मैंने 2005 से 2008 तक उत्तर प्रदेश के कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य में काम किया है। तराई में काम करना मुझे हमेशा से लुभाता रहा है। यहां के जंगल साल के वृक्षों से भरे पड़े है। और वहीं दूसरी ओर ये जगह भव्य और करिश्माई स्थलीय और जलीय जानवरों का घर भी है।
हालांकि सींग वाले गैंडे (इन्हें से फिर से लाया गया) और वॉटर बफैलो घास के इन मैदानों, आर्द्रभूमि और जंगलों के मोजेक में कहीं गुम हो गए थे। लेकिन आज ये तराई क्षेत्र बाघों, एशियाई हाथियों, तेंदुओं, भेड़ियों, फिशिंग कैट, हिरणों की पांच किस्म, घड़ियाल, ऊदबिलाव, गंगा डॉल्फिन जैसी कई लुप्तप्राय प्रजातियों और लगभग 450 तरह के पक्षियों का घर है। ये सब मिलकर एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं।
तराई का समृद्ध इलाका
तराई के इस इलाके में कलकल करती आकर्षक नदी, ऑक्सबो झीलें और बाढ़ के बाद बची हुई जलोढ़ मिट्टी और रेतीली दोमट मिट्टी शीशम, सेमल और खैर के पेड़ों के उगने में खासी मददगार है। सेमल के यहां-वहां खड़े लंबे पेड़ मुझे हमेशा से अपनी ओर खींचते रहे हैं। खासकर तब, जब वे बसंत के मौसम में लाल रसीले फूलों से लद जाते हैं।
सेमल के पेड़ ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में आसानी से बढ़ते चले जाते हैं। अपनी इस भागदौड़ भरी जिंदगी में, उन्हें सुनहरे पीले से चमकीले लाल रंग में बदलते देखना मेरे लिए हमेशा से सुकुन भरा रहा है।
प्राकृतिक रूप से कृषि क्षेत्रों में उगाया जाने वाला ये पेड़, किसान के लिए आय का एक अतिरिक्त जरिया बन चुका है। इसकी नरम लकड़ी विनियर और प्लाईवुड बनाने के काम आती है। हालांकि, मुझे यह समझने में कुछ समय लग गया कि सेमल के पेड़ इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के सामाजिक और जातीय जीवन के साथ कितनी निकटता से जुड़े हुए हैं।
मेरे जहन में आज भी सेमारी मलमाला नाम के उस गांव की यादें हैं, जहां से खैर, शीशम और सागौन की लकड़ियों की एक बड़ी खेप ले जाई जा रही थी। एक जाने-माने और राजनीतिक रसूख रखने वाले व्यक्ति ने गांव में अपना फार्म हाउस बनाया हुआ था। उसने वहां धर्मपुर और मुर्तिहा जंगलों के आसपास के जंगलों से अवैध रूप से कटी हुई लकड़ी के लगभग 20 ट्रक जमा कर रखे थे। इस व्यक्ति का अवैध कटाई, अतिक्रमण के साथ-साथ वन अधिकारियों पर कृषि वानिकी उत्पाद के रूप में जंगलों से अवैध रूप से काटी गई लकड़ी के परिवहन के लिए ट्रांजिट परमिट प्रदान करने के लिए दबाव बनाने का आपराधिक इतिहास रहा था।
सेमारी मलमाला गांव एक धारा के किनारे बसा था, जिसे स्थानीय रूप से भगहर के नाम से जाना जाता था। भगहर का मतलब है एक बचा हुआ जल निकाय जो वास्तव में एक ऑक्सबो झील थी। भगहर शब्द अवधी भाषा की बजाय भोजपुरी के ज्यादा नजदीक लगता है, जो क्षेत्र की मूल भाषा है। भगहर के तट पर एक और गांव था सेमरी घाट।
कतर्नियाघाट में अपने कार्यकाल के बाद, मैं भारत सरकार की सेवा में शामिल हो गया। अब इस क्षेत्र में कभी-कभार आधिकारिक यात्राओं पर ही मेरा आना होता था। धीरे-धीरे मेरा इस क्षेत्र से संपर्क टूट गया।
सेमल के नाम पर गांवों का नाम
लेकिन करीब एक दशक बाद मुझे फिर से इस क्षेत्र में काम करने का मौका मिला। मैं उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर के पद पर तैनात था। इस बार मैं सेमारी, सेमारी बाजार, सेमारी पुरवा, और सेमरहना जैसे नाम वाले गांवों और बाजारों के बीच से होते हुए गुजर रहा था।
तब मैंने भारत-नेपाल सीमा और आसपास के क्षेत्रों के लोगों के सामाजिक-जातीय जीवन में सेमल के पेड़ के महत्व को जाना।
यह सेमल के पेड़ ही थे जिनके नाम पर सेमारी मलमाला और सेमारी घटही जैसे गांवों के नाम रखे गए। ‘मलमाला’ शब्द पेड़ के बीजों से मिलने वाले रेशों की गुणवत्ता को बताते है, जो मलमल कॉटन (रूई) की तरह होते हैं। ‘घटही’ शब्द घाट से निकला है, जिसका मतलब है नदी का किनारा।
सेमल भारत समेत दक्षिण एशियाई क्षेत्रों में पाया जाता है। वास्तव में, सेमल का वर्गीकरण सामान्य और वैज्ञानिक नाम मालाबार सिल्क कॉटन (सलमालिया मालाबारिका) से शुरू हुआ था। सल्मालिया और सेमल शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द शाल्मली और शिम्बल से हुई है। ये एक बहुत बड़ा पेड़ है जिसके पत्ते झड़ते रहते हैं। इसकी नुकीले भूरे रंग की छाल है। मजबूत शाखाओं पर खिले बड़े, रसीले लाल रंग के फूल कुछ समय बाद बड़े बीज की फली में बदल जाते हैं। और जब ये फली पककर फटती हैं तो इसके अंदर से बीज निकलते हैं। उन बीजों से रूई या कपास मिलती है।
