क्या इंसान अपने अस्तित्व को ख़त्म करने की तैयारी कर रहा है?

जो बायोलॉजिकल आँकड़े आ रहे हैं, उसके हिसाब से एक दिन मानव जाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है। घटती हुई प्रजनन क्षमता के कारण आबादी घटने की आशंका हो या फिर दूसरे जनसंख्या विस्फोट का डर, दोनों ही परिस्थितियाँ भयावह है। उससे बचने का एक ही उपाय, “भारतीय जीवन दर्शन” और “जीवन शैली” को अपनाने का तरीका है।

एक समय था जब आबादी के बढ़ने की चिन्ता मानव जाति में हो रही थी लेकिन अब अचानक प्रजनन क्षमता घटने की चिन्ता हो रही है। आबादी का घटना या बढ़ना मनुष्य के अपने कर्म फल पर निर्भर करता है। पहले महाभारत के समय तथा विश्व युद्ध के समय घटी थी और आजकल मध्य पूर्व में और दूसरे युद्ध क्षेत्र में घट रही है। आबादी घटने का एक कारण, समय-समय पर आने वाली महामारी का भी होता है, लेकिन उसका सन्तुलन प्रकृति स्वयं बनती है परन्तु जब मनुष्य गाय-भैंसों का दूध निकालने के लिए इन्जेक्शन लगाता है तो शायद उसे नहीं पता कि उस दूध का सेवन करने वालों की प्रजनन क्षमता घटती है। इसका दूसरा परिणाम यह भी हुआ है कि मरे दुधारू जानवरों का मांस खाने वाले गिद्ध समाप्त हो चुके हैं और दूसरी कुछ प्रजातियाँ भी विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिनके लिए भी शायद मनुष्य ही जिम्मेदार होगा। पृथ्वी पर जीवन आया और फिर धीरे-धीरे एक कोशिका से बहुकोशीय और सूक्ष्म जीवों से विशालकाय तथा अन्त में मनुष्य तक विकसित होता गया और हमारे यहाँ तो कहा गया है ‘’ लख चौरासी में भरमावा, अन्त काल मानुष तन पावा’ लेकिन अब इस प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचने के बाद यह चिन्ता होना कि आबादी घट सकती है, यह स्वाभाविक है और सत्य भी है।

अपने विनाश और आबादी के घटने के लिए स्वयं मनुष्य और उसके कर्म जिम्मेदार रहते हैं। बहुत समय पहले दुर्योधन को भगवान कृष्ण भी सद्बुद्धि नहीं दे पाए और वह पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी जमीन देने को तैयार नहीं हुआ और महाभारत के युद्ध में हजारो लोग मारे गए। कालान्तर में मनुष्य ने अपनी मौत का सामान खुद ही जुटाना शुरू किया और औद्योगिक क्रान्ति के नाम से ऐसे-ऐसे आविष्कार किये गए जो आज अपना रौद्र रूप दिखा रहे हैं, सोचिए मुट्ठी भर लोग जैसे हिटलर मसोलिनी, स्टालिन चर्चिल रूजवेल्ट और उनके तमाम साथी इस बात के जिम्मेदार हैं कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में दुनिया भर से बहादुर लोगों की आबादी कम हो गई। वस्तुतः द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम स्वरुप नागासाकी और हिरोशिमा का विध्वंश भी शामिल है, जो अणु शक्ति का परिणाम बन गया।

ऑस्ट्रेलिया के कैनबरा विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर ए. एल. बासम ने अपनी पुस्तक ‘वन्डर दैट वाज इंडिया’ में लिखा है कि भारत के लोग सातवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के दरवाजे पर खड़े थे लेकिन उन्होंने औद्योगिक क्रान्ति नहीं लिया और आध्यात्मिक मार्ग पकड़ा। आज दुनिया में जब हम एक तरफ जेलंस्की और उसके सामने ब्लादमीर पुतिन का विध्वंशकारी रौद्र रूप देखते हैं या मध्य पूर्व में देश के देश मिटते जा रहे हैं तो सोचना ही पड़ता है कि भारत के ऋषियों ने अणुशक्ति के बजाय अध्यात्म का रास्ता चुना वह सनातन सद्बुद्धि का प्रमाण है। मनुष्य ने अपने हाथों में मौत का सामान इतनी मात्रा में इकट्ठा कर लिया है, कि वह कुछ ही पलों में कयामत जैसी हालत सारी दुनिया में ला सकता है। हम देखते हैं कि ‘जीव विकास’ की श्रृंखला में विकसित होते हुए मनुष्य ने, विकास का सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया है और यदि अपना सर्वनाश खुद ना करे तो उसे कोई समाप्त नहीं कर सकता। लेकिन पशु-पक्षी तो विवश हैं लेकिन मनुष्यों के क्रिया-कलापों के परिणाम स्वरुप कितनी ही प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। हमें गिद्ध देखने को नहीं मिलते, गौरैया आँगन में चहकती हुई नहीं दिखाई पड़ती और न जाने कितने जीव और वनस्पतियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं, तो फिर मनुष्य कोई अपवाद नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, उसके लिए भी मनुष्य कुछ हद तक जिम्मेदार है ।

