डॉ. सूर्यकांत
महान चिकित्सक, राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी डॉ. बीसी रॉय के जन्म दिवस एक जुलाई को ” चिकित्सक दिवस ” के रूप मे मनाते हैं। वे एक प्रख्यात चिकित्सक, स्वतंत्रता सेनानी, सफल राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी के रूप में याद किये जाते हैं। उन्होंने पटना कालेनियेट से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कलकत्ता मेडिकल कालेज से मेडिकल ग्रेजुएट व इंग्लैंड से एमडी, एमआरसीपी, एफआरसीएस उत्तीर्ण की उसके बाद वर्ष 1911 में भारत वापस आये।
इसके पश्चात चिकित्सा शिक्षक के रूप में कलकत्ता मेडिकल कालेज, एनआरएस मेडिकल कालेज व आरजी कर मेडिकल कालेज में कार्य किया। वे मेडिकल कांउसिल आफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे। वे राजनीतिज्ञ के रूप में कलकत्ता के मेयर, विधायक व पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री भी रहे। वे मुख्यमंत्री रहते हुए भी प्रतिदिन निशुल्क रोगियों को भी देखते थे। उन्हें 4 फरवरी 1961 को भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गयी।
एक समय था जब मरीज व उसके परिजन डाक्टरों को भगवान का दर्जा देते थे। वो श्रद्धा, सम्मान और उससे भी बड़ी बात वो अटूट भरोसा, कहां चला गया। अगर हम गहराई में जाकर देखें तो यह परिवर्तन व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में दिखता है और सामाजिक, व्यवसायिक के बदलते स्वरूप में भी शिक्षा आधुनीकरण और भूमण्डलीकरण ने समाज को नये रूप में ढ़ाला है। चिकित्सा सेवा भी अब सेवाएं नहीं रही, सर्विसेज हो गई हैं, प्रोफेशनल सर्विसेज, जिसमें तकनीकी सुघढ़ता और कौशल तो बढ़ा है, लेकिन नैतिक दायित्वबोध और गरिमा निश्चित तौर पर अपने पुराने रूप से बदतर हो गयी है।
व्यावसायिकता हावी हो चुकी है। पहले चुनिन्दा डाक्टर दूर-दूर तक अपने नाम और कौशल की अच्छाइयों के लिये जाने जाते थे। अब डाक्टर नहीं कारपोरेट, अस्पतालों, स्पेशलाइजेशन और सुपर-स्पेशलाइजेशन का दौर है। समाज, डाक्टरों को ईश्वर के रूप में नहीं देखता बल्कि उसे लगता है कि ज्यादातर चिकित्सक येन केन प्रकारेण इलाज के दौरान धन के दोहन में लगे रहते हैं। दवा, सर्जरी और जांचे सब में उसे कमाई के अनैतिक स्त्रोत दिखते हैं। सन्देह का चश्मा हमेशा ही मरीज की आंखों पर रहता है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि सब डाक्टर दूध के धूले हैं, लेकिन सबको एक ही नजर से देखने की बदली सामाजिक प्रवृत्ति ने मरीज और चिकित्सकों के बीच सदियों से स्थापित श्रद्धा और विश्वास की नींव को जड़ से हिला कर रख दिया है। पुराने समय में मरीजों और परिजनों का ये भरोसा भी डाक्टरों को नैतिक दायित्वबोध और उचित निर्णय लेने के लिए आवश्यक आत्मबल प्रदान करता था, जोकि उसके काम की सबसे बड़ी जरूरत थी और बेशक आज भी है।
निजीकरण और व्यवसायीकरण के इस युग में पूंजी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। इसके फायदे कम हुए हैं, नुकसान ज्यादा। पूंजी बढ़ने से तकनीकि और आधारभूत ढांचे में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। गांवों और कस्बों में पेड़ के नीचे खाट और बदहाल अस्पतालों में इलाज का दौर से अब सेवेन स्टार होटल नुमा अस्पतालों तक आ पहुंचा है। इससे जहां एक ओर इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है तो वही दूसरी ओर खर्चे भी बढ़े हैं।
