दिल्ली में धरने और प्रदर्शन का ठिकाना जन्तर-मंतर से हटाकर रामलीला मैदान किए जाने के बाद यह पहला बड़ा जुटान रहा। देश भर से यहां आए किसानों में महिलाओं ने भी खासी बड़ी तादाद में भागीदारी की। संसद मार्ग पर ‘किसान मुक्ति संसद’ के आयोजन का समय और जगह तय करते वक्त नेताओं के ज़ेहन में यक़ीनन संसद का शीतकालीन सत्र था। इरादा यह था कि संसद के बाहर किसान और अन्दर किसानों के पक्ष में खड़े सांसद उनकी मुश्किलों पर सरकार से सवाल करेंगे। मगर संसद का सत्र स्थगित होने से ऐसी नौबत ही नहीं आई।
देश भर से दिल्ली में इकट्ठा किसानों की बोली-भाषा-तहज़ीब ज़रूर अलग है, भौगोलिक भिन्नता की वजह से उनकी मुश्किलों की शक्लें अलग हैं मगर एक दुश्वारी है, जो उन्हें एकसूत्र करती है और वो यह है कि उनकी कोई सुनने वाला नहीं। उनकी बेहतरी के क़ायदे-कानून बनाने की ज़िम्मेदारी जिन पर है, उनकी संवेदनशीलता के किसान नमूने अक्सर देखते रहे हैं। फसलों की बर्बादी, लागत से भी कम दाम, कर्ज़ का बढ़ता बोझ, ख़ुदकुशी के बढ़ते मामले, बेहताशा मंहगाई के बीच भी किसान किसी तरह की सांत्वना के हक़दार भी नहीं बन सके हैं। दिल्ली आकर अपनी बात कह पाने भर ने उन्हें यह संतोष दिया है कि वह अपने हिस्से का जतन कर सके।
बनारस के बावन बिगहा से आए एक सौ दो किसान हों, महाराष्ट्र के तीन जिलों से जुटीं वे सत्तर महिलाएं जिनके पति या पुत्र ने खुदकुशी कर ली, नंदूरबार से आए वे कुछ सौ आदिवासी जो अभी तक खेती की ज़मीन पर अपने अधिकार की बाट जोह रहे हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों से आए गन्ना किसान, मध्य प्रदेश में सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र वाले गाँवों से विस्थापित हुए सैकड़ों ग्रामीण, पश्चिम बंगाल, झारखंड, असम, गुजरात, पंजाब और राजस्थान समेत दूसरे सूबों से जुटे हजारों-हजार लोग लम्बा सफ़र तय करके सिर्फ़ इस संतोष के साथ लौटे हैं कि आख़िरकार उन्हें यह मौक़ा मिला कि वह अपना दुखड़ा वहां सुना सके, सुना है कि जहां बोलने पर सरकार भी सुनती है।
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संसद तो मौन है मगर ‘किसान मुक्ति संसद’ ने कल वह बिल पेश किया, जिसमें किसानों के सभी तरह के कर्जे माफ करने और कृषि उपज के लाभकारी मूल्य की गारंटी का वायदा है। यह बिल इस प्रत्याशा में पेश हुआ कि संसद में इस मुद्दे पर विचार होगा और सरकार इस बिल को अमली जामा पहनाने की दिशा में काम करेगी। हालांकि लागत का ड्योढ़े दाम यानी स्वामीनाथन कमेटी की एक सिफारिश के बारे में सरकार पहले ही सुप्रीम कोर्ट को लिखकर दे चुकी है कि यह सिफारिश लागू करना संभव नहीं है। और सरकारी सूचना तंत्र और संवेदनशीलता का हाल यह है कि रामलीला मैदान में किसानों के ठहरने के लिए दी गई सरकारी इजाजत पिछली रात को वापस ले ली गई। नेताओं के दख़ल पर ही यह इजाजत मिल सकी।