अच्छी खेती का आधार अच्छे बीज होते हैं। उन्नत प्रजाति वाले बीजों के इस्तेमाल भर से उपज में 15 से 20 फीसदी की बढ़त देखी गई है। देश में तिलहन और दलहन के उत्पादन में बढ़ोतरी के नजरिए से कृषि मंत्रालय दशकों से ऐसी योजनाएं चला रहा है लेकिन इनपर जितना पैसा खर्च हो चुका है उस हिसाब से ना तो उत्पादन बढ़ा है और ना ही किसी की जवाबदेही तय हुई है। नतीजा यह है कि देश के सरकारी खजाने का बहुत बड़ा भाग दलहन और तिलहन को विदेशों से आयात करने पर खर्च हो रहा है।
गंभीर है समस्या
केंद्र के कृषि व सहकारिता विभाग और राज्य की बीज प्रमाणन एजेंसियों ने बीज व्यापारी कम उत्पादकों की हरकतों की तरफ से आंखें फेर ली हैं। ये बीज व्यापारी कम उत्पादक प्रमाणन के मानकों का जमकर दुरुपयोग तो कर ही रहे हैं, इसके अलावा किसानों और मंडियों से अनाज लेकर उन्हें प्रमाणित बीज की मोहर लगाकर पैक कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में ऐसे मामले पूरे आंकड़ों और सबूतों के साथ कृषि मंत्रालय के सामने रखे गए ताकि इस मामले में कोई कार्रवाई हो लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बल्कि इसके विपरीत इन तथाकथित प्रमाणित बीजों को नैशनल लेवल एजेंसीज के बोरों में रखा गया या फिर भारत सरकार की योजनाओं के तहत टेंडर के जरिए खरीद कर किसानों को बेचा गया। मौजूदा समय में जितने बड़े घोटाले हुए हैं यह घोटाला उनसे किसी भी हालत में कम नहीं है।
विचारणीय मुद्दे
1. कृषि वैज्ञानिकों के शोध और सरकारी पैसा फूंक कर ब्रीडर सीड का विकास किया जाता है फिर उन्हें फाउंडेशन और सर्टिफाइड कैटिगरी में बांटा जाता है। इसके बावजूद इनकी कोई कदर नहीं है। ऐसी स्थिति में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा प्रति वर्ष हजारों कुंतल ब्रीडर सीड पैदा करने की क्या जरूरत है?
2. हर साल आईसीएआर के वैज्ञानिक फसलों की हजारों ऐसी नई प्रजातियां/संकर प्रजातियां जारी करते हैं जो प्रमुख कीटों और रोगों के हमलों से बेअसर और मौसमी बदलावों का मुकाबला करने में सक्षम होती हैं। अब समय आ गया है कि इनसे कहा जाए कि ये वैज्ञानिक गांवों और किसानों की सहभागिता से स्थानीय जरूरतों के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाले बीज पैदा करें। बीज के उत्पादन में लगे ब्रीडर और उसके सहयोगियों को बोनस देने की व्यवस्था करके इसे संस्थान के लिए राजस्व मुहैया कराने के कार्यक्रम से जोड़ा जा सकता है। आईसीएआर इसके लिए संस्थान को बीज प्रसंस्करण और पैकेजिंग यूनिट की सुविधा उपलब्ध करा सकता है।
3. मुमकिन है कि स्टेट फार्म कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और नेशनल सीड कॉरपोरेशन के विलय की स्थिति में नई पहचानी गई किस्मों के टेस्ट स्टॉक सीड मल्टीप्लिकेशन को कृषि व सहकारी मंत्रालय से वित्तीय समर्थन न मिले। इसके लिए केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं के तहत जरूरी राशि को आईसीएआर/राज्य कृषि विश्वविद्यालयों को भेजा जाए ताकि मिनीकिट और फ्रंट लाइन डिमॉन्स्ट्रेशन के लिए बीजों का उत्पादन हो। इससे पांच साल के भीतर जारी की गई नई फसल प्रजातियों को प्रोत्साहन मिलेगा साथ ही किसान भी अधिक उत्पादन करने में सक्षम हों सकेंगे।
4. जब कृषि राज्य सूची का विषय है तो फसल खराब होने पर फसल उत्पादों की ऊंची कीमतों के लिए राज्य केंद्र को दोषी क्यों ठहराते हैं। इसका व्यावहारिक समाधान यह हो सकता है कि देश की कुल खाद्यान्न जरूरतों के हिसाब से एनुअल बैलेंस क्रॉप प्लान बनाया जाए। यह प्लान हर फसल के लिए बने और जिसे नीति आयोग की मंजूरी भी मिले। इसके बाद इसे अलग-अलग राज्यों को आवंटित कर दिया जाए जिसके लिए बजट में वित्तीय सहयोग की व्यवस्था हो।
5. किसी भी स्थिति में किसी भी राज्य में फसल उत्पादन अपनी सुविधा के अनुसार महज खानापूर्ति के लिए न किया जाए। बल्कि इसके लिए एक लक्ष्योन्नमुख योजना हो जो स्थानीय स्तर पर अहम जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो। अगर कोई राज्य विपरीत वातावरणीय स्थितियों की वजह से किसी खास फसल की लाभकर खेती करने में सक्षम नहीं है तो केंद्र सरकार को उसकी मदद करनी चाहिए।
अब समय आ गया है कि व्यवस्था में ऐसे बदलाव किए जाएं जिससे किसान समृद्ध हों और मौसम परिवर्तन के विपरीत हालात में भी उत्पादन बढ़ाने में कामयाब हो सकें।
(डॉ. एम. एस. बसु आईसीएआर गुजरात के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)