यह प्रौद्योगिकी के प्रभुत्व का युग है। पारंपरिक तरीकों को बदलना पड़ रहा है। हर क्षेत्र में प्रबंधन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ रहा है। सरकारी कामकाज में तो अब आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल का कोई विरोध नहीं होता। लेकिन इस मामले में गैर सरकारी क्षेत्र जरूर पिछड़ा दिख रहा है। खासतौर पर स्वयंसेवी संस्थाएं आज भी अपना काम काज पारंपरिक तरीके से कर रही हैं। इनमें कुछ ऐसी हो सकती हैं जिनका रूझान ही परंपरावादी हो। लेकिन सामाजिक उद्यमिता में आ रहे युवाओं में आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी से परहेज़ नहीं दिखाई देता। बल्कि वे अपने काम में प्रबंधन प्रौद्यागिकी का इस्तेमाल चाहते भी है।
बेशक प्रबंधन की पेशेवर सेवाएं लेना खर्चीला काम है। आमतौर पर भारतीय स्वयं सेवी संस्थाएं सेवा भाव से ही सामाजिक कार्यों में लगी पाई जाती हैं। उन्हें न्यूनतम आर्थिक संसाधनों के लिए भी हर पल जूझना पड़ता है। ऐसी हालत में अपने क्षमता विकास के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था कर पाना उनके लिए दूर की बात है। सोचा जाएगा तो यह पास की बात भी बन सकती है। बहरहाल, स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रशिक्षण या कौशल विकास के बारे में क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए?
एनजीओ के महत्व पर सोच विचार
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में कोई भी सरकार हर काम निपटाने में खुद को सक्षम नहीं पाती। अपने लोकतंत्र में सामाजिक क्षेत्र बहुत से काम निपटाता आया है। देशभर में लाखों धर्मादा अस्पताल, विद्यालय, धर्मशालाएं बनाने का श्रेय इन्ही स्वयं सेवी संस्थाओं को जाता है। आज भी बहुत सी संस्थाएं उसी तरह काम करती दिखाई देती हैं।
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बहुत बड़ा है यह क्षेत्र
इस समय देश में करीब 32 लाख गैर सरकारी संस्थाएं हैं। अगर बिना पंजीकरण के काम करने वाले समुदाय आधारित संगठन यानी कम्युनिटी बेस्ड आर्गेनाईजेशन की संख्या भी इनमें जोड़ दें तो इस गैर सरकारी क्षेत्र का आकार बहुत बड़ा है। हालांकि ये अलग मसला है कि इनमें से कितनी संस्थाएं अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा कर पा रहीं हैं। हो सकता है कि वास्तविक रूप से सक्रिय संस्थाओं की संख्या बहुत कम हो। इसका एक बड़ा कारण है संसाधनों की कमी।
कई संस्थाएं और स्वयं सहायता समूह ऐसे हैं जो वाकई ज़मीन पर अच्छा काम कर रहे होते हैं लेकिन एक समय बाद संसाधन विपन्नता से उनके हाथ बंध जाते हैं। गैर सरकारी संस्थाओं के सामने दूसरी समस्या यह दिखाई देती है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, पानी, पर्यावरण जैसे जिस भी क्षेत्र में काम कर रही होती हैं उस क्षेत्र का न्यूनतम विशेषज्ञ ज्ञान उन्हें हासिल नहीं हो पाता। आर्थिक कारणों से वे अपनी संस्था में पेशेवर लोगों को रख भी नहीं सकते। इनके अलावा एक संगठन के सुचारू रूप से चलने के लिए जैसी प्रबंधन व्यवस्था चाहिए वह भी वे नहीं बना पातीं।
यह कमियां प्रशिक्षण कार्यक्रम या उस क्षेत्र के पेशेवर लोगों की तात्कालिक सेवाएं लेकर पूरी की जा सकती हैं। लेकिन इस समय ज़्यादातर संस्थाओं की हालत यह है कि वे अपने स्टाफ के खर्च उठाने लायक संसाधन भी नहीं जुटा पाते। ऐसा नहीं है कि इन गैर सरकारी संस्थाओं की मदद के लिए सरकारी और उद्योग जगत की तरफ से कोई कार्यक्रम नहीं बनाये गए हैं। लेकिन उन तक पहुँचने और उनसे आर्थिक मदद लेने के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया की जानकारी भी ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ताओं के पास नहीं है।
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आज उद्योग जगत सामाजिक क्षेत्र में निवेश करने के लिए उपयुक्त पात्रों को ढूंढता रहता है। सामाजिक कार्यों के लिए खर्च करना इन प्रतिष्ठानों के लिए कानूनी प्रतिबद्धता बनाई जा चुकी है। उन्हें अपने मुनाफे का एक हिस्सा सामाजिक कामों में लगाना ही पड़ता है। इसे कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी कहते हैं। इस नियम के पीछे का तर्क यह है कि आद्योगिक उद्यम से पर्यावरण और समाज को जो क्षति पहुंची है उसकी भरपाई के रूप में औद्योगिक संगठन एक प्रकार से यह भुगतान करें। कई बड़े कारोबारी अपनी नेक नीयती से भी सामाजिक कार्यों में दान करते हैं।
