गरीब किसान और अमीर बकाएदारों में इतना भेदभाव क्यों?

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भारतीय स्टेट बैंक ने उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के कुछ किसानों के 19 ट्रैक्टरों की नीलामी की घोषणा की है, समाचार यह भी इंगित कर रहे हैं कि बड़ी कंपनियों के तकरीबन चार लाख करोड़ ऋण की माफ़ी की जा सकती है, लेकिन क्या आपने इन बकाएदार कम्पनियों या इनके प्रोमोटर्स की सम्पत्ति की सार्वजनिक नीलामी की कोई घोषणा सुनी है?  जवाब होगा, नहीं।

क्यों वो नियम कानून जो छोटे किसानों पर लागू होते हैं, वो इन बड़ी कम्पनियों पर भी लागू नहीं होते? इसका उत्तर आसान है। सदियों से इन अमीर उधारकर्ताओं को महाराजाओं की तरह आदर दिया जाता रहा है जबकि छोटे किसानों और व्यापारियों को क़ानून व्यवस्था की सख्तियां झेलनी पड़ी है। अगर आप एक गरीब किसान हैं तो बैंक ऋण चुकाने में असमर्थता जुर्म बन जाती है और यदि आप अमीर बकाएदार हैं तो यह आपके लिए एक स्वाभाविक अधिकार है। सामान्य मान्यता ये है, कि किसी भी कीमत पर अमीर को नुक़सान नहीं पहुंचना चाहिए।

“रेटिंग इंडिया”, भारत की एक प्रमुख जमा आंकलन एजेंसी ने अपने एक हालिया अंदाजे में बताया कि पिछले पांच वर्षों में यानि 2011 से 2016 के बीच कम्पनियों पर करीब 7.4 लाख करोड़ का ऋण होगा, जिसमें से चार लाख करोड़ के करीब का कर्ज माफ़ कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ वो 19 किसान जिनके ट्रैक्टर 21 मार्च को नीलाम किए जाने वाले हैं  उन्हें कुल मिला के केवल 63 लाख का कर्ज बैंक को चुकाना है। ये असहनीय भेदभाव है।

मैं अमीरों के खिलाफ़ नहीं पर मुझसे यह सहन नहीं होता जब मैं देखता हूं कि किसानों को लगातार परेशान और दण्डित किया जाता है, और थोड़ी बहुत कम्पनियों के मालिकान, जो अधिकतर जानबूझ के लोन नहीं चुकाते उन्हें साफ़ बच निकलने दिया जाता है। वे शानदार समुद्री यात्राओं पर जाते हैं, भव्य उत्सवों का आयोजन करते हैं और अपने बच्चों के विवाह के अवसर पर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। वहीं जब बारी एक किसान की आती है, तो उसका नाम तहसील दफ्तर के बाहर ऐसे लिखा जाता है, मानो वो किसी आतंकवादी संगठन का सदस्य हो। बात जब अमीर कारोबारी की हो, तो सरकार ये कहकर उनकी पहचान खुद छिपाने की कोशिश करती है कि इसे बताने से निवेशकों तक गलत सन्देश जाएगा।

“रेटिंग इंडिया”, भारत की एक प्रमुख जमा आंकलन एजेंसी ने अपने एक हालिया अंदाजे में बताया कि पिछले पांच वर्षों में यानि 2011 से 2016 के बीच कम्पनियों पर करीब 7.4 लाख करोड़ का ऋण होगा, जिसमें से चार लाख करोड़ के करीब का कर्ज माफ़ कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ वो 19 किसान जिनके ट्रैक्टर 21 मार्च को नीलाम किए जाने वाले हैं  उन्हें कुल मिला के केवल 63 लाख का कर्ज बैंक को चुकाना है। ये असहनीय भेदभाव है।

संसद की जन वित्तीय लेखा समिति (पीएसी) के अध्यक्ष श्री पी.वी.थॉमस भी मानते हैं कि अगर ऐसी कम्पनियों को “नामज़द और शर्मिंदा “किया जाए, तो वित्तीय संस्थाओं को उनका पैसा वापस मिल सकता है। इंडियन एक्सप्रेस (6 मार्च 2016) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में वे लिखता है , 6.8 लाख करोड़ के नॉन प्रॉफिट संपत्ति (एनपीए) में 70 प्रतिशत का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं विशाल कार्पोरेट हाउसेस का ही है, और किसानों का केवल एक प्रतिशत।

वे आगे कहते हैं, ‘छोटे और मझोले किसानों के मामले में बहुत सख़्ती दिख़ाते हुए बैंक अपनी रक़म वसूलने उनके घर तक भी पहुंच जाते हैं। उनके नाम और छायाचित्र तक अख़बारों में प्रकाशित कर दिए जाते हैं लेकिन जब बड़े व्यापारियों और कॉर्पोरेट घरानों की बात आती है, तो उनके नाम तक नहीं बताए जाते।” हालांकि अब लोक वित्त समिति ने बजट अधिवेशन के समाप्त होने से पहले रखी जाने वाली अपनी रिपोर्ट में ऐसे डिफाल्टरों का नाम संसद के पटल पर रखने का निर्णय लिया है।

