इस साल की शुरुआत में बहस छिड़ी थी कि अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी और जामा मिलिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक संस्थाएं मानकर इनमें मुख्य रूप से मुस्लिम छात्रों को प्रवेश दिया जाए। यह विवाद इसलिए आरम्भ हुआ था इन संस्थाओं में दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए निर्धारित आरक्षण नहीं दिया जा रहा है और मुस्लिम छात्रों को 75 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की बात हो रही थी।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना 1920 में हुई थी तब बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का बटवारा नहीं था भले ही लियाकत अली खान जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने उनकी पढ़ाई यहीं हुई थी। भारत विभाजन के साथ अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का जिन्ना सिद्धान्त समाप्त हो जाना चाहिए था। जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना भारत की संसद द्वारा 1988 में हुई। इन विश्वविद्यालयों में जब आज तक मुसलमान छात्रों के लिए कोई आरक्षण नहीं था तो अब क्यों। क्या इन विश्वविद्यालयों में इस्लाम पर रिसर्च होगी, इनका स्वरूप बदलेगा। यदि मुसलमानों को आधुनिक विषय पढ़ाना है तो क्या सेक्युलर विश्वविद्यालय यह काम नहीं कर सकतें। एक सेक्युलर देश में केवल धर्म विशेष के छात्रों के लिए सरकारी खर्चे से विश्वविद्यालय चलाना कितना सही है?
चुनी हुई भाषाओं अथवा क्षेत्रीय अध्ययन के लिए रिसर्च सेन्टर या विश्वविद्यालय बनाना अलग बात है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय अथवा उर्दू के लिए हैदराबाद में भाषाओं का विश्वविद्यालय तो समझ में आ सकता है। विश्वविद्यालयों की गरिमा घटाने से न तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खां को और न जामिया के प्रथम कुलपति और भूतपूर्व राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन साहब को प्रसन्नता होगी। सच तो यह है कि इंडोनेशिया के बाद दुनिया में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी वाले भारत के लिए बीस करोड़ मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक कहना कोई बुद्धिमानी नहीं है। स्वयं नजमा हेमतुल्ला जो अल्पसंख्यक मंत्रालय की मंत्री हैं उनके विचार से भी मुस्लिम समाज भारत में अल्पसंख्यक नहीं है। दूसरी बात यह कि सेक्युलर देश में धर्म के आधार पर केन्द्रीय संस्था में या कहीं और भी आरक्षण की बात मान्य नहीं हो सकती। धार्मिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण का तो औचित्य उच्चतम न्यायालय ने भी अमान्य किया है तो शिक्षण संस्थाओं में कैसे मान्य होगा।
मुस्लिम नेता संविधान की विभिन्न धाराओं का हवाला देते हुए यह कह रहे हैं कि अलीगढ़ और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय मुसलमानों द्वारा स्थापित किए गए थे और संविधान के अनुसार अलपसंख्यकों को अपनी शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार है। शायद वे भूल जाते हैं कि सरकार द्वारा वित्तपोषित रिसर्च संस्थाओं जैसे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए यह तर्क लागू नहीं होता। हमारे ध्यान में रहना चाहिए कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित किया जाता है। इन पर लगने वाला पैसा पूरे देश से आता है और इसलिए ये सार्वजनिक संस्थाएं हैं, अल्पसंख्यक संस्थाएं नहीं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय उतना ही समाज और राष्ट्र का है जितना बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय।
भारत में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का जो स्वांग रचा गया है उसके दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं। कश्मीर में आधी से अधिक मुस्लिम आबादी है परन्तु वे अल्पसंख्यक कहे जाते हैं। आसाम और पश्चिम बंगाल के पूर्वी भागों और केरल के मलाबार में कहीं-कहीं 80 प्रतिशत तक मुस्लिम आबादी है फिर भी उन्हें अल्पसंख्यक कहा जाता है। वोट के सौदागरों की चले तो 49 प्रतिशत को भी अल्पसंख्यक बता देंगे। अल्पसंख्यक की गणना के लिए भौगोलिक इकाई निर्धारित हो। यह गणना जिला स्तर पर हो या कम से कम प्रान्तीय आधार पर होनी चाहिए।
शिक्षा संस्थाओं को मजहब के आधार पर बांटने का मतलब है छात्र-छात्राओं को घुलमिल कर पढ़ने और रहने का मौका ही न देना। जब देश का बंटवारा हुआ तो बिनायक दामोदर सावरकर ने आबादी की अदला बदली की बात कही थी और जिन्ना भी सोचते थे सभी मुसलमान उनके पीछे-पीछे चले आएंगे। ऐसा कुछ नही हुआ। मसला केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं है। न्यायालय में प्रकरण विचाराधीन है कि पंजाब में पंजाबियों को अल्पसंख्यक कहा जाना चाहिए अथवा नहीं। अरुणाचल में ईसाइयों की आबादी की बात भी है। जो भी हो, उच्च शिक्षा संस्थाओं को मजहब के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।
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