लोकसभा चुनाव 2019 में मोदी को भारी बहुमत मिला है और देश को उनसे उतनी ही बड़ी अपेक्षाएं हैं। यदि खरे न उतरे तो इंदिरा गांधी का पाकिस्तान विजय के बाद 1972 में, आपातकाल के बाद मोरार जी को 1977 में और इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को 1984 में मिले प्रचंड बहुमत का हाल हम पहलेे ही देख चुके हैं। विपक्ष ने नासमझी में चुनाव को मोदी केन्द्रित बनाकर उन्हें एकमात्र नेता बना दिया जैसा सत्तर के दशक में इन्दिरा गांधी को तब के विपक्ष ने बनाया था। तब दोष दिया गया उड़नशील स्याही को और अब दोषी है ईवीएम मशीन। अहंकार में डूबे़ विपक्षी नेता चुनाव में वैसे ही साबित हुए जैसे शिव का धनुष तोड़ने बड़े-बड़े योद्धा राजा जनक के दरबार में आए थे।
इंदिरा गांधी के समय जब केन्द्रीय सरकार कमजोर पड़ी थी तो क्षेत्रीय नेताओं का वर्चस्व कायम हो गया था। चौधरी देवी लाल, चन्द्रभानु गुप्त, मोहन लाल सुखाड़िया, निजलिंगप्पा, रामचन्द्रन, एन टी रामाराव, बीजू पटनायक, सदोबा पाटिल जैसे अनेकों छत्रप तैयार हो गए थे। अब केन्द्र सबल हो जाएगा तो क्षेत्रवाद भी समाप्त हो जाएगा। चुनाव बाद चन्द्रबाबू नाइडू ने जो कवायद शुरू की है वह चुनाव के पहले होनी चाहिए थी। ईमानदार प्रयासों से दो पार्टी सिस्टम का जन्म हो सकता है।
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विपक्षी दलों के सामने अवसर है एक अखिल भारतीय विपक्षी पार्टी खड़़ी करने का। इसके लिए चाहिए होगा मोदी की नीतियों का वैकल्पिक दस्तावेज, एक सर्वमान्य नेता, अखिल भारतीय संगठन, पार्टी की प्रामाणिक टीम। बाकी बचा झंडा, चुनाव निशान और कार्यालय जो बनते रहेंगे। मोदी विरोधियों को अपने को जनप्रिय सांसद साबित करना होगा केवल कहने से भूचाल नहीं आएगा सरकार को निरुत्तर करना होगा।
प्रभावी सांसद साबित करने का मौका आया है, अकेला सांसद भी बहुत कुछ कर सकता है। राहुल गांधी के दादा जी फीरोज जहांगीर गांधी ने नेहरू सरकार को अकेले दम डालमिया प्रकरण और मूंधड़ा कांड के माध्यम से भ्रष्टचार पर घुटनों पर ला दिया था, नेहरू के वित मंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा था।
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प्रचंड बहुमत के बाद मोदी पर पार्टी अथवा संघ का अंकुश घटेगा और यदि विपक्ष विषाक्त भाषा का प्रयोग करता रहा तो शासन आक्रामक हो सकता है जैसे इंदिरा गांधी हो गई थीं और आपातकाल लगा दिया था। साथ ही सरकारी पक्ष को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह विजय गोरक्षकों, छुट्टा गायों, बूचड़चाने हटाने या साधुओं की हुंकार, मुस्लिम विरोध या राष्ट्रवाद ने दिलाई है। यदि ऐसा भ्रम रहा तो उग्र हिन्दुत्व का उदय हो सकता है।
मोदी विजय के मूल में विकास है जो मोदी ने गुजरात और दिल्ली में भ्रष्टाचार विहीन काम करके प्रमाणित किया है। दूसरे नेताओं ने अभी तक जातियों के विविध जोड़ तोड़ बनाकर चुनाव जीता है लेकिन मोदी ने सेकुलर अधिकार पर सब का साथ, सब का विकास की कल्पना की है। जब दुनिया में रंगभेद और नस्लभेद महत्वहीन हो चुके हैं तो भारत में भी जाति, धर्म तथा क्षेत्रवाद का अस्तित्व बचेगा नहीं। उत्तर प्रदेश में जाति आधारित दलों का मेल हुआ लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला है। साधु सन्तों के सहारे राजनीति नहीं होगी, वे तो दिग्विजय सिंह के प्रचार में भी लग जाते हैं।
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पश्चिम बंगाल क्रान्तिकारियों की धरती है, उन्होंने पहले कांग्रेस को उखाड़ फेंका था और साम्यवादियों को अपनाया था। उसी अंदाज में साम्यवादियों को निर्मूल करके ममता बनर्जी को स्वीकारा था और अब ममता के अहंकार को सबक सिखाने का मन बना लिया है। भाजपा की अग्नि परीक्षा होगी त्रिपुरा के बाद पश्चिम बंगाल और अन्त में केरल में अपने पैर जमाने की। समय के साथ साम्यवादी और समाजवादी दल एक होने ही पड़ेंगे। स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए दो पार्टी सिस्टम की दिशा में कदम बढ़ेंगे जब उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी जैसी छोटी छोटी पार्टियां अप्रासंगिक हो जाएंगी।
आर्थिक आधार पर मोदी की नीतियों का विकल्प क्या होगा इसका उत्तर विपक्ष को खोजना होगा। जब सारी दुनिया खुली अर्थ व्यवस्था की ओर बढ़ रही है तो भारत अपवाद नहीं हो सकता। साम्यवादियों को अपनी दुकान बढ़ाकर समाजवादियों से मिलना तर्कसंगत होगा। भारत की जनता सिद्धान्तों पर आधारित स्थायी गठबंधन पसंद करती है, फुदक्का राजनेता कबूल नहीं जो इधर से उधर जाते रहते हैं। यदि मायावती और अखिलेश यादव का स्थायी गठबंधन बना रहा तो नई सम्भावना लाएगा। और यदि मुस्लिम समाज की नाराजगी के बावजूद मोदी की जीत नेहरूवियन सामाजिक मॉडल का अंत होगा और देशवासियों का एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उदय होगा।