ये एक स्वागतयोग्य कदम है। अब देखना ये होगा कि पीएसी इन बकाएदारों का नाम उजागर करती है या नहीं और इस सन्दर्भ में सरकार द्वारा उठाए कदम के बारे में भी जानकारी रखें। इस दौरान उन शैक्षणिक गतिविधियों का ब्यौरा भी लें, जिनकी आड़ में ये बड़े कारोबारी लोगों के पैसों में की जा रही हेराफेरी को छिपाते हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ( चार मार्च ,2017) में  अन्वेषक श्री प्रसन्न तांत्रि ( शंकर डे के साथ) लिखते हैं कि ‘उत्तर प्रदेश चुनावों में संलग्न राजनैतिक दल जिस सामूहिक कृषक ऋण माफ़ी की हिमायत कर रहे हैं, वो किसानों को लाभ से ज्यादा नुक़सान पहुंचाएगी।’ उनके अनुसार देर सबेर मतदाता इस राजनैतिक अवसरवाद को भांप कर उसे नकार ही देंगे।

ये दोनों ही शोधकर्ता, इंडियन स्कूल ऑफ़ बिजनेस से हैं। कोई आश्चर्य नहीं, कि इनका लेख काफी एकतरफा हैं पर उनका इस तरह एक पूरी तरह से गलत परिकल्पना को सही ठहराना मुझे आश्चर्यचकित कर देता है। उनकी परिकल्पना के अनुसार, कर्ज़ा माफ़ी एक किसान को उन दशाओं में छोड़ देती है जो उसके कर्ज़ा लेने से पहले थे या ये दशा और भी दयनीय हो सकती है इसलिए ऋण माफ़ी एक बेकार का विचार है। उनका सूक्ष्म अन्वेषण इस निष्कर्ष पर पहुंचता है, कि कर्ज़ माफ़ किया जाना किसानों के दूरगामी हित में नहीं है।

लेकिन फिर कॉर्पोरेट सेक्टर में ये ऋण माफ़ी क्यों बार-बार दोहराई जाती है, मुझे आश्चर्य है। एक लम्बे दौर में क्यों नहीं ये बिजनेसमैन और बड़े कारोबारियों को नुक़सान पहुंचाता है ? जब कर्ज़ा माफ़ी किसानों के लिए खराब है, तो वही क्यों कारोबारियों के लिए स्वागतयोग्य है ?

ऐसा नहीं है कि ये कोई पहली बार है जब बैंकों के सामने 6.8 लाख करोड़ की धनराशि कर्जे के रूप में इकट्ठी हो गई है। लगभग हर दूसरे तीसरे साल बैकों के सामने इसी तरह एक विशाल बकाया तैयार हो जाता है, जिसका एक उल्लेखनीय हिस्सा माफ़ कर दिया जाता है, और बचा खुचा हिस्सा पुनर्निर्माण में लगा दिया जाता है।

ध्यान से देखे जाने पर पाएंगे कि कम से कम 10 लाख करोड़ रुपया ऐसा रहा है, जिसे बैंकों ने कर्ज़ा माफ़ी या पुनर्निर्माण में लगा दिया। ऐसा हालिया कुछ वर्षों में हो चुका है। इसके बावजूद, जैसा पीएसी ने दर्शाया, तकरीबन 6.8 लाख करोड़ फिर इकट्ठा हो गया। क्या ये “बैड आइडिया” नहीं ? और क्यों ऐसा बार-बार होता रहता है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि मुख्यधारा के बौद्धिक वर्ग से ताल्लुक रखने वालों और जनता से संवाद करने वालों को ये समझा दिया जाता है कि बड़ी कम्पनियों द्वारा कर्ज़ा अदायगी न किए जाना मामूली सी बात है क्योंकि ये उन बाहरी कारकों की वजह से होता है जिस पर कारोबारियों का नियंत्रण होता ही नहीं। और हां, इन कम्पनियों की सम्पत्ति बेचे जाने का मतलब होगा छंटनी,जो बेरोजगारी में तब्दील हो जाएगी। इन खूबसूरती से काट-छांट के तैयार की गई दलीलों को जिनका उद्देश्य इन बड़े कारोबारियों को बचाने का होता है, हम बिना इनके स्वार्थी इरादों को भांपे मानते चले जाते हैं।

जब किसान कर्ज़ नहीं चुका पा रहा होता है, तो ये भी तो बाहरी कारणों की वजह से ही होता है। जब आलू के उत्पादक किसान अपने 2000 किलो के उत्पाद केवल एक रुपए में बेचने को बाध्य होते हैं, और जब विवशता में कई सौ टमाटर उत्पादक अपनी फसल जमीन पर फेंक देते हैं, तो ऐसा नहीं है कि इसमें इन किसानों को मजा आ रहा होगा। अपनी गाढ़ी मेहनत से उपजाई फसल को इस तरह फेंक कर दरअसल वो विरोध दर्शा रहे होते हैं क्योंकि उन्हें अपनी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिलता, इसी वजह से वो कर्ज़ के चंगुल में फंसते चले जाते हैं और फिर भी, अगर उनके ट्रैक्टर नीलामी में रखे जाते हैं, तो क्या ये भेदभाव नहीं? क्या किसानों को ये सजा इसलिए ही नहीं दी जा रही, क्योंकि वो गरीब हैं?

यही कारण है कि मैं लगातार ये कहता चला आ रहा हूं कि ‘किसान किसी निम्नतर ईश्वर की सन्तानें हैं।’

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निज़ी विचार हैं।)

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