आजकल तो अलग से कुछ संगठन दान अनुदान देने के लिए बन गए हैं। इन संस्थाओं का मुख्य काम धन जुटाना ही है। और फिर छोटे गाँव कस्बों शहरों में काम करने वाली ज़रूरतमंद संस्थाओं का चुनाव करके वह पैसा देना है। लेकिन इन अनुदानों को पाने की भी एक प्रक्रिया है। किस संस्था को अनुदान दिया जाये इसका चुनाव कई आधार पर किया जाता है। इसके लिए उस संस्था के कार्यबल की योग्यता देखी जाती है, अनुभव देखा जाता है, कार्यबल में हर व्यक्ति की क्या भूमिका है यह भी देखा जाता है। प्रबंधन और संस्था के विभागों की जानकारी मांगी जाती है। और जिन कार्यक्रमों के लिए अनुदान चाहिए इसके लिए एक डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) यानी परियोजना की विस्तृत रूपरेखा मांगी जाती है। यही प्रक्रिया कई सरकारी योजनाओं के अंतर्गत मिलने वाले लाभ के लिए आवेदन करने के लिए भी है।
समस्या आवेदन की प्रक्रिया जानने भर की नहीं है। बहुभाषी देश में भाषा भी एक समस्या है। उद्योग जगत के कई बड़े प्रतिष्ठान सीएसआर के तहत आवेदन अंग्रेजी में ही लेना पसंद करते हैं। भाषा की गुत्थी सुलझा भी ली जाए तो तब अड़चन आ जाती है जब इस प्रकार की जानकारी मांगी जाती है जिसे प्रबंधक ही समझ सकते हैं। इस मामले में तो सरकार इन संस्थाओं को मदद पहुंचा ही सकती है। शुरूआती तौर पर सरकार कम से कम कुछ शोध अध्ययन तो करवा ही सकती है कि ऐसे अनुदानों तक स्वयं सेवी सस्थाओं की पहुंच न हो पाने के कारण क्या हैं? किसी भी स्तर पर हो, स्वयंसेवी संस्थाओं को डीपीआर बनाने का प्रशिक्षण दिलाने का काम तो ज्यादा सोच विचार के बिना ही किया जा सकता है।
कौन करे ये काम
लोकतांत्रिक सरकारे तो अपने सारे काम जन कल्याण के लिए ही करती हैं। इस लिहाज से अपनी सरकार सबसे बड़ी सामाजिक उद्यमी सिद्ध होती है। हर सरकार जरूरी काम के लिए वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन में सक्षम होती है। उसके लिए ये कौन सा बड़ा काम है कि वह सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का काम युद्ध स्तर पर शुरू करवा दे। सरकार के पास उसकी अपनी शिक्षण संस्थाए हैं और प्रौद्योगिकी संस्थाओं का बड़ा अमला भी उपलब्ध है।
देश की ज्यादातर आईआईटी में प्रबंधन अघ्ययन विभाग भी शुरू हो गए हैं। अगर सरकार को सामाजिक कार्यकताओं के प्रबंधन कौशल पर काम करना हो तो उसके लिए विशेष पाठ बनवाने के लिए सारे साधन पहले से मौजूद हैं। इन आईआईटी में विज्ञान के लगभग सभी विषयों के विभाग हैं। इधर सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली कइ स्वयंसेवी संस्थाएं ग्रामीण विकास, कृषि, जल प्रबंधन, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर काम कर रही हैं। लेकिन उनके पास इस क्षेत्र की न्यूनतम विशेषज्ञ जानकारी हासिल करने का मौका नहीं है। सरकार की पहल पर प्रशिक्षण की व्यवस्था हो तो बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।
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खुद स्वयंसेवी संस्थाएं भी कर सकती हैं यह काम
समाजिक क्षेत्र में एक नई और अच्छी प्रवृति दिखनी शुरू हुई है। बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं एनजीओ नेटवर्किंग के महत्व को समझने लगी हैं। खर्चे के कारण वे अपने लिए प्रशिक्षण का इंतजात भले न कर पाएं लेकिन कई संस्थाएं मिलकर अपने कौशल विकास के लिए छोटे छोटे प्रशिक्षण शिविर और कार्यशालाओं का आयोजन खुद भी कर सकती हैं। सरकार से अनुदान या उद्योग जगत से सीएसआर के तहत धन लेने के लिए अभी जिन बिचैलियों की जरूरत पड़ती है वह इसीलिए पड़ती है क्योंकि स्वयंसेवी संस्थाओं को यह पता नहीं होता कि लिखापढ़ी किस तरह करना है। बहरहाल, थोड़े से प्रशिक्षण से ये संस्थाएं यह क्षमता हासिल कर सकती हैं।
नोट- सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं।, ये उनके निजी विचार हैं।