उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पेराई सत्र 2017-18 के लिए गन्ने का दाम महज 10 रुपए प्रति कुंतल बढ़ाया है, जिससे एक बार फिर से उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का असंतोष सड़कों पर आता दिखने लगा है। भारतीय किसान यूनियन ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के सामने गन्ने को जलाकर अपना प्रतीकात्मक विरोध दर्ज कराया है। इस मुद्दे को लेकर उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में किसानों की नाराजगी दिखने लगी है। भले ही चीनी उद्योग ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है लेकिन किसान इससे फिर से निराश हुए हैं।
भाकियू का कहना है कि एक कुंतल गन्ना पैदा करने में करीब 325 रुपए लागत ही आ रही है। इस नाते भाजपा को अपने संकल्प पत्र में किये गये वायदे के मुताबिक गन्ने का मूल्य 450 रुपये प्रति कुन्तल करना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता अशोक बालियान ने सरकार को एक ज्ञापन देकर 10 रूपये बढ़ोतरी पर पुनः विचार करते हुए इसे 350 रूपये प्रति कुंतल घोषित करने की मांग की है। धीरे-धीरे इस मामले को लेकर किसानों का गुस्सा बढ़ रहा है।
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गन्ना उत्तर प्रदेश के 50 लाख किसानों की जीवन रेखा है। हाल के सालों में गन्ना कटाई के लिए मजदूरों का मिलना भी कठिन होता जा रहा है। ऊपर से कई सालों से समय पर गन्ने का दाम न मिलने से किसानों का गणित बिगड़ता जा रहा है। इसी नाते पश्चिमी यूपी में जो गन्ना किसानों की खुशहाली का प्रतीक था, वह परेशानी का सबब बनता जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दावों के बावजूद गन्ना किसानों का दर्द बढ़ रहा है। किसान आंदोलन के गढ़ रहे मेरठ की छह चीनी मिलों पर ही बीते पेराई सत्र के बीतने के बाद भी किसानों का 550 करोड़ रुपए बकाया था। सरकारी नियम यह है कि मिलें 14 दिनों में भुगतान कर देंगी लेकिन यह आदेश कागज से जमीन पर नहीं उतर पाया है। इसी नाते कई किसानों का दो पेराई सत्र का भी पैसा भी नहीं मिला है।
देश के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान केंद्र और राज्य सरकार दोनों से ही निराश हैं। 2012 में सपा ने गन्ना किसानों का दर्द दूर करने के साथ कीमतों को 350 रुपए तक करने का वादा किया था। यह वायदा पूरा नहीं हुआ और उलटे खेती की लागत बढ़ने के साथ किसानों की मुसीबतें और बढ़ गयीं हैं।
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भारतीय अर्थव्यवस्था में गन्ने का अहम योगदान है। इसी नकदी फसल पर चीनी और कई सहयोगी उद्योग निर्भर है। देश में 42 फीसदी गन्ना उत्तर प्रदेश में पैदा होता है। पर नौकरशाही और राजनीति पर किसानों की नहीं मिलों की पकड़ मजबूत है। उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का दर्द मोदी नगर से ही दिखने लगता है। दिल्ली के करीब बसा दो लाख की आबादी वाला मोदीनगर कभी संपन्न औद्योगिक केंद्र था। यहां आसपास के सैकड़ों गांवों में कभी मोदी मिल की बदौलत ही लाखों गन्ना किसानों के चेहरों पर चमक आयी थी। लेकिन आज मोदीनगर चीनी मिल पर गन्ना किसानों का भारी धन बकाया है।
इसी तरह खेती बाड़ी में देश में अग्रणी बागपत जिले में गन्ना ही किसानों की आजीविका का मुख्य केंद्र है। यहीं की छपरौली विधान सभा सीट से पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह चार दशकों तक विधायक रहे। बीते साल जब गन्ने का सरकारी दाम 315 रुपए कुंतल था तो मजबूरी में बागपत के बहुत से किसान कोल्हुओं पर 200 से 250 रुपए कुंतल की दर कर गन्ना बेच रहे हैं। यहां की मलकपुर चीनी मिल पर किसानों का भारी धन बकाया थआ। रमाला सहकारी चीनी मिल जरूर समय पर किसानों को पैसे का भुगतान करती है। लेकिन नोटबंदी के बाद बीते सत्र में इसका भी गणित डगमगा गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी करीब ऐसी ही दशा है।
