समाचार आ रहे हैं कि रावलपिण्डी में सेना के जनरल्स ने मीटिंग बुलाई जिसमें वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और उनके मंत्रियों की शिरकत हुई। यदि यह सही है तो भारत के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। यदि सेना ने पाकिस्तान की कमान अपने हाथ में ले ली तो हुकूमत अकेले सेना की नहीं आतंकवादियों की होगी। कहने की जरूरत नहीं, हमारे पड़ोस में दूसरा सीरिया तैयार होगा जहां रूस और अमेरिका दोनों ही गोले दागेंगे।
नरेन्द्र मोदी की कूटनीति के कारण पाकिस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ता जा रहा है, यहां तक कि मुस्लिम देशों के साथ भी भारत के सम्बन्ध पाकिस्तान से बेहतर बन रहे हैं। चीन के अलावा कोई दूसरा पाकिस्तान का मित्र नहीं है और चीन इसकी कीमत लेगा, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। ऐसे हालात में आतंकवादियों के हाथ में बिना मांगे परमाणु शक्ति आ जाएगी। भारत के विचारकों ने सोचना आरम्भ कर दिया होगा।
वर्तमान भारत और पाकिस्तान का जन्म लड़ते-झगड़ते ही हुआ था। भारत ने अपना सेकुलरवादी प्रजातांत्रिक संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया और संसदीय लोकतंत्र की मजबूती से राह पकड़ी। भारत में जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने थे और भारतीय प्रजातंत्र में सेना ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। भारत में प्रधानमंत्री भी सुरक्षित रहा और प्रजातंत्र भी। इसके विपरीत पाकिस्तान में लियाकत अली खान प्रधानमंत्री बने और 1951 में उन्हें कत्ल कर दिया गया। हिंसा ने पाकिस्तान को प्रजातंत्र के रास्ते पर जाने से रोक दिया। पाकिस्तान का निर्माण मजहब के आधार पर हिंसा की राह चलकर हुआ था। उसके दो भाग थे पश्चिमी पाकिस्तान जो अब पाकिस्तान है और पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांगलादेश है। मजहब उन दोनों भागों को बांधकर नहीं रख सका। प्रजातंत्र के अभाव में और तानाशाही और सैनिक शासन के चलते वहां सेकुलर व्यवस्था के विषय में सोचा ही नहीं गया। प्रजातंत्र के द्वारा दूसरे धर्मों के प्रति थोड़ी सहनशीलता, कुछ सब्र और फैसले के लिए इन्तजार करना आ जाता है।
भारत और पाकिस्तान के लोग एक ही धरती पर पले बढ़े थे परन्तु उनकी मानसिकता में एक मौलिक अन्तर है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ते समय भी भारतवासियों में हजारों साल पुरानी अहिंसा की मानसिकता समाप्त नहीं होने दी। भारत के नेताओं ने और सेना ने भी अपनी सीमाएं समझते हुए एक दूसरे के प्रति सहनशीलता बरती। इसके विपरीत जिन्ना ने हिंसा के रास्ते से पाकिस्तान को हासिल किया, जिसमें शामिल थे डाइरेक्ट ऐक्शन यानी सीधी कार्रवाई और डेलिवरेन्स डे का एलान और खूनी तांडव। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी पुरानी भावना गई नहीं। जिन दो लोगों ने 1970 में पाकिस्तान में प्रजातंत्र की नींव डालनी चाही उनमें पश्चिमी पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो और पूर्वी पाकिस्तान के शेख मुजीबुर रहमान थे। उन दोनों का दुखद अन्त हुआ। और भारत में यदि 1975 के इन्दिरा गांधी के आपातकाल का धब्बा छोड़ दिया जाए तो यहां प्रजातंत्र बेदाग रहा है। सत्ता परिवर्तन के बावजूद विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों पर आम राय रही है। इसके विपरीत पाकिस्तान का अपना संविधान ही 1956 में बन पाया था। पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन का वही तरीका चलता रहा जो भारत में मुगलकाल में चलता था। पाकिस्तान और भारत कड़वाहट के साथ जीते रहे।
यदि पाकिस्तान में परिपक्व प्रजातंत्र होता तो कम से कम 1965 का युद्ध नहीं होता। इक्कीसवीं सदी में एक मौका फिर आया जब कड़वाहट भुलाकर भारत के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से शायराना अंदाज में लाहौर में मुलाकात की। बहुतों को उम्मीद बंधी थी कि पाकिस्तान में इस बार प्रजातंत्र जीवित रहेगा।
उस समय पाकिस्तानी सेना को हमेशा की भांति दोनों देशों की बढ़ती दोस्ती पसन्द नहीं आई। मुशर्रफ ने कारगिल का युद्ध कराया, रिश्ते फिर बिगड़ गए। जब मुशर्रफ जेल में थे और नवाज शरीफ वहां के प्रधानमंत्री बने तो लगा कि प्रजातंत्र ने तानाशाही को सलाखों के पीछे कर लिया है। ऐसा हुआ नहीं और एक बार फिर अपने हाथ में कमान संभालने के लिए सेना छटपटा रही है।
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