प्राइमरी स्कूल पहले जुलाई में खुलते थे और जून के महीने में अगले सत्र की तैयारी होती थी। अचानक अब अप्रैल में खुलने लगे लेकिन किताबें बच्चों के पास हैं नहीं, खेती का काम चल रहा है, स्कूलों में हाजिरी बहुत कम है, पढ़ाई का समय कभी 7 से 11 तो कभी 8 से 12 यानी 4 घन्टे की पढ़ाई, छुट्टियां कभी 31 मई से तो कभी 20 मई से और अब 14 मई से या फिर 7 मई से कुछ पता नहीं। आदेश अखबारों के सहारे चलते हैं और जहां अखबार नहीं जाते वे बच्चे दुविधा में रहते हैं। आखिर बिना तैयारी और बिना किताबों के स्कूलों का नया सत्र आरम्भ करने में क्या बुद्धिमानी है?
प्राइमरी शिक्षा की व्यवस्था देखने वाले लोग शेखचल्लिी की तरह नियम बनाते, बिगाड़ते और फिर उन्हीं को लागू करते हैं तो लगता है उन्हें सनक सवार है। पराधीन भारत में मैकाले को पता था कि उसे क्लर्क पैदा करने हैं यानी सही अंग्रेजी और हिन्दी लिखने वाले बाबू बनाने हैं। उसे वैज्ञानिक, इंजीनियर अथवा डाक्टर नहीं बनाने थे। आज जो लोग शिक्षा व्यवस्था चला रहे हैं उन्हें यह नहीं पता कि गाँवों के स्कूल और कालेजों के माध्यम से क्लर्क भी तैयार हो पाएंगे अथवा नहीं। सरकार बदलने पर कुछ बदलना जरूरी है चाहे सुल्टा को उल्टा करना पड़े।
साल के 365 दिनों में से कितने दिन पढ़ाई होगी इसका हिसाब नहीं लगाते। महापुरुषों के जन्मदिन और मरण दिनों पर अवकाश होता है लेकिन कौन महापुरुष है यह पक्का नहीं। कभी काशीराम के जन्म और मृत्यु दोनों दिन अवकाश होगा तो कभी एक भी नहीं। अचानक परशुराम और हजरत अली के जन्मदिनों पर अवकाश होने लगते हैं और नागपंचमी की छुट्टी बन्द हो जाती है और फिर शुरू होती है। महापुरुषों की अदला-बदली तो सनक के अलावा कुछ नहीं। पहले सब मिलाकर 30 छुट्टियां होती थी तो अब 54 कर दी गईं। पढ़ाई के लिए साल के आधे दिन भी नहीं मिलते। मैं पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत अब्दुल कलाम को सच्चा महापुरुष कहूंगा जिन्होंने कहा कि लोगों के जन्म और मृत्यु के दिनों पर अवकाश नहीं होने चाहिए।
अध्यापकों के मामले में अजीब हालत है। कभी तो बीएड वाले भी प्राइमरी में पढ़ा सकते हैं तो कभी केवल बीटीसी पढ़ाएंगे। टीईटी अनिवार्य है या नहीं इस पर भी समय-समय पर फरमान निकलते रहते है। लाखों की संख्या में अध्यापक रिटायर होते हैं परन्तु उनकी स्थानापूर्ति शिक्षा मित्रों की नियुक्ति करके हुई। इन्हें प्रधानों द्वारा केवल 11 महीने के लिए भर्ती किया गया, बिना प्रशिक्षण और बिना डिग्री।
बाद में शिक्षामित्रों ने संगठन बना लिया वोट बैंक बन गया तो प्रशिक्षण दिला कर रेगुलर नौकरी की मांग कर दी और बात बन गई। स्कूल में जितनी कक्षाएं हों नियमतः उतने कमरे जरूरी हैं परन्तु सरकारी स्कूलों में पांच कक्षाओं का काम कभी दो या तीन कमरों में चलता है। कहीं-कहीं तो पांच कक्षाओं के लिए एक ही अध्यापक उपलब्ध है तो कहीं दो। प्राइमरी स्कूलों में ग्राम प्रधान की भूमिका है या नहीं यह प्रशासन की सनक पर निर्भर है।
कभी तो आदेश निकलता है कक्षा-5 की बोर्ड परीक्षा होगी तो कभी परीक्षा ही नहीं होगी। पहले कहा किसी को फेल नहीं किया जाएगा अब कहा फेल कर सकते हैं। पहले कहा अध्यापिकाएं बच्चों को घरों से लाएंगी, उन्हें नहलाएंगी और घर पहुंचाएंगी। मिड-डे मील कभी स्कूल में बनेगा तो कभी एजेंसी उपलब्ध कराएगी, कभी दूध या खीर या मेवा देने की बात होती है तो कहीं-कहीं राशन भी नहीं उपलब्ध रहता। सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर विश्वबैंक या अन्यत्र से मिले अथाह पैसे को खर्च कैसे करें चिंतन इसी पर होता है शिक्षा की गुणवत्ता पर नहीं।
किताबों में किन महापुरुषों के नाम पर पाठ होंगे, स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली यूनीफार्म का रंग क्या होगा, वजीफा बटेगा या नहीं यह सब शेखचिल्ली की तरह बदलता है। स्कूलों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के पद रिक्त होने पर आऊटसोर्सिंग द्वारा काम चलाना होगा। चतुर्थ ही क्यों तृतीय भी क्यों नहीं। स्कूल साफ रहना चाहिए परन्तु साफ कौन करेगा? प्राइमरी शिक्षा हमारी शिक्षा की बुनियाद है फिर भी शिक्षानीति के नाम से कुछ भी स्थायी नहीं है। यदि बुनियाद ही स्थायी नहीं तो इमारत का क्या हश्र होगा भगवान जाने।