यह हालत उस उत्तर प्रदेश राज्य की है जहां गन्ने की फसल का योगदान करीब 30 हजार करोड़ रुपए है। यहां तमाम हिस्सों में काफी बड़ी संख्या में कोल्हू और खांडसारी इकाइयां भी चल रही हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ना विकास का एक प्रमुख विभाग और अलग कैबिनेट मंत्री है और हर जिले में गन्ना विकास का सरकारी ढांचा है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह विभाग अब किसानों के लिए शोभा की वस्तु बना रह गया है।
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उत्तर प्रदेश में गन्ने पर डिस्टलरी तथा अल्कोहल से संबद्ध कई और उद्योग निर्भर हैं। यहां किसानों का शोषण रोकने के लिए चीनी मिलों के दायरे में सबसे पहले सहकारी गन्ना समितियों का मजबूत तंत्र बना। कभी चीनी मिलें अपने दायरे नें सड़के बनाती थीं, कृषि यंत्रों औऱ बीजों का वितरण करती थीं। शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी रकम खर्च करती थीं। अभी भी उनके खोले कई स्कूल कालेज और अस्पताल चल रहे है। लेकिन राजनेताओं और नौकरशाहों ने सहकारिता आंदोलन को ही ध्वस्त कर दिया। निजी मिलों ने सांठगांठ करके एक नया तंत्र बना लिया।
गन्ना हासिल करने पर किसानों को कानूनन एक पखवारे में किसानों को भुगतान करना जरूरी है। ऐसा न होने पर उनको 15 फीसदी ब्याज देना होता है। लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। घटतौली, परची मिलने में देरी और क्षेत्रीय विकास में अनदेखी जैसा शिकायतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। अगर किसानों का बैंकों पर या सरकार का बकाया होता है तो वे जेल भेज दिए जाते हैं, लेकिन मिलों के बारे में अलग रवैया है। जब गन्ना संकट खड़ा होता है तो चीनी मिलों के प्रतिनिधि किसानों के घऱों के चक्कर काटते हैं और तमाम रियायतें देने का वादा करते हैं। लेकिन जब किसान गन्ने की रिकार्ड पैदावार करते हैं तो उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। भुगतान में अनिश्चितिता और महंगी पड़ती गन्ने की खेती के नाते बहुत से किसानों का गन्ने की खेती से मोहभंग होने लगा है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि 2005 से उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों औऱ गन्ना किसानों के बीच संबंधों में कड़वाहट बढ़ती जा रही है और तनाव सा आने लगा है। तभी से भुगतान का संकट भी खड़ा हुआ। 2005 में संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने नियम 377 के तहत गन्ना किसानों के 517 करोड़ रुपए बकाये का मसला उठाया तो सपा और कांग्रेस के बीच काफी वाकयुद्ध चला। लेकिन सरकार ने मिलों पर दबाव बढ़ाया और यह भुगतान हो गया था। तब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। लेकिन बाद में बसपा की भी सरकार आयी और फिर सपा की लेकिन किसानों की परेशानियां और बढ़ गयीं।
