ग्रामीण अभाव में जीते हैं, मंदी हो या महंगाई

सामान की बिक्री घटी तो गाँवों के छोटे दुकानदार और व्यापारी प्रभावित होंगे और पैसा पास में न रहा तो शिक्षा और चिकित्सा का प्रबन्ध भी कठिन हो जाएगा, लेकिन जीवन की मुख्य धारा मंद ही रहती है।
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मंदी और महंगाई में अथवा सामान्य दिनों में भी गाँवों में भूमिधर और भूमिहीनों को अलग-अलग ढंग से मुद्रा की व्यवस्था करनी होती है। कोई भी भूमिधर थोड़े पैसों की जरूरत के लिए कुछ अनाज बाजार ले जाता है और फुटकर ही में छोटे व्यापारी को बेचकर पैसा ले लेता है और बाजार में खरीदारी करता है।

अधिक मात्रा में बेचना हुआ तो वह थोड़ी बानगी यानी नमूना बाजार में लाता है और ‘बानगी बाजार’ में व्यापारी से सौदा हो जाता है जो अगले दिन किसान के घर से अनाज ले जाता है। यह व्यवस्था तब तक ही काम करेगी जब तक किसान के पास परिवार के खाने से अनाज बचा रहेगा।

गाँवों में यदि एक किसान के पास अन्न और दूसरे के पास धनिया-मिर्चा है तो वे आपस में अदला-बदली कर लेते थे जिसे वस्तु विनिमय कहा जाता है। मैंने बस्तर के आदिवासियों को बाजारों में ऐसा विनिमय सत्तर के दशक में देखा था। शायद अभी भी होता होगा। इस पद्धति में मांग और पूर्ति के हिसाब से लेन-देन का अनुपात बदलता है। इस विधा में महंगाई औा मंदी की भूमिका अधिक नहीं रहती।

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लेकिन जब देश में सिक्का चला तो वस्तु विनिमय की जगह मुद्रा और मंडी का सम्बन्ध स्थापित हुआ जिसमें मंदी और महंगाई की महत्वपूर्ण भूमिका है। भूमिधर ग्रामीणों के पास भी इतना अनाज नहीं होता कि वे परिवार का पेट भरने के बाद गृहस्थी चलाने के लिए बचा सकें। भूमिधर ग्रामीण विविध खर्चों के लिए नगदी फसलों का सहारा लेते हैं। इन फसलों में मुख्य हैं सब्जियां, गन्ना, मेंथा, कपास, दलहन और तिलहन।

कुछ स्थानीय लोग नौकरी पेशा भी हैं जो प्रतिमाह परिवार को खर्च के लिए पैसा देते हैं लेकिन भूमिहीन ग्रामीण मुख्य रूप से मजदूरी पर निर्भर हैं फिर चाहे अकुशल या कुशल जैसे थवई, बढ़ई, लोहार आदि का काम करने वाले। गाँवों में मजदूरी कम होने के कारण ये सब शहर को सवेरे जाते और शाम को वापस आते हैं।

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गाँवों में जीवन की गति सुस्त ही रहती है और महंगाई अथवा मंदी का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन गाँव का जीवन अब उतना स्वावलम्बी नहीं रहा और शहरों में गतिविधियों के तेज या मंद पड़ने से गाँव भी अछूते नहीं रहते। भवन निर्माण, सड़क निर्माण कम होने से शहरों में मजदूरों की मांग घटेगी तो गाँव के मजदूरों की मजदूरी कम हो सकती है। सामान की बिक्री घटी तो गाँवों के छोटे दुकानदार और व्यापारी प्रभावित होंगे और पैसा पास में न रहा तो शिक्षा और चिकित्सा का प्रबन्ध भी कठिन हो जाएगा, लेकिन जीवन की मुख्य धारा मंद ही रहती है।

सामान्य रूप से गाँवों के लोग विषम परिस्थितियों से भी सहज समझौता कर लेते हैं और उद्वेलित नहीं होते। अतीत में पराधीनता और आपातकाल सहज भाव से झेला है और रामराज्य का आनन्द भी लिया है। उनके पास अल्प मुद्रा है इसलिए मंदी और महंगाई उन्हें उद्वेलित नहीं कर पाएगी। कुछ मामलों में मंदी का असर अब जरूर दिखाई देने लगा है लेकिन आशा करनी चाहिए कि यह समय जल्दी बीत जाएगा।  

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