दिल्ली और जयपुर जैसे महानगरों में भी सेमल के काफी पेड़ हैं, जो मार्च-अप्रैल में अपने खिले लाल रंग के फूलों की छटा बिखेरते नजर आ जाएंगे।
गौर करने वाली बात ये कि सेमल (बॉम्बैक्स सेइबा) के पेड़ कपोक पेड़ (सीबा पेंटेंड्रा) से बहुत अलग हैं। जबकि वे बहुत समान दिखते हैं। इन दोनों पेड़ों का संबंध एक ही परिवार मालवेसी से है। कपोक के पेड़ मध्य-दक्षिण अमेरिका और पश्चिम अफ्रीका में मूल रूप से पाए जाते हैं।
बहुत काम का है सेमल
महाद्वीपों में रहने वाले समुदाय इस पेड़ का इस्तेमाल पारंपरिक दवाओं, डोंगी बनाने, रंग बनाने, संगीत वाद्ययंत्र और खिलौने बनाने में करते हैं।
सेमल के गोंद का खाया जाता है और इसका काफी औषधीय महत्व है। पेड़ के अधपके फलों से खांसी, शक्तिवर्धक और मूत्रवर्धक दवाईयां बनाई जाती हैं। कोमल जड़ों के अर्क का उपयोग दस्त के इलाज के लिए किया जाता है। मैंने तो यह भी सुना है कि केरल में सेमल के पेड़ के सूखे, गिरे हुए अंडाशय को हर्बल और औषधीय में भी इस्तेमाल किया जा रहा है।
सेमल की कलियों को पूर्वी उत्तर प्रदेश में धेपा और रोहिलखंड में सेमर गुल्ला भी कहा जाता है। वहां इनसे स्थानीय व्यंजनों बनाए जाते हैं। भव्य दिखने वाले सेमल के ये पेड़ 50 मीटर से अधिक ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं। साल या महुआ जैसे पेड़ों की तुलना में देखा जाए तो इसकी मजबूत शाखा और सघन तना इसे फेमिनिन लुक देती नजर आती हैं।
सेमल पेड़ लोककथाओं से भी जुड़े हुए हैं। राजस्थान में भील जनजाति का एक कबीला इसे एक पवित्र प्रतीक मानता है। उनके अनुसार ये उन्हें सुरक्षा देता है। देश के कई हिस्सों में खासकर उत्तर-पश्चिम इलाकों में सेमल को होलिका दहन और इसी तरह के अनुष्ठानों में इस्तेमाल किया जाता है। यह भी माना जाता है कि मणिपुर में मीटी समुदाय का एक कबीला पारंपरिक उपयोग के लिए पेड़ का संरक्षण करता है। भारत के आदिवासी क्षेत्रों में कई लोक गीत ऐसे हैं जो सेमल के पेड़ को समर्पित हैं।
सेमल, बसंत और होली
होली के दिनों में सेमल के लाल फूलों से रंग बनाना मुझे आज भी याद है। इससे निकलने वाली रूई को तकियों में भर दिया जाता था। खिले हुए सेमल को उत्तर भारत में बसंत का आगमन माना जाता है। फरवरी के आसपास इन पेड़ों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। फरवरी के अंत तक, पेड़ अपने पत्ते गिरा देते हैं, लेकिन इनकी शाखाएं फूलों की कलियों से भरे होते हैं। मार्च की शुरुआत में पेड़ बड़े और लाल रंग के फूलों का मुकुट पहने नजर आने लगते हैं। इनकी छटा देखते ही बनती है।
जैसे ही पेड़ों पर फुलों का खिलना शुरू होता है, बारबेट्स, मैना, बुलबुल, पैराकेट्स, हॉर्नबिल्स और ट्री पाई जैसे पक्षी इन पर चहचहाने लगते हैं। नेक्टर से लबालब ये फूल बड़ी संख्या में सन बर्ड्स और मधुमक्खियों को भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं। फ्रुजीवोरस चमगादड़ों का दिखना भी आम हो जाता है। ये चमगादड़ पेड़ों पर लंबे समय तक समय बिताने लगते हैं।
गिद्ध जैसे शिकारी पक्षी भी तराई क्षेत्र में सेमल के पेड़ों पर घोंसला बनाते हैं। दिल्ली में ब्लैक काइट्स (चील) सेमल के पेड़ों पर अपना घोंसला बनाती हैं। लुटियंस दिल्ली में सड़कों पर कई पुराने पेड़ हैं। एक समय था जब इंडिया गेट के पास बीकानेर हाउस एनेक्सी के फर्श पर मार्च-अप्रैल के महीनों में सेमल के फूलों का कालीन बिछ जाया करता था।
ग्रामीण और शहरी इलाकों में सेमल आसानी से और बहुतायत में बढ़ता है। इस भागदौड़ भरे जीवन में, सुनहरे पीले से चमकीले लाल रंग में बदलते देखना सुकुन भरा है। सेमल इस महीने फिर से फूलों से सज जाएंगे और हर उस व्यक्ति को अपनी सुंदरता का बखान करते नजर आएंगे, जिसके पास उन्हें निहारने और तारीफ करने का समय होगा।
(रमेश पांडेय भारतीय वन सेवा के सदस्य हैं और उन्हें 2019 में UNEP एशिया पर्यावरण प्रवर्तन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं। )