वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता का सवाल : हमारा भला कौन तय करेगा.. अदालत या हम

हिंदी समाचार

अधिकतर भारतीय जूडी शींडलिन के नाम पर गौर ही नहीं करेंगे। अगर हम जज जूडी कहें तो शायद कुछ के दिमाग की घंटी बज जाएगी, खासकर उन लोगों की जो अदालती ड्रामा वाले रियलिटी टीवी शो देखकर अमेरिकी जीवन शैली को महसूस कर चुके हैं। मैनहाटन पारिवारिक अदालत की न्यायाधीश रह चुकीं जूडी शींडलिन का शो बेहद कामयाब है और पिछले 21 साल से लगातार चल रहा है। इसमें छोटे से छोटे विवाद भी सीधे टीवी पर जूडी के पास आते हैं लेकिन दोनों पक्षों को पहले करार करना पड़ता है कि होने वाले फैसले को वे मानेंगे।

यह सब तो ठीक है लेकिन हम ‘राष्ट्रहित’ में अमेरिका की बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि उनके एक शो की ऐसी क्लिप एक भारतीय वेबसाइट पर आई है, जिसमें जज जूडी के सामने बैठे एक महिला, एक पुरुष हैं और एक प्यारा सा कुत्ता है। दोनों कुत्ते को अपना बता रहे हैं। महिला सबूत के तौर पर जानवरों के डॉक्टर के पर्चे दिखाती है, लेकिन जज जूडी अनदेखा कर देती हैं। कुत्ते को लेकर अदालत में खड़े शख्स से वह सख्ती के साथ कहती हैं, ‘कुत्ते को नीचे रखो।’ नीचे रखते ही कुत्ता दौड़ता है और पुरुष के पास चला जाता है। उससे लिपटने लगता है और आखिर में उसकी गोद में चढ़ जाता है।

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यह सब पढ़ने के बाद क्या आपको हाल ही में सुर्खी बना कुछ अहम मामला याद आता है? मामला सर्वोच्च न्यायालय में था। इसमें कुत्ते के बजाय एक औरत थी और दो मालिकों के बजाय उसके माता-पिता उस शख्स के साथ लड़ रहे थे, जिसे वह अपना पति बता रही थी। मामला केरल का था और सर्वोच्च अदालत में इसलिए आया था क्योंकि राज्य के उच्च न्यायालय ने मुसलमान के साथ उसकी शादी खारिज कर दी थी और उसका ‘पति’ फैसले के खिलाफ अपील कर रहा था।

हमारे माननीय उच्चतम न्यायालय के पीठ ने महिला (अखिला) से यह नहीं पूछा कि वह कहां, किसके पास और किस धर्म में जाना चाहती है। उसके बजाय उसने देश की बेहतरीन आतंकवाद रोधी (अपराध) जांच एजेंसी को जांच करने का जिम्मा दे दिया। न्यायाधीशों ने कहा कि एजेंसी की रिपोर्ट आने के बाद ही महिला की बात सुनी जाएगी। हमारी अदालत ‘कुत्ते को नीचे रखो’ जैसे सरल नुस्खे नहीं आजमाती।

असल जिंदगी का यह अदालती किस्सा हल्का-फुल्का नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के पीठ में दो सबसे सम्मानित और गंभीर न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ हैं। जिरह कर रहे वकीलों में भी कपिल सिब्बल और इंदिरा जयसिंह के सामने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह, श्याम और माधवी दीवान हैं। हर तरह से यह बेहद अहम है।

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इस फैसले के लिए पीठ की आलोचना भी हुई और उसे सराहना भी मिली लेकिन अदालत की आलोचना से पहले कुछ बातों पर गौर किया जाना चाहिए। पहली, न्यायाधीशों ने अभी तक मामले के कानूनी पहलुओं की जांच नहीं की है। दूसरी, आदेश में कहा गया है कि एनआई की जांच निष्पक्ष होने पर ही याची (युवती के पक्ष से) उसे स्वीकार करेंगे और उसकी निष्पक्षता अदालत सुनिश्चित करेगी। तीसरा तथ्य सामने आने के बाद न्यायाधीश अकेले में महिला की बात सुनेंगे। उसके बाद ही आखिरी फैसला सुनाया जाएगा।