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हाल के सालों में उत्तर प्रदेश में गन्ने को लेकर सभी दलों ने राजनीति की। मुलायम सिंह आठ पेराई सत्रों तक मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन में पहली बार सबसे ज्यादा 28 फीसदी दाम बढोत्तरी हुई। बाद में छह पेराई सत्रों में भाजपा की सरकार रही। उस दौरान गन्ने के दाम में कुल 27 रुपए की बढोत्तरी हुई। बसपा नेता मायावती सात पेराई सत्रों में मुख्यमंत्री रहीं और उसके शासन में गन्ने का दाम 117 रुपए बढ़ा। अखिलेश यादव के राज में 2012-13 में 280 से 290 रुपए कुंतल का दाम तय हुआ। 2013-14 से 2015-16 के बीच कमोवेश यही दाम बना रहा। 2016-17 में 20 रुपए कुंतल की बढोत्तरी की गयी। इस बार भाजपा के सत्ता में आने के बाद 10 रुपए प्रति कुंतल की बढोत्तरी किसानों के गले नहीं उतर रही है।
बीते पेराई सत्र के आखिर में उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का चीनी मिलो पर पांच पेराई सत्रों का करीब 7580 करोड़ रुपये बकाया था। इस पर 550 करोड़ रुपये का ब्याज जोड़ने पर यह राशि 8130 करोड़ बन जाती है। बीते सत्र के दौरान नोटबंदी से भी गन्ना किसानों पर बड़ी चोट पड़ी। बैंकों से पैसे न मिलने के कारण समय से गन्ने की कटाई व लदाई में दिक्कतें आयीं। राज्य सरकार ने मिल मालिको के हक में किसानों का 1200 करोड़ रुपए का ब्याज भी माफ कर दिया।
उत्तर प्रदेश में करीब 24 लाख हेक्टेयर इलाके में गन्ना पैदा हो रहा है और औसत उपज करीब 66 टन टन प्रति हेक्टेयर तक है। पेड़ी गन्ना उत्पादन में भी हाल के सालों में सुधार आया है और नयी तकनीक से उत्पादन लगातार बढ़ा है। वहीं गन्ना पेराई क्षमता का भी व्यापक विस्तार हुआ है। यह ध्यान रखने की बात है कि उत्तर प्रदेश में देवरिया में 1903 में देश की सबसे पुरानी चीनी मिल स्थापित हुई। लेकिन शुरू में गन्ना खरीद और बिक्री की ठोस व्यवस्था नहीं थी। 1935 में गन्ना विकास विभाग स्थापित हुआ और गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री काल में गन्ना किसानों की मदद को शुगर फैक्ट्रीज़ कन्ट्रोल एक्ट 1938 लागू हुआ। 1953-54 में उत्तर प्रदेश गन्ना पूर्ति एवं खरीद विनियमन अधिनियम 1953 लागू कर ठोस तंत्र बनाया गया। उत्तर प्रदेश में पहली पंचवर्षीय योजना तक 68 चीनी मिलें थीं, जो अब बढ़ कर अब 132 हो गयी हैं। आज इनमें 91 मिलें निजी क्षेत्र की हैं। राज्य सरकार ने हालांकि कई बंद चीनी मिलें शुरू करायी हैं पर मायावती के मुख्यमंत्री काल में कई चीनी मिलों की औने पौने दामों पर बिक्री पर जो गंभीर सवाल उठे थे वे अपनी जगह कायम हैं।
इन तमाम कारणों से बीते कई सालों से उत्तर प्रदेश का गन्ना किसान बेहाल है। जब किसानों को खेत में काम करने की जरूरत होती है तो वो सड़कों पर उतर आंदोलन करने को मजबूर होते हैं। कभी चीनी मिलों को चालू कराने के लिए आंदोलन तो कभी गन्ने का मूल्य घोषित करने के लिए आंदोलन। भुगतान के लिए तो आंदोलन जाने कितनी बार हुए हैं। गन्ना इलाकों में हुई कुछ आत्महत्याओं ने जमीनी हकीकत दिखा दी है।
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भारत दुनिया में गन्ना और चीनी के सबसे बड़े उत्पादक देशों में है। करीब पांच करोड़ गन्ना किसान और उनके आश्रित कृषि मजदूरों का जीवन गन्ने से ही चलता है। गन्ना देश की करीब 7.5 फीसदी ग्रामीण आबादी का भाग्य विधाता है। गन्ने की फसल तैयार होने में 10 से 14 महीने लगते हैं। तमाम खूबियां गन्ने को कल्पवृक्ष सा बनाती हैं, लेकिन यही गन्ना किसानों में कड़वाहट घोल रहा है। उत्तर प्रदेश ही नहीं कई राज्यों में गन्ना किसानों की दिक्कतें बढ़ी हैं। इस नाते जरूरी है कि ऐसी ठोस रणनीति बने कि गन्ना किसानों के चेहरों पर चमक लौटे और मिलें भी सही तरीके से चल सकें। अगर 2020 तक किसानों की आय को दुगुना करना है तो गन्ना और चीनी उद्योग के विकास के लिए ठोस रणनीति बनानी ही होगी और इसमें गन्ना किसानों को केंद्र में रख कर चलना होगा।