हमें वैज्ञानिकों ने बताया कि आरम्भ में इस पृथ्वी पर कोई जीव नहीं था और बाद में सूक्ष्म जीव जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि पैदा हुए जो विकसित होकर के धीरे-धीरे लाखों वर्षों में बल्कि करोड़ों वर्षों में विकास की सिद्धि के शिखर पर मनुष्य के रूप में मौजूद हैं। आश्चर्य होता है कि वही सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव मनुष्य में तरह-तरह के रोग कभी मलेरिया, कभी प्लेग, तो कभी दूसरे रोगों के कारण बनते हैं और मानव जाति को क्षति पहुँचाते रहते हैं, मनुष्य उन सूक्ष्म जीवों के लिए कभी तो वैक्सीन बनाता है और कभी बनाने में देर लगती है। इस तरह बीमारियों के फैलने से भी मानव जीव की आबादी घटती रहती है यदि इसी प्रकार नई-नई बीमारियाँ फैलती गई, तो यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव, विकसित जीव के विनाश का कारण बन सकते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनभावगत जी ने जो बात कही है, वह साधारण लोग सोच नहीं पा रहे हैं, वह तो जनसंख्या विस्फोट के विचार तक ही सीमित थे मगर उन्होंने एक नई सोच दी है जिस पर हमें विचार करना चाहिए। उन्होंने हिन्दुवों की आबादी बढ़ने या घटने की बात नहीं कही है या मुसलमान की आबादी बढ़ने की बात भी नहीं कही है उन्होंने मानव प्रजाति की घटती आबादी की बात की है, जो एक प्राकृतिक सत्य भी है और जो स्वयं मनुष्य के कर्मों का फल भी है। मानव जाति एक समय जनसंख्या विस्फोट के कगार पर खड़ी थी, ऐसा लग रहा था और वह भी कम भयावह स्थित नहीं है, जब मानव के लिए जनसंख्या विस्फोट की आशंका मानव जाति को हो रही थी तो अनेक प्रकार के उपाय जैसे “कम सन्तान सुखी इन्सान’’ या फिर हम “दो हमारे दो’’ या “बच्चे दो ही अच्छे” वगैरा वगैरा, लेकिन वह दौर गुजर गया और अब नई सोच के हिसाब से जो आज बायोलॉजिकल आँकड़े आ रहे हैं, उसके हिसाब से तो एक दिन मानव जाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है। तो फिर चाहे घटती हुई प्रजनन क्षमता के कारण आबादी घटने की आशंका हो या फिर दूसरे जनसंख्या विस्फोट का डर, दोनों ही परिस्थितियाँ भयावह है। उससे बचने का एक ही उपाय; “भारतीय जीवन दर्शन” और “जीवन शैली” को अपनाने का तरीका है। भारतीय जीवन शैली जो “जीवेम शरदः शतम” की बात करती है, वह स्वास्थ्य के साथ-साथ आयु बढ़ाने की भी बात करती है जो कि अतिवादी नहीं है, लेकिन वर्तमान पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण; हमारे खान-पान, रहन-सहन और जीवन के दूसरे विविध आयाम विनाशकारी रास्ते पर ले जा रहे हैं। यदि हम एक सुरक्षित मार्ग पर चलते हुए आगे बढ़ने का रास्ता ना खोज पाए तो फिर भविष्य का क्या होगा? कहा नहीं जा सकता।

कई बार प्राकृतिक विपदाओं के कारण सामाजिक और स्थानीय स्तर पर जीवन का विनाश होता है जिसके लिए मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं होता। अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और यहाँ तक कि भारत में भी समय-समय पर ऐसी विपदाएं आई और चली गयीं, लेकिन कई बार जो महामारी का रूप धारण करने वाले कीटाणु, जीवाणु, वायरस, फफूंद और अलग-अलग न जाने कितने प्रकार के सूक्ष्म जीव मनुष्य के क्रियाकलापों का परिणाम भी होते हैं। बिस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं, लेकिन बहुत बार अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य कुछ काम करता है और इसका दुष्परिणाम भोगता भी है। पुराने समय में भारत में सनातन मूल्यों को लेकर चलने वालों को बीमारियाँ कम होती थी और अब तो गाँव में भी कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ फैल रही हैं। खानपान, जीवन शैली और अनियमित जीवन की दिनचर्या के कारण हम कल्पना नहीं कर सकते, पुराने समय में 100 साल तक जीना असामान्य नहीं होता था। एक तरफ है जनसंख्या विस्फोट और भुखमरी से मर जाने का डर, तो दूसरी तरफ है प्रजनन क्षमता का धीरे-धीरे घटना और प्रजाति के विलुप्त हो जाने का डर, दोनों में से एक भी अच्छा नहीं है। बचने का विकल्प है; सनातन मूल्य और जीवन शैली पर आधारित जीवन चर्या तो सन्तुलित जनसंख्या अपने आप बनी रहेगी।

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