भारत ब्राजील के बाद दुनिया का दूसरे नंबर का गन्ना उत्पादक देश है और उत्तर प्रदेश भारत का सबसे ज्यादा गन्ना उत्पादन करने वाला प्रदेश। देश के कुल गन्ना क्षेत्र का 44 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश में है। इसी तरह भारत के कुल गन्ना उत्पादन का 39 प्रतिशत उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। वहीं, गन्ना उत्पादन की दृष्टि से महाराष्ट्र देश का दूसरा सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है, देश के कुल गन्ना उत्पादन का 22 प्रतिशत उत्पादन यहां से आता है। पर, महाराष्ट्र का गन्ना उत्पादक क्षेत्र प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का महज 20 प्रतिशत है, जो कि यूपी के कुल गन्ना उत्पादक क्षेत्र के 50 प्रतिशत से भी कम है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि यूपी में गन्ना क्षेत्र बढ़ रहा है और यह वर्ष 2017-18 में बढ़कर 22.65 लाख हेक्टेयर हो गया है जो कि 2016-17 से एक लाख हेक्टेयर ज्यादा है। लेकिन इसके बावजूद प्रदेश में गन्ना उत्पादन या तो स्थिर है या उसमें कमी आ रही है। ऐसे में वक्त की मांग है कि आत्मनिरीक्षण किया जाए और उत्तर प्रदेश की खेती को और ऊर्जावान व लाभदायक बनाने के लिए संतुलित फसल योजना के साथ-साथ कुछ सुधारात्मक कदम उठाए जाएं। उत्तर प्रदेश में गन्ने की बुरी हालत देखते हुए हाल ही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उसकी जो तुलना डायबिटीज से की है वह एकदम सही है। इस पर शोर-शराबा करने की जगह तारीफ की जानी चाहिए।
यूपी में गन्ना क्षेत्र बढ़कर 23 लाख हेक्टेयर हो गया है, इसी आधार पर यहां से 100 लाख टन गन्ना उत्पादन की संभावना है। एक समय में अविभाजित मेरठ और मुजफ्फरनगर जिलों में इतना ज्यादा गन्ना उत्पादन होता था कि इस इलाके को यूपी का चीनी का कटोरा कहा जाता था। यूपी के 43 जिलों में गन्ने की खेती होती है हालांकि इन जिलों में इसकी उपज में काफी उतारचढ़ाव देखा जाता है। मथुरा और कानपुर जिलों में गन्ना उत्पादन प्रति हेक्टेयर 500 क्विंटल से भी कम है जबकि, शामली, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, अमरोहा, हापुड़ और बिजनौर में उत्पादन 750 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास है। बाकी के जिलों में गन्ना उत्पादन 500-600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के बीच रहता है। ऐसी स्थिति में जरूरी है कि गहन विचारविमर्श के बाद गन्ना उत्पादन बढ़ाने के लिए ऐसी योजना लागू की जाए जिसमें गन्ने की खेती का क्षेत्रफल बढ़ाने की जगह उसकी उत्पादक बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। इन क्षेत्रों की उत्पादकता 800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के राष्ट्रीय औसत से ज्यादा न हो तो कम से कम उसे छू तो ले। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में गन्ने की उत्पादकता 1000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है। इसके अलावा सहयोगी फसलों की शुरूआत करके प्रति ईकाई क्षेत्र में मुनाफा बढ़ाने की जरूरत है।
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उत्तर प्रदेश की दूरदर्शी सरकार इन रणनीतिक सुझावों पर विचार कर सकती है:
1. यूपी के ऐसे जिलों को, जहां 600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से कम गन्ना उत्पादन की औसत है और जहां के बारे में ऐसी कोई उम्मीद नहीं है कि तकनीक की मदद के बाद भी निकट भविष्य में गन्ने का उत्पादन बढ़ेगा, ऐसे क्षेत्रों को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया जाए।
