भिखारी ठाकुर को लोगों ने देवता बना दिया है। देवता बनाने से व्यक्ति लोक से कट जाता है। भिखारी लोक-मर्मज्ञ थे। लोकमंच के पुरोधा थे। भोजपुरी रंगमंच के अग्रदूत व संस्कृति के क्रांतिदूत के रूप में उन्हें याद किया जाये। उन्हें याद करने का सबसे अच्छा तरीका लोक से जुड़कर ही पूरा किया जा सकता है। लोक से इतर भिखारी की कल्पना नहीं की जा सकती।
यह भिखारी ठाकुर का लोक कनेक्शन ही है कि उनकी मृत्यु के 53 साल बाद भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ दिन पर दिन ऊपर ही जा रहा है। भले ही उनका नाम भिखारी है, लेकिन आज भोजपुरी में उनसे अमीर आदमी कोई नहीं है। करोड़ो रुपये खर्च करके भी इस तरह की ब्रांडिंग संभव नहीं है। जिसे भोजपुरी का ‘भ’ या भिखारी का ‘भि’ भी नहीं पता, वह भी भिखारी ठाकुर की जय, भिखारी ठाकुर की जय .. जय जयकार कर रहा है। भिखारी ठाकुर ट्रेंडिंग में हैं। आप कह सकते हैं कि वह भोजपुरी के ‘दिवंगत ट्रेंडिंग स्टार’ हैं। भिखारी एक ‘नारा’ हो गए हैं, जबकि भिखारी एक ‘ विचार ’ हैं। चारो तरफ नारेबाजी है और भिखारी की लहर है। ऐसी लहर कि जिसे देखो, जहाँ देखो ‘भिखारी ठाकुर महोत्सव‘ कर रहा है। भिखारी ठाकुर के नाम पर थोक में अवॉर्ड बाँटे जा रहे हैं। ऐसे लोगों को भी अवॉर्ड दिया जा रहा है, जिनका कला-साहित्य-रंगमंच से कोई सरोकार नहीं है। जैसे हिन्दी में निराला के नाम पर ऐसे लोगों को भी अवॉर्ड दिया जाता है, जिनके जीवन या व्यक्तित्व-कृतित्व में कुछ भी निराला नहीं है। भिखारी ठाकुर परसादी हो गए हैं। क्या सरकारी, क्या गैर सरकारी अधिकांश संस्थाएं इसी ढंग के आयोजन में लगी हैं। कार्यक्रम में चार चाँद लगाने के लिए संगीत-सिनेमा के स्टार, सुपरस्टार, पॉवर स्टार, ट्रेंडिंग स्टार, जुबली स्टार इकठ्ठा होते हैं। ‘भिखारी ठाकुर सम्मान’ से सम्मानित होते हैं। भिखारी बाबा का गुणगान किया जाता है, उनकी प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाया जाता है, उनके आदर्शों की बात होती है और फिर गाना-बजाना होता है कि ‘’नीबू खरबूजा भइल’’, ‘’कमर डैमेज’’, ‘’ओढ़नी में कोड़नी’’ आदि-इत्यादि।
भिखारी ठाकुर ने तो कभी अश्लील नहीं गाया, लेकिन भोजपुरी में आज तक उनसे बड़ा कोई इंटरटेनर नहीं हुआ। यह बात भोजपुरी अल्बम और फिल्म इंडस्ट्री को क्यों नहीं समझ में आती है? भिखारी ठाकुर ने समाज की समस्याओं को अपने नाटकों का विषय बनाया और उन्हीं समस्याओं पर गीत रचे। और तब की भीड़ को आज के व्यूज के हिसाब से देखें तो दूर-दराज से लोग उनका नाटक देखने आते थे, खचाखच भीड़ होती थी। पैसे की बात करें तो सबकी औकात नहीं थी कि भिखारी ठाकुर की नाचमण्डली को हायर कर सकें। खूब दबाकर पैसा लेते थे भिखारी ठाकुर। अपनी शर्तों पर काम करते थे और आदर-सम्मान के साथ बुलाए जाते थे, हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के कई देशों में। लोकप्रियता ऐसी कि आम तो आम, खास लोग भी उनकी कला के मुरीद थे। तभी तो राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें ‘भोजपुरी का अनगढ़ हीरा’ कहा, अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा, डॉ. उदय नारायण तिवारी ने ‘ भोजपुरी का जनकवि ‘ तो जगदीश चन्द्र माथुर ने भरतमुनि की परंपरा का बताया। यहाँ तक कि अंग्रेजों ने राय बहादुर के खिताब से सम्मानित किया। भिखारी तब भी सम्मानित थे और आज भी सम्मानित हैं और दिन पर दिन उनकी ख्याति, उनका सम्मान बढ़ता ही जा रहा है। यह बात आज की भोजपुरी फिल्म व गीत-संगीत इंडस्ट्री के पल्ले क्यों नहीं पड़ती? कंटेन्ट ही बोलता है। चाहे कितना भी व्यूज आ जाए, घटिया कंटेन्ट आपको आपके जीवन काल में ही मार देगा।
