मजदूरों और कामगारों के सामने अपूर्व संकट है। उधर सरकार के सामने अर्थव्यवस्था संभालने की मुसीबत आन पड़ी है। मुश्किल के इस दौर में सरकारों ने श्रम कानून में बदलाव की कवायद शुरू कर दी है। राज्य सरकारों का यह कदम साधारण नहीं माना जाना चाहिए। इसका आगा पीछा देखने की जरूरत है।
सड़कों पर पैदल चलते प्रवासी मजदूरों की झकझोर देने वाली तस्वीरें लम्बे अरसे तक भुलाए नहीं भूलेंगी, लेकिन इससे एक सवाल पैदा हो गया है कि शहर छोडकर अपने गाँव की तरफ भागते बदहवास मजदूर गांव पहुंचकर आगे करेंगे क्या?
याद किया जाना चाहिए कि ये मजदूर कभी गांव छोड़कर शहर भागे थे। कारण साफ था कि गांव में उनके लिए आजीविका के साधन नहीं थे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहरों से ज्यादा जर्जर होती जा रही थी। सो मान लेना चाहिए कि इन आठ-दस करोड़ प्रवासी मजदूरों को अपने में समेट लेने की क्षमता ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अब बिल्कुल भी नहीं बची होगी। जाहिर है आज अपने गाँव की ओर वापस भागे ये गरीब मजदूर कुछ दिनों में फिर शहर लौटने को अभिशप्त हैं।
इधर लॉकडाउन से सरकार भी मुश्किल में फंसी नज़र आ रही है। उद्योग और निर्माण कार्य ठप हैं। अर्थव्यवस्था का पूरा हिसाब गड़बड़ा गया है। आनन फानन में सरकारों को जो सूझ रहा है वह उसी को आजमा कर देख रही हैं। कई राज्य सरकारें निवेश लाने के लिए तरह-तरह के फैसले कर रही हैं। ऐसा ही एक फैसला है श्रम कानून में बदलाव के जरिए निवेशकों को आकर्षित करने का।
समझाया यह जा रहा है कि अर्थव्यवस्था संभालने के लिए विदेशी कंपनियों को भारत लाने की जरूरत है। खबरे हैं कि कई वैश्विक कंपनियां जो अभी तक चीन में अपना उत्पादन कर रही थीं वे अब वहां से निकलना चाह रही हैं और दूसरे देशों में अपने कारखाने लगाने की सोच रही हैं। इन्हीं विदेशी कंपनियों को लुभाने के लिए श्रम कानूनों में बदलाव का फैसला किया गया। तर्क यह दिया गया कि भारतीय श्रमिक कल्याण कानून पेचीदा हैं और ये कानून अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को भारत लाने में बाधा हैं। कुछ ऐसे ही तर्क देते हुए कुछ राज्यों में ज्यादातर श्रम कानून एक अवधि के लिए खत्म कर दिए गए।
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ये एक अलग विषय है कि विदेशी कंपनियां भारत आएंगी या नहीं? या श्रम कानूनों में कटौती किसी व्यवसाय के लिए लुभावनी है या घातक? लेकिन इस बात पर कोई विवाद नहीं कि यह मुद्दा देश के सबसे गरीब, जरूरतमंद और संवेदनशील तबके की सुरक्षा और उनके अधिकारों से जुड़ा है। इसलिए इन नए बदलावों का विश्लेषण जरूरी हो जाता है।
वैसे श्रम कानूनों में बदलाव की मांग नई नहीं है। कई साल से एक तरीका ढूंढने की कवायद हो रही है जिससे मजदूरों के हितों का ध्यान रखते हुए इन कानूनों की जटिलता और जड़ता को कम किया जाए यानी इन कानूनों को बेहतर प्रारूप दिया जाए, लेकिन मंदी से निपटने की जल्दबाजी में श्रम कानूनों में किए जा रहे बदलाव मजदूरों के सुरक्षा कवच को खत्म करते ज़्यादा दिख रहे हैं।