2. ऐसे जिलों में गन्ने की खेती पर ज्यादा ध्यान दिया जाए जहां गन्ने की बुवाई वसंत ऋतु से शरद ऋतु तक बढ़ाई जा सके। शरद ऋतु में बोए गए गन्ने की उपज 15-20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है, साथ ही इसमें वसंत में लगाए गए गन्ने की तुलना में शक्कर 0.5 यूनिट तक ज्यादा हो जाती है।
3. ऐसी उन्नत प्रजातियों की खेती पर ध्यान देना चाहिए जो कम समय में तैयार हो जाती हों। इससे जमीन पर दबाव कम होगा साथ ही सिंचाई की भी कम आवश्यकता होगी।
4. ऐसी प्रजातियों का चलन बढ़ाया जाए जिनसे अधिक चीनी की प्राप्ति होती हो, जैसे बिजनौर जिले में उगाए जाने वाले गन्ने की फसल से 11.7 प्रतिशत चीनी की रिकवरी है जो कि देश में सबसे ज्यादा है।
5. शरद ऋतु में बोए जाने वाले गन्ने की खेती को बढ़ावा देना। इस गन्ने के साथ रबी के मौसम में उगने वाले तिलहन, दालें और सब्जियां की सहफसली खेती की जाए ताकि किसानों को तुरंत पैसा मिले। इनके अलावा सर्दियों में उगने वाले मक्का, राजमा और आलू का विकल्प भी फायदेमंद साबित हो सकता है।
6. गन्ने की खेती में भूमि, जल और निवेश की गई दूसरी चीजों का पूरी निपुणता से प्रयोग किया जाए ताकि छोटे किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जा सके।
7. गेहूं और गन्ने के ओवरलैपिंग क्रॉपिंग सिस्टम को अपनाया जाए। इस तकनीक से गन्ने की खेती में निवेश की गई सभी चीजों का पूरी निपुणता से इस्तेमाल होता है साथ ही लागत भी घटती है और मुनाफे का मार्जिन भी बढ़ता है।
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गन्ने की गिनती उन फसलों में होती है जो भारी मात्रा में पानी और पोषक तत्वों का उपभोग करती हैं। इसके अलावा गन्ने की फसल साल भर खेत में खड़ी रहती है। इसमें कोई शक नहीं है कि जिस राज्य में गन्ने की खेती बहुतायात में होती है वहां की सरकार को सामाजिक और पर्यावरणीय दोनों तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। गन्ना प्रधान राज्य की भूमि की अम्लता, क्षारीयता व उर्वरता प्रभावित होती है साथ ही उसमें ऑर्गेनिक कार्बन तत्व की कमी भी हो जाती है। दूसरी तरफ चीनी मिलों की गतिविधियों से गंदा पानी और प्रदूषण पैदा करने वाले दूसरे तत्व भी वातावरण में मिलते रहते हैं।
चूंकि कृषि राज्य का विषय है इसलिए सरकार को एक संतुलित फसल उत्पादन योजना बनाने की आवश्यकता है। यह योजना बनाने से पहले हर साल अगले पांच वर्षों के लिए अनाज, दालों, तिलहन, कंद, मसाले, चारा, शीरा, चीनी, सब्जियों वगैरह की आवश्यकता का आंकलन कर लेना चाहिए। इसके बाद उन फसलों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जिनकी क्षेत्र विशेष में अधिक उत्पादकता है और जिनकी खरीददारी, वितरण और बफर स्टॉक करने की व्यवस्था सरकार करे। वैसे शायद ही कोई ऐसी फसल होगी जो यूपी में न उगे और जिसे दूसरे राज्यों से मंगाना पड़े। यूपी में न केवल ढेरों फसलें उगाने की अपार संभावनाएं हैं बल्कि यह प्रदेश अपने पड़ोसी राज्यों को मछली, मांस, पोल्ट्री और डेयरी उत्पाद सप्लाई करने की क्षमता भी रखता है और खेती को एक मुनाफेवाला व्यवसाय बना सकता है।
आखिर में होठों पर मिठास लाने के लिए योगी आदित्यनाथ की अगुआई में राज्य सरकार स्टीविया की खेती शुरू कर सकती है। स्टीविया से लो कैलोरी शुगर मिलती है। पश्चिमी देशों में इसकी भारी मांग है। इसके अलावा जिन इलाकों की मिट्ठी में खारापन बढ़ गया है वहां चुकंदर उगाकर यूपी की माटी में मिठास घोल सकते हैं।
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(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)