राजनीतिक दल कीचड़ से सनते दिखाई दे रहे हैं

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समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं शिवपाल यादव और बलराम यादव की पहल पर कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय किया, बगैर इस बात की चिन्ता किए कि कौमी एकता दल का मुखिया अपराधिक कारणों से जेल में है और दागी है। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की इससे छवि धूमिल होगी। जब डीपी यादव को टिकट देने से इनकार किया था तो जनता में बहुत अच्छा सन्देश गया था। अब चूंकि कानून व्यवस्था गड़बड़ है इसलिए मुख्तार अंसारी का पार्टी में आना महंगा पड़ेगा।

मथुरा में रामवृक्ष यादव ने, जो किसी समय जय गुरुदेव के अभियान का अंग रहे थे, मथुरा में उत्पात मचाया और उसके साथियों ने दो पुलिस अधिकारियों को पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया। उनके साथ शिवपाल यादव के सम्बन्ध का आरोप समाजवादी पार्टी पर बदनामी के छींटे लगा गया। कैराना जहां 80 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की बताई जाती है, वहां से बाहुबलियों के डर से हिंदुओं का पलायन गहरे दाग लगा गया। अखिलेश यादव के शुभचिंतक भी पशोपेश में पड़ रहे हैं।

बहुजन समाज पार्टी के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विरोधी दल स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती पर अनेक आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी है। स्वामी प्रसाद मौर्य का कहना है कि बहन जी टिकट बेचती और नीलाम करती हैं, वह अम्बेडकर और कांशीराम के सिद्धान्तों से दूर हट गई हैं वगैरह। ये आरोप नए नहीं हैं और स्वामी प्रसाद इनके साथ वर्षों से जीते रहे हैं तो क्या यह सच है कि स्वामी जिन लोगों को टिकट दिलवाना चाहते थे दिलवा नहीं पाए, जैसा मायावती ने संकेत किया है।  

भारतीय जनता पार्टी में बिहार के आरजेडी नेता रामकृपाल यादव और उसके पहले बिहार के ही रामविलास पासवान जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के कारण एनडीए छोड़ा था, वापस आए। ऐसे मेहमानों से चुनाव में जीत भले ही मिल जाए परन्तु पार्टी के सिद्धान्तों का क्षरण होता है। कर्नाटक में रामुलू और रेड्डी बन्धुओं सहित उन तमाम नेताओं को भाजपा ने वापस लिया जिनसे दूरी बनाने का प्रयास किया गया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि भाजपा ने अटल जी के अनुभव का लाभ नहीं उठाया। आज हालात यह हैं कि सभी दलों के अनेक पुराने नेता अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में जा रहे हैं। कांग्रेस के जगदम्बिका पाल हों या असम में असम गणपरिषद के अनेक नेता और तमिलनाडु में एमडीएमके सहित अनेक दल भाजपा के साथ आए हैं। वर्ष 1999 से 2004 के बीच अटल जी ने 17 दलों की मिली-जुली सरकार चलाई थी, अंजाम अब इतिहास बन चुका है। नए चेहरों के लालच में पुराने कर्मठ कार्यकर्ताओं को नजरअन्दाज किया गया तो दूरगामी परिणाम होंगे। 

एक बार अटल जी ने कहा था कम्बल नहीं छोड़ता लेकिन अब इस पार्टी के लोग अपने सिद्धान्तों का कम्बल उतारने में देर नहीं लगाते। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश के सकलेचा, कर्नाटक के बीएस येदिदुरप्पा, गुजरात के शंकर सिंह बाघेला, उत्तरांचल के हरक सिंह रावत और अब बच्ची सिंह रावत इसके कुछेक उदाहरण हैं। अपने अहंकार और परिवारहित के लिए राजनेता अपनी पार्टियां छोड़ते हैं और देशहित, समाजहित या फिर अन्तरात्मा की आवाज का बहाना बताते हुए फिर जुड़ते हैं।

यदि कोई नेता चुनाव क्षेत्र का सौदा करके, मंत्रिपद के लोभ में अथवा अपने लोगों को समायोजित करने के लिए किसी दल में शामिल होता है तो ऐसी अवसरवादिता को प्रोत्साहन देश और समाज के हित में नहीं हो सकता। जब 1967 में संविद सरकारें बनी थीं तो सेकुलरवादियों और राष्ट्रवादियों दोनों ने अपने अपने सैद्धान्तित चोगा उतार दिए थे। दूसरी बार 1977 में फिर इतिहास ने अपने को दोहराया और जनता पार्टी में राष्ट्रवाद, समाजवाद और कुछ हद तक साम्यवाद भी विलीन हो गए लेकिन बाद में क्या हुआ सभी जानते हैं। जितना जरूरी है पार्टियों को भ्रष्टाचार मुक्त करना उससे अधिक जरूरी है उन्हें अवसरवादिता मुक्त करना।

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