किसी भी कानून को बनाने या उसमें रिफार्म यानी सुधार करने से पहले उस कानून को बनाने के मकसद जरूर देखे जाते हैं। आज जितने भी श्रम कानून हमारे सामने हैं उन्हें उस रूप तक पहुँचाने में सौ साल से भी लंबा वक्त खर्च हुआ है। उस लंबी प्रक्रिया को पलट कर देखेंगे तभी पता चलेगा कि इन कानूनों को बनाने के मूल उद्देश्य क्या थे। और तभी इन कानूनों में बदलाव के अच्छे बुरे प्रभावों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
श्रमिक कल्याण कानूनों के उद्देश्यों को चार भागों में बांटा जा सकता है। पहला, सामाजिक न्याय, दूसरा, आर्थिक न्याय, तीसरा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मजबूती और चैथा अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों के प्रति वचनबद्धता।
सामाजिक न्याय इस तरह सोचा गया था कि अमीरी और गरीबी का फर्क कहीं गरीबों के शोषण का कारण ना बन जाए इसलिए कुछ ऐसे अधिनियमों की जरूरत पड़ी जो मजदूरों की सामाजिक स्थिति की सुरक्षा करें और भेदभाव, बंधुआ मजदूरी, दुर्व्यवहार, रोजगार की अस्थिरता, काम की मनमानी अवधि, कार्यस्थल पर मूलभूत सुविधाओं की कमी जैसी बुराइयों से बचाएं।
प्रबंधकों और नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों के लिए किए जाने वाले फैसलों में श्रमिकों की भागीदारी भी सामाजिक न्याय का ही हिस्सा है। भारत में ईक्वल रेम्युनरेशन एक्ट 1976, कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970, चाइल्ड लेबर एक्ट 1986, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर्स) एक्ट 1946, फेक्टरीज़ एक्ट 1948 के स्वास्थ्य और कल्याण सम्बन्धी प्रावधान, कलेक्टिव बारगेनिंग जैसे कई नियम अधिनियम हैं जो श्रमिकों के लिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने का काम करते चले आ रहे हैं। यहां तक कि भारतीय संविधान के अनुच्छे 14, 19, 21, 23, 42 जैसे दस से ज्यादा अनुच्छेदों में भी श्रमिकों के अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं।
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श्रम कानूनों में बदलाव के इस दौर में याद दिलाए जाने की जरूरत है कि भारत का संविधान हर मजदूर को ट्रेड यूनियन और श्रमिक समूहों के निर्माण और उनका हिस्सा बनने का हक देता है। इसी के साथ कार्यस्थल की मानवोचित दशाएं, बिना भेदभाव सभी को काम के बराबर मौके जैसे कई अधिकार भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों में शामिल हैं। इस तरह श्रम कानून में बदलाव पहली नज़र में संवैधानिक संगत नहीं दिखाई दे रहे हैं। इस मामले में बहस की दरकार है।
सामाजिक न्याय की तरह ही आर्थिक शोषण से मजदूरों को बचाने के लिए भी श्रम कानूनों की जरुरत पड़ी। श्रम के घंटों के अनुसार उचित मेहनताना, पारिश्रमिक के भुगतान का निश्चित समय और तय दिन, मजदूरी करते समय घायल होने या मृत्यु हो जाने पर मुआवजा, बोनस, रिटायरमेंट के बाद की आर्थिक सुरक्षा के लिए पीएफ, पेंशन और ग्रेच्युटी जैसी ज़रूरतों की उचित व्यवस्था के लिए कई अधिनियम बनाए गए। याद किया जाना चाहिए कि इन अधिनियमों के बनने से पहले मजदूरों का आर्थिक शोषण पूरे विश्व के लिए एक बड़ी समस्या थी। हालांकि किसी न किसी रूप् में यह समस्या आज भी है लेकिन यह निर्विवाद है कि श्रम कानूनों से इन समस्याओं को कम करने में बहुत मदद मिली।