भिखारी ठाकुर इसलिए अमर हैं, इसलिए लोकप्रिय हैं, क्योंकि उन्होंने लोक की पीड़ा को महसूस किया और उसे गाया। नारी मन को तो उनसे बेहतर किसी ने आज तक समझा ही नहीं। बेटी बेचवा का गीत – ‘रूपिया गिनाई लिहलस, पगहा धराई दिहलस .. चेरिया के छेरिया बनवलस हो बाबूजी ‘ या बिदेसिया के बारहमासा में एक स्त्री के बारहो महीने और आठों पहर के दुख को जिस तरह से भिखारी ने पकड़ा है, वह किसी और के बस की बात नहीं है या ‘डगरिया जोहत ना हो डगरिया जोहत ना, बीतत बाटे आठ पहरिया हो डगरिया जोहत ना’ के हो हमरा जरिया में भिरवले बाटे अरिया हो, चकरिया दरी के ना, दुख में होता जँतसरिया हो, चकरिया दरी के ना .. गीत देखिए। भिखारी ठाकुर ने नारी मन को स्कैन किया और गीत बनाये। और हमारी अभी की फिल्म इंडस्ट्री नारी देह को स्कैन कर रही है और गीत बना रही है। भिखारी ठाकुर से सीखने की जरूरत है। वैसा होना दुर्लभ है। रंगमंच के क्षेत्र में भी वैसा कोई दूसरा नहीं हुआ। वह एक कंप्लीट पैकेज थे- एक साथ नाटककार, गीतकार, संगीतकार, निर्देशक, रिसर्चर, अभिनेता, सूत्रधार और इवेंट मैनेजर, टीम लीडर सब कुछ। इससे भी ज्यादा गहराई में उतरकर देखेगें तो वह आपको नवजागरण के पुरोधा के रूप में नजर आयेगें। नाटक या गीत लिखने से पहले यह समझना जरूरी है कि हमें किन विषयों पर लिखना है और उसका असर क्या होगा ! विषय का चुनाव और उसकी शानदार प्रस्तुति ने ही भिखारी ठाकुर को अमरत्व प्रदान किया है।
यहाँ दुखद है कि भिखारी ठाकुर को लोगों ने एक नचनिया-बजनिया या नौटंकी वाले के रूप में ज्यादा देखा, उनके नाटकों को मनोरंजन के लिहाज से ज्यादा पढ़ा। अगर उन्हें नवजागरण या पुनर्जागरण का पुरोधा मानकर पढ़ा-लिखा या मंचन किया जाए तो हम उनके साहित्य के मर्म को ज्यादा समझ पायेगें। भिखारी ठाकुर पढ़े नहीं थे, गढ़े थे जैसे कि संत कबीर। और इन दोनों लोगों के साहित्य को पढ़िए तो पता चलेगा कि ये सामयिक भी हैं और शाश्वत भी।
इधर कई वर्षों से गोष्ठियों और सेमिनारों में भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता को लेकर विमर्श होता रहा है। 17 दिसंबर 2024 को भी दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में बिदेसिया नाटक के मंचन के पूर्व इस विषय पर परिचर्चा आयोजित थी। वक्ता के रूप में मै भी आमंत्रित था। मैंने भिखारी के कई नाटकों का जिक्र करके उन्हें प्रासंगिक बताया। जैसे कि ‘बिदेसिया’ में प्रवास और पलायन की समस्या है, वह आज भी बरकरार है और लोग रोजी-रोजगार के लिए अपनी मातृभूमि से दूर जाने के लिए आज भी विवश हैं। ‘बेटी-बेचवा’ नाटक का जिक्र करते हुए कहा कि अब तो ‘बेटी-बेचवा’ के साथ ‘बेटा-बेचवा’ भी हैं। रिश्ते की बुनियाद में पैसा होगा तो अनमेल शादियाँ होगीं ही। सामान्य परिवार के बहुत सारे बाप योग्य और बड़े पद पर कार्यरत बेटे की शादी धन के लालच में ऐसी लड़की से कर देते हैं कि लड़के का जीवन ही बर्बाद