैं इस रोग को प्राय: दिमाग में सूजन आना भी कहते हैं।

इंसेफेलाइिटस के बारे में डाॅ. आर के पाल बताते हैं “यह बीमारी मानसून बढ़ने के साथ ही साथ बढ़ती है और दूिषत जल का प्रयोग करने से इस बीमारी के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जिनमें विषाणु, जीवाणु, परजीवी, रसायन आदि शामिल हैं। यह बीमारी आत तौर पर बच्चों को बूढ़ों को या कम प्रतिरक्षा वाले इंसानों में ज्यादा जल्दी हो जाती है।”

इंसेफेलाइटिस की पहचान

डॉ. पाल बताते हैं कि मौसम बदलने के साथ आक्रमण करने वाला बुखार वायरल भी हो सकता है और मच्छर जनित भी। प्लेटलेट्स कम होने व कपकपाहट का मतलब हमेशा डेंगू बुखार नहीं होता। इसी श्रेणी के बुखार चिकुनगुनिया (येलो फीवर) और दिमागी बुखार को पहचाने में लोग अक्सर गलती कर देते हैं या तो बहुत देर से पहचानते जिससे बहुत देर हो जाती है और रोगी के जान पर बन आती है। इंसेफेलाइटिस (दिमागी बुखार) के लक्षणों में हालांकि अधिक फर्क नहीं होता। बुखार की सही पहचान बिना कराए इलाज कराने का सीधा मतलब है अपनी बीमारी को बढ़ाना। बुखार की सही पहचान करने के लिए सीटी स्कैन, दिमागी की एमआरआई एवं ईसीजी, खून कि जांच करवाना चािहए उसके बाद ही बुखार की सही वजह पता चल सकती है। दिमागी बुखार को पहचाने में लोग अक्सर गलती कर देते है या तो बहुत देर से पहचान पाते है िजससे बहुत देर हो जाती है और रोगी के जान पर बन आती है।

बरसात के मौसम में दिमागी बुखार यानी इंसेफेलाइटिस का कहर शुरू हो जाता है। इंसेफेलाइटिस के कहर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चार दशक में इस बीमारी से बीस हजार से अधिक मौतें हो चुकी हैं। हर साल पांच-छह सौ बच्चे सरकारी रिकॉर्ड में मरते हैं इंसेफेलाइटिस के सबसे अधिक शिकार तीन से 15 साल के बच्चे होते हैं। यह बीमारी जुलाई से दिसम्बर के बीच फैलती है। सितम्बर-अक्टूबर में बीमारी का कहर सबसे ज्यादा होता है। 

आंकड़े बताते हैं कि जितने लोग इंसेफेलाइटिस से ग्रसित होते हैं, उनमें से केवल 10 प्रतिशत में ही दिमागी बुखार के लक्षण जैसे झटके आना, बेहोशी और कोमा जैसी स्थिति दिखाई देती है। इनमें से 50 से 60 प्रतिशत मरीजों की मौत हो जाती है। बचे हुए मरीजों में से लगभग आधे लकवाग्रस्त हो जाते हैं और उनके आंख और कान ठीक से काम नहीं करते हैं। जिंदगीभर दौरे आते रहते हैं। मानसिक अपंगता हो जाती है।

 रिपोर्टर – दरख्शां कदीर सिद्दिकी

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