सन 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के गठन से पूरे विश्व में श्रम कानूनों को औपचारिक रूप देना आसान हो गया। भारत में श्रमिकों के आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए मिनिमम वेजिज एक्ट 1948, पेमेंट ऑफ वेजिज एक्ट 1936, वर्कमेंस कंपनसेशन एक्ट 1923, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट 1965 जैसे दसियों अधिनियम पिछले सौ साल में काफी लंबे विचार विमर्श के बाद बनाए गए। ये कानून भारतीय मजदूरों के आर्थिक हित सुरक्षित रखने के लिए नियोक्ताओं को प्रतिबद्ध रखते हैं। लिहाजा अब अगर इनमें बदलाव किया जाएगा या इन्हें हटाया जाएगा तो मजदूरों को मिली आर्थिक सुरक्षा खतरे में क्यों नहीं आएगी।
श्रम कानूनों का अस्तित्व किसी भी देश की अर्थव्यवस्था से भी जुडा है। श्रम कानून सिर्फ मजदूरों के लिए ही लाभदायक नहीं हैं, बल्कि इनके जरिए नियोक्ता और कर्मचारी के बीच समन्वय का काम भी सधता है। इसीलिए कहा जाता है कि श्रम कानूनों का एक लक्ष्य इंडस्ट्रियल पीस यानी औद्योगिक क्षेत्र में शांति बनाए रखना भी है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए उसके कल कारखानों का शांतिपूर्वक चलते रहना बहुत जरूरी माना जाता है।
अगर बार-बार मजदूरों और प्रबंधकों के बीच टकराव होने लगे तो उत्पादन घट जाता है। इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसीलिए कलेक्टिव बारगेनिंग, ट्रेड यूनियन को मान्यताएं और विवाद निपटारण के लिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट बनाए गए। लेबर कोर्ट, ट्राईब्यूनल और दूसरी विवाद सुलझाने वाली आर्बिट्रेशन और एडजुडीकेशन जैसी कानूनी व्यवस्थाएं भी इन्हीं श्रम कानूनों की देन हैं। लब्बोलुआब यह है कि अगर श्रमिकों के पास अपनी शिकायतों के निपटान की व्यवस्था नहीं बचेगी तो इससे कल कारखानों में अशांति और असंतोष का माहौल बना रहेगा। और ऐसा होना उद्योग जगत के लिए फायदे का नहीं बल्कि घाटे का सौदा होता है।
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श्रम कानूनों का चैथा मकसद है अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं पूरी करना। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ पूरे विश्व के लिए श्रमिक कल्याण के कई कन्वेंशन पास करता आया है। आजादी के बाद से भारत आईएलओ के कई कन्वेंशन अपने यहां कानूनी रूप से लागू भी कर चुका है। ऐसा ही एक जरूरी कन्वेंशन है ट्राईपारटाइट कंसल्टेशन का। यानी श्रमिकों के लिए किए जाने वाले फैसलों को लेते समय त्रिपक्षीय विमर्श किया जाए। जिसमें नियोक्ता, सरकार और मजदूरों की समतुल्य भागीदारी हो। इसे 1978 में भारत ने अपने उपर लागू किया। भारत आईएलओ के इन कन्वेंशनों का पालन करने के लिए वचनबद्ध है। लेकिन इस समय श्रम कानूनों में किए जा रहे बदलावों में त्रिपक्षीय भागीदारी नज़र नहीं आ रही है। आज जब कई राज्यों ने श्रम कानूनों को खुद से स्थगित करने का फैसला किया है तो यह हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से भी मेल नहीं खाता है।
जानकार मान रहे हैं कि श्रम कानूनों में बदलाव के फैसलों पर पुनर्विचार की ज़रूरत है। अब सोचना सरकार को है कि विदेशी कंपनियों को लुभाने के लिए कहीं अपने श्रमिकों के हित नजरअंदाज न हो जाएं।