हो जाता है। ‘पियवा निसइल’ में नशाखोरी की वजह से घर बर्बाद होने की बात है, वह समस्या आज भी बरकरार है। इसीलिए नशामुक्ति केंद्र बढ़ते जा रहे हैं। आज सेरोगेसी और डीएनए टेस्ट की बात हो रही है, ‘गबरघिचोर’ में बेटा किसका है, इसी समस्या पर पूरा नाटक है। ‘गंगा स्नान’ ढोंगी साधु की कहानी है। आज भी ढोंगी-पाखंडी बाबाओं की कमी नहीं है और आज भी वह भोले-भाले मासूम लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं। ‘भाई-विरोध’ में कुटनी की वजह से संयुक्त परिवार के टूटने का जिक्र है, तो आज भी परिवार टूट ही रहा है, बल्कि पहले से ज्यादा। इसलिए निःसंदेह भिखारी ठाकुर आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन प्रासंगिक होना हर हाल में कोई अच्छी बात नहीं है। जो बीमारी, जो समस्या सौ-डेढ़ सौ साल पहले थी, वह आज भी बरकरार है तो कौन सी अच्छी बात है? मै तो ईश्वर से प्रार्थना करूँगा कि इन समस्याओं का अंत हो और भिखारी अप्रासंगिक हो जाएँ।
‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे’ .. यह कोई उत्सव का गीत नहीं है। यह प्रवास की पीड़ा और पलायन का दर्द है। इसी साल छठ पर मेरा भी एक गीत रिलीज हुआ, इसी पीड़ा से उपजा हुआ। गीत के बोल हैं – जागे यूपी बिहार। भिखारी ठाकुर की पावन स्मृति को नमन करते हुए वह गीत आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ –
छुट्टी खातिर कहिया ले अर्जी लगइबस / कहिया ले जोड़बस तू हाथ
कहिया ले रेलिया रहि इहाँ बैरन / कहिया मिली सुख के साथ
छठी मइया दिहीं ना असीसिया जागे यूपी-बिहार
भटके ना बने-बने लोगवा, मिले गाँवे रोजगार
रोटी के टुकड़ा के जिनगी रखैल / रहि-रहि के हँकरत बा कोल्हू के बैल
दुनिया के स्वर्ग बनवलें बिहारी / काहे अपने धरती प भइलें भिखारी?
चमकल मॉरीशस, दिल्ली, बंबे / चमके अपनों दुआर, चमके यूपी-बिहार
अँगना में माई उचारेली कउवा / कब अइहें बबुआ पुकारेली नउवा
नोकरी के चक्कर में का-का बिलाता / बंजर भइल जाता सब रिश्ता-नाता
माई संगे ठेकुआ बनाईं / माई हमके धरे अँकवार
गँउआ के धरती पड़ल बाटे परती / ओही जी उगाईं सोना-चानी
ओही जी बनाईं अब महल-अटारी, जहाँ बाटे टूटही पलानी
केतना सिखवलस कोरोनवा, सुनीं गाँव के पुकार
जब मै नौकरी करने लंदन गया था, तब भी ऐसा ही एक गीत लिखा था –
बदरी के छतिया के चीरत जहजवा से अइली फ़िरंगिया के गाँवे हो संघतिया
लंदन से लिखतानी पतिया पहुंचला के अइली फ़िरंगिया के गाँवे हो संघतिया
कहने का मतलब यह है कि हम अपने समय को रचते हैं, अपनी पीड़ा को गाते हैं। दर्द जब राग बन जाता है तो जीवन गीत बन जाता है और कुछ आसान हो जाता है। बात जब आत्मा से सलीके से निकलती है तो कला, साहित्य या सिनेमा केवल आईना नहीं होता, वह परिस्थितियों को ठीक करने के लिए हथौड़ा बन जाता है, हथियार बन जाता है। भिखारी ठाकुर का पूरा साहित्य वैसा ही है। उनकी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि उनके साहित्य का, उनके नाटकों का, उनके गीतों का हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो और भिखारी ठाकुर सब तक पहुँचें। … वर्ना वह सिर्फ एक नाम, एक नारा बनकर रह जाएँगे, जबकि वह एक विचार हैं।
( लेखक मनोज भावुक भोजपुरी जंक्शन पत्रिका के संपादक, सुप्रसिद्ध कवि और फिल्म-कला समीक्षक हैं। )