तेलंगाना में गुंटूर का रहने वाला दलित समाज का रोहित जो शोध छात्र था हैदराबाद विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया था, उसने आत्महत्या कर ली। यह साधारण बात नहीं है परन्तु इस घटना को बलिदान अथवा शहादत नहीं कहना चाहिए। इसका दुष्परिणाम हो सकता है। दूसरे नौजवानों को लग सकता है कि शहादत ऐसी ही होती है। समाज को जीने की राह बताने की क्षमता रखने वाला था उसने संसार त्याग दिया इसलिए कि यह रहने लायक नहीं रहा। संसार को ठीक करने के प्रयास में लगे हुए व्यक्ति की जान चली जाए जैसे गणेश शंकर विद्यार्थी की, तो शहादत कही जाती है।
शहादत कहें या न कहें, यह तो सत्य है कि कोई आदमी अपनी जान साधारण परिस्थितियों में नहीं देता। चाहे वह किसान की आत्महत्या हो, किसी दलित की, महिला की या अन्य बेसहारा की। अन्तर इतना ही है कि दलित की बात जल्दी और दूर तक फैलती है। लेकिन यदि किसी सुदामा ने आत्महत्या की हो तो उसकी बात पर भी ध्यान होना ही चाहिए। साथ ही अन्याय और अत्याचार में भेद करना चाहिए।
बहुतों को याद होगा 1977 का जमाना जब इन्दिरा गांधी आपातकाल के बाद सत्ता से बाहर थीं,
गुजरात के मोरारजी भाई देश के प्रधानमंत्री थे और बिहार के बेल्ची में पिछड़ी जाति के लोगों ने करीब एक दर्जन भूमिहीन दलितों को जिन्दा जला दिया था। इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर बेल्ची गई थीं और कालान्तर में जनता पार्टी से हुकूमत वापस ले ली थीं। अब के नेताओं को लगता होगा कि अब भी गुजराती प्रधानमंत्री है और वे भी सत्ता से बाहर हैं। दलित रोहित ने मौका दिया तो है लेकिन तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है, नहीं बदला है तो दलित कार्ड का खेल।
उन दिनों टीवी की दुन्दुभि नहीं बजती थी लेकिन अखबारों और साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं में खूब फोटो छपे थे। हमारे नेताओं को याद रखना चाहिए कि रोहित पढ़ा लिखा रिसर्च स्कालर था, उसके साथ अत्याचार नहीं अन्याय हुआ था। अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा था तो नेता लोग दुखान्त की बाट जोह रहे थे कि घटना घटे और झपट्टा मारें। यदि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद अन्याय कर रही थी तो एनएसयूआई ने रोहित का साथ क्यों नहीं दिया। लेकिन इस घटना के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा जैसे बेल्ची में कुछ नहीं बदला।
पश्चिम बंगाल के माल्दा मेें किसी तिवारी ने ईशनिन्दा की थी। इसके विरोध में हजारों मुसलमानों ने जो तांडव किया उसका भी कोई औचित्य नहीं था। ईशनिन्दा के अन्तर्गत हमारे देश में फांसी का प्रावधान नहीं है तब ऐसी मांग से क्या हासिल होगा। संविधान के प्रावधान के अनुसार जो सजा तिवारी को मिलनी चाहिए वह मिलेगी। लेकिन जिस तरह दलित कार्ड खेला जाता है उसी तरह नेताओं द्वारा मुस्लिम कार्ड भी खेला जाता है। वास्तव में इन सभी घटनाओं को सम्पूर्णता में देखना चाहिए और देश की शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार करके समाज की मनोदशा ठीक करनी चाहिए।
रोहित का दुखान्तक प्रकरण इसलिए हुआ कि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कम और राजनीति अधिक होती है और वहां के हॅास्टल इस राजनीति के केन्द्र बन गए हैं। सभी दलों के छात्र संगठन बने हैं एबीवीपी, एनएसयूआई, आइसा, समाजवादी युवजन सभा आदि। रोहित इसी छात्र राजनीति का शिकार हुआ। इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि वह अनुसूचित जाति का था, पिछड़ी जाति का, हिन्दू था या धर्मान्तरित मुसलमान, मेमन की फांसी का विरोध किया था या समर्थन, विद्यार्थी परिषद वालों को उसने मारा था या नहीं।
मूल प्रश्न हैै कि, छात्रावास में राजनैतिक गतिविधियां कब बन्द होंगी। पूर्व चुनाव आयुक्त लिंगदोह ने छात्र राजनीति को लेकर अनेक सुझाव दिए थे उन्हें लागू करने का किसी सरकार में दम नहीं है। वर्तमान हालात में न तो शिक्षा में गुणवत्ता आएगी और न समाज की मानसिकता बदलेगी। राजनेता अपनी रोटियां सेंकते रहेंंगे, कभी दलित कार्ड खेलकर तो कभी अल्पसंख्यकों के नाम पर। समाधान सरकार को ही खोजना होगा।
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