इन बेतहासा बढ़े खर्चों का अर्थशास्त्र भी डाक्टरों से मरीजों के सम्बन्धों का मनोविज्ञान और मानसिकता बदल रहा है। जब मरीज की हालत गंभीर हो और धैर्य और सहनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत हो, मरीजों और चिकित्सकों के बीच स्थापित मर्यादा और सद्व्यवहार की लक्ष्मण रेखा आसानी से और अक्सर ही ध्वस्त हो जाती है। कारणों की तह में जायें तो एक तथ्य यह भी सामने आता है कि दस-दस साल चिकित्सा शास्त्र के हर गूढ़ और गहन तथ्यों को समझने-बूझने में लगे डाक्टरों को मरीजों से उचित तरह से सम्वाद करने के लिये बिल्कुल भी प्रशिक्षित नहीं किया जाता।
एक बड़ा कारण जो डाक्टर-रोगी के रिश्तों को प्रभावित करता है वो है डाक्टरों की कमी। 2018 की नेशनल हैल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति 11,082 जनसंख्या पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक (1,000 जनसंख्या पर एक चिकित्सक) से 10 गुना कम है। डाक्टरों की यह कमी यूपी व बिहार में और भी ज्यादा है। हाल ही में प्रकाशित स्वास्थ्य मानकों की रिपोर्ट भी यही दर्शाती है कि यूपी व बिहार काफी नीचे हैं। काम के बोझ से जुडे़ तनाव तो इस सेवा का हिस्सा बन ही चुके हैं। इन दोनों छोरों पर भी बड़े सुधार की तत्काल आवश्यक्ता है।
एक अन्य कारण जो चिकित्सक रोगी के संबंधों को बिगाड़ रहा है, वह है समाज में बढ़ती उग्रता। आज रोगी के परिजनों को लगता है कि सिफारिश कराकर या धौंस दिखाकर रोगी का अच्छा उपचार कराया जा सकता है। जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में लोग आए दिन करते रहते हैं। इस सोच के कारण चिकित्सक रोगी का उपचार करे या समाज के बढ़ते उग्र स्वरूप से स्वयं की रक्षा करे या अपनी क्लीनिक या अस्पताल के शीशे टूटने से बचाए, यह भी एक विकराल समस्या कुछ वर्षों से बड़ी तेजी से उभरी है।
किसी रोगी की यदि उपचार के दौरान मृत्यु हो जाए तो तुरन्त आरोप लगता है कि डाक्टर की लापरवाही से मरीज की मृत्यु हो गई। जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी चिकित्सक क्यों चाहेगा कि उसके मरीज की मृत्यु हो जाए या वह ठीक न हो। प्रत्येक चिकित्सक अपने ज्ञान व जानकारी से रोगी को ठीक करने की कोशिश करता है, जीवन या मृत्यु चिकित्सक के वश में नहीं अपितु ईश्वर के हाथ में है, इस बात का ध्यान समाज को सदैव रखना चाहिए। अतः मरीजों और उनके परिजनों को भी अपने रवैये में सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा। डाक्टरों से उनके रिश्ते पूरी तरह से व्यवसायिक हो फिर भी उसमें आत्मीयता, मानवीयता और परस्पर सम्मान का होना नितान्त आवश्यक है।
भारतीय चिकित्सा शास्त्र के महान मनीषी चरक ने क्या खूब कहा था कि मरीज चिकित्सक को चिकित्सा सेवा या परामर्श के बदले धन दे सकता है, धन न हो तो कोई उपहार दे सकता है। ये भी न हो सके तो वह उसके कौशल का प्रचार कर उसके उपकार से निवृत्त हो सकता है। अगर कोई मरीज ऐसा करने में भी अक्षम हो तो वह ईश्वर से उस चिकित्सक के कल्याण की प्रार्थना करे। इस भाव और मानसिकता का मूल चिकित्सक और रोगी दोनों को समझना होगा, क्योंकि उनका आपसी रिश्ता और सम्मान की भावना इस पुनीत और महान चिकित्सा व्यवस्था की नींव है और इस व्यवस्था पर करोड़ों मरीजों की सेहत और जिंदगी टिकी है।
(लेखक केजीएमयू, लखनऊ,यूपी के रेस्पाइरेटरी मेडिसिन विभाग में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हैं)