ऐसा नहीं है कि गाँव-घर में अचानक से पानी आ गया होगा और लोगों को संभलने का जरा सा भी मौका नहीं मिला होगा। हुआ ये होगा कि बाढ़ आने से पहले बाढ़ आ जाने की आशंका हुई होगी। इलाके में हल्ला हो गया होगा। लोगों ने इधर-उधर फोन लगाया होगा। कहीं से उम्मीद की कोई सूचना नहीं मिली होगी। तब चिन्ता और उदासी का मिला-जुला भाव चेहरे पर पसरने लगा होगा।
परिवार के सदस्यों ने और गाँव समाज के लोगों ने यह विचार किया होगा कि बाजार जाकर आवश्यक सामान ले आया जाए, लेकिन इस मूसलाधार बारिश में कोई निकले भी तो कैसे। पर बिना निकले बनेगा भी तो नहीं। लोगों ने तय किया होगा कि फलाने को टेंपो लेकर चलने के लिए कहा जाए। दो-चार आदमी शेष लोगों से उनके आवश्यक सामानों के पैसे लेकर चले जाएंगे और जल्दी से वापस लौट आएंगे।
यही किया गया होगा। बाढ़ के डर से घर छोड़ देने का जिक्र किसी ने नहीं किया होगा। गर बाढ़ आएगी तो गाँव में पानी भी आएगा। हो सकता है थोड़ा सा ही पानी आए और एकाध दिन रूककर चला जाए। सावन-भादो में ऐसा होना कोई नई बात तो है नहीं। सो, नमक-तेल, चीनी-चाय की पत्ती वगैरह-वगैरह ले आने की ही बातें दिमाग में आई होंगी।
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किसी लड़के ने यह सूचना दी होगी कि लगातार बारिश होते रहने के कारण नहर के पास का बिजली का खंभा गिर गया है। सो पता नहीं बिजली कितने दिनों तक नहीं आएगी. तब लोगों में मोबाइल चार्जिंग को लेकर भी चिन्ता उभरने लगी होगी।
दरवाजे पर बंधे पशु को पुचकार कर सूखी भूसी खिलाया जाने लगा होगा। वे समझ रहे होंगे कि इस घनी बारिश में मालिक मेरे लिए हरी घास कहाँ से लाएंगे। आटा-चोकर के सहारे वे सूखी भूसी निगल रहे होंगे। लेकिन चार कदम नहीं चल पाने के कारण उनका मन नहीं लगता होगा और वे कभी भी रंभाने लगते होंगे।
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रात की नींद उड़ गई होगी, लेकिन भिनसरे में नींद दबोच लेता होगा। ऐसे ही एक तड़के सुबह झिंझोर कर उठाया गया होगा। कहा गया होगा कि पानी सड़क के ऊपर से बहने लगा है। वह दरवाजे तक चढ़ आया है और आंगन में फैल रहा है। सुनकर दिमाग सुन्न हो गया होगा। गाँव में हो रही शोर कानों तक गया होगा। घर से निकल कर सड़क तक आया होगा। पता चला होगा की धार (नदी) की बांध टूट गई है। पानी और बढ़ेगा। पता चला होगा कि गाँव की सड़कें भी दो-तीन जगहों से टूट गई हैं। कुछ लोग कब के निकल गए हैं। अब वही हैं जिनके पास पशु हैं। सुनकर दिल बैठने लगा होगा।
आँगन आकर परिचितों से फोन पर हाल-चाल लेने का प्रयास किया गया होगा, लेकिन लाख प्रयास के बाद भी फोन कहीं नहीं लगा होगा। मन में तरह-तरह की अाशंकाएं जनमने लगी होंगी। तभी किसी ने हाँक लगाई होगी कि पानी बढ़ता ही जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि हम गाँव में ही कैद होकर रह जाएं और यहीं मर-खप जाए। सारे लोग निकल रहे हैं। एनएच पर शरण ले रहे हैं लोग। जल्दी निकलो घर से।
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जल्दी-जल्दी जरूरी सामान बाँधा गया होगा। बच्चों को गोद में लिया गया होगा। घर में ताला लगा दिया गया होगा। गाय-बछड़े की रस्सी को खूंटें से खोलकर हाथ में ले लिया गया होगा और सारे लोग कमर तक फैल चुके पानी में उतर गए होंगे। आगे-आगे कुछ युवा लाठी लिए चल रहे होंगे। वे पानी में लाठी को उतारकर देख रहे होंगे कि कहीं गहरे गड्ढे तो नहीं पड़ गए हैं। निश्चिंत होकर वे पांव रखते होंगे। काफिला उनके कदमों का अनुशरण करता होगा।
बच्चे को गोद में लिए साड़ी पहनी महिलाओं को पानी में चलने में परेशानी हो रही होगी। वे घूंघट की ओट से मुड़-मुड़कर घर की तरफ देख लेती होंगी। उनका दिल रो रहा होगा। वे बच्चों को छाती से चिपटा लेती होंगी। तभी किसी ने कहा होगा कि आ गया एसएच। इस पर चलते हुए हम एनएच पर पहुंच जाएंगे। तब जाकर थोड़ी सी राहत मिली होगी। पानी में चल रहे पैर थोड़े से तेज हो गए होंगे।
(मिथिलेश कुमार राय, सुपौल, बिहार)