लेकिन मामला आखिर है क्या? यह महिला ‘अखिला’ (जो अब हदिया कहलाना पसंद करती है) है, जो केरल में कोट्टायम से चिकित्सा की पढ़ाई कर चुकी है। उसके माता-पिता कुछ मुस्लिम चरमपंथी संगठनों के साथ उसकी निकटता से सतर्क हो गए और उच्च न्यायालय से अनुरोध किया कि वह केवल उनके ‘साथ’ ही महफूज रहेगी। जनवरी, 2016 में पीठ ने अनुरोध खारिज कर निर्णय लिया कि महिला वयस्क है और खुद फैसला कर सकती है। अगस्त, 2016 में माता-पिता ने नए सिरे से याचिका डाली। एक दिन अखिला शफी जहां के साथ अदालत पहुंची और कहा कि दोनों ने विवाह कर लिया है।

आखिरकार अदालत ने विवाह को फर्जी करार दिया और कहा कि अभी वह इतनी बड़ी नहीं हुई है कि सही फैसला ले सके। असल में अदालत पैरेंस पैट्री के सिद्धांत पर चल रही थी, जिसके मुताबिक परित्यक्त, किराये की कोख से जन्मे बच्चों के माता-पिता की जिम्मेदारी देश उठाता है। उन्होंने 24 साल की डॉक्टर पर यह सिद्धांत आजमाया। अखिला (हदिया) और उसके कथित पति ने इसी आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है। उच्चतम न्यायालय के आदेश में सबसे अजीब बात उसकी तेजी है। उच्च न्यायालय के 96 पृष्ठ के आदेश पर तो अभी उन्होंने विचार ही नहीं किया है। इनमें से कुछ बिंदु हैं:

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अपने जीवन और भविष्य के बारे में उसका (अखिला) कोई स्पष्ट रुख या विचार नहीं है… वह ऐसे लोगों के इशारों पर चल रही है, जो उसे उसके माता-पिता से छीन लेने पर आमादा हैं। याची के मुताबिक कट्टïरपंथी संगठनों से ताल्लुक रखने वाले लोग उनकी बेटी को देश के बाहर भेजने की फिराक में हैं। उनका कहना है कि उस व्यक्ति के कट्टरपंथी रुझान हैं और फेसबुक पर उसकी टिप्पणियों से यह झलकता भी है।

अखिला के मां-बाप इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि उनकी बेटी को अपनी जिंदगी के बारे में फैसला करने का अधिकार देना सुरक्षित होगा। याचिका के मुताबिक, ‘वह केवल अपने माता-पिता के पास ही सुरक्षित रह सकती है क्योंकि वह अभी 24 साल की लड़की है। इस उम्र की लड़की कमजोर और असुरक्षित होती है और कई तरह से उसका शोषण किया जा सकता है। अदालत को उसकी उम्र वाली लड़की की भलाई को ध्यान में रखते हुए एक अभिभावक की भूमिका निभानी चाहिए।’

याचिका में कहा गया है, ‘शादी जिंदगी का सबसे अहम फैसला है और केवल उसके माता-पिता की सक्रिय भागीदारी से ही यह शादी हो सकती है।’ याचिका के मुताबिक, ‘ऐसी सूरत में माता-पिता को ही अखिला सौंपी जा सकती है। उसकी देखभाल की जाएगी, उसे अपना कोर्स पूरा करने की इजाजत होगी और उसे काबिल बनाया जाएगा ताकि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके।’

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उच्च न्यायालय के आदेश के समाज पर असर पड़ने की संभावना को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय को उसका परीक्षण भी करना चाहिए। क्या 24 साल की एक लड़की अपने बारे में फैसला करने के लायक नहीं है? क्या न्यायाधीशों को बालिग होने की उम्र के बारे में हरेक मामले के आधार पर निर्णय करना होगा? क्या एक नया न्यायिक सिद्धांत गढ़ा जा रहा है जिसमें माता-पिता की सहमति को शादियों की पूर्व-शर्त बनाया जाएगा? यहीं वह बिंदु है जो हमें जज जूडी की ओर ले जाता है। उन्होंने सही-गलत का फैसला करते समय चार पैरों वाले एक जानवर पर भरोसा करती हैं। क्या हम 24 साल की एक युवती पर भी ‘अपने दो पैरों पर स्वतंत्रतापूर्वक खड़े होने’ का यकीन नहीं कर सकते हैं?

(शेखर गुप्ता, फाउंडर और एडिटर इन चीफ द प्रिंट और अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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