नलिन चौहान
इस महीने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) की दिल्ली इकाई के कन्जरवेशन एजूकेशन सेंटर (सीईसी) ने दिल्ली में पहली बार तितली विशेषज्ञों को राजधानी और उसकी आसपास के क्षेत्रों में तितलियों की विभिन्न प्रजातियों की संख्या के आंकड़ों की उपयुक्त जानकारी देने के उद्देश्य से तितली की गणना के लिए सितंबर में असोला भाटी वन्यजीव अभ्यारण्य में तितली माह का आयोजन किया है।
इसके तहत राजधानी में 16 सितंबर तक ‘तितली परिसर गणना’ और 17 सितंबर के बाद यमुना जैव विविधता पार्क, अरावली जैव विविधता पार्क, जेएनयू परिसर, संजय वन, ओखला पक्षी अभयारण्य और कमला नेहरू रिज सहित 15 से अधिक स्थानों पर ‘तितलियों की गणना’ होगी। हर सुबह 8 बजे से दोपहर के समय 23 दल तितलियों की गणना करेंगे।
तितली दुनिया की सबसे खूबसूरत और आकर्षक जीव है, जिसे दुनियाभर में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। तितली, कीट वर्ग का ऐसा प्राणी है, जो विश्व में सब जगह पाई जाती है। यह बहुत सुन्दर तथा आकर्षक होती है। तितली एकलिंगी प्राणी है अर्थात नर व मादा अलग-अलग होते हैं। तितली का जीवनकाल बहुत छोटा होता है। ये ठोस भोजन नहीं खातीं, हालांकि कुछ तितलियां फूलों का रस पीती हैं। तितलियों का भी अपना इलाका होता है और अगर उनके इलाके में किसी दूसरे इलाके की तितलियां आ जाएं तो वह उन्हें दूर भगा देती हैं।
आधुनिक ज्ञान इस बात को मान्यता देता है कि तितलियों और मौसम विज्ञान में स्पष्ट रूप से एक ब्रह्मांडीय संबंध माना जा सकता है। मौसम प्रणालियों की अंतर्निहित जटिलता को बताने के लिए कैओस थ्योरी में बहुधा बटरफ्लाई इफेक्ट का उपयोग किया जाता है। सरल शब्दों में तितलियां जलवायु परिवर्तन का सबसे अच्छी संकेतक हैं।
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दुनियाभर में तितलियों की 18,000 से ज्यादा प्रजातियां हैं जबकि भारत में सुदूर हिमालय से लेकर थार के रेगिस्तान और घास के मैदानों वाले विविध स्थानों में तितलियों की 1500 से अधिक प्रजातियां मिलती हैं। पूरे ब्रिटेन में जहाँ तितलियों की 47 प्रजातियां हैं वहीं अकेले दिल्ली में तितलियों की 80 से अधिक प्रजातियां पायी जाती हैं। लेकिन यह आंकड़ा पुराना है, जिसके नई तितली गणना के बाद और बढ़ने की उम्मीद है।
टॉर्बेन बी. लार्सन के वर्ष 2002 में छपे अध्ययन में दिल्ली में पाई जाने वाली तितलियों की 86 प्रजातियों बताई गई थी। संसार भर में टॉर्बेन को तितलियों की खोजकर्ताओं का अगुआ माना जाता है और उनके कृतित्व से परिचित कोई भी व्यक्ति इससे इंकार नहीं करेगा। डेनमार्क के नागरिक लार्सन के बचपन का काफी समय भारत में बीता, जहां उनमें तितलियों के लिए जुनून पैदा हुआ। धीरे-धीरे यह जुनून उनके औपचारिक पेशे, जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सांख्यिकी विद्वान का था, पर भारी पड़ गया। उनका जन्म 12 जनवरी 1944 को डेनमार्क के कोपेनहेगन के जेजेर्बोर्ग में हुआ। वर्ष 1951 में, उनका परिवार भारत आ गया, जहां लार्सन के पिता यूनिसेफ में कार्यरत थे। इस तरह वे 1954 तक नई दिल्ली में रहे।
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लार्सन की किताब “हैजर्ड्स ऑफ बटरफ्लाई कलेक्टिंग” (2003), जो कि अब एक क्लॉसिक बन चुकी है, में उनके अपने जीवन की भी एक संक्षिप्त झांकी दिखती है। यह पुस्तक अर्ध-आत्मकथात्मक है क्योंकि इसके आरंभिक अध्यायों में डेनमार्क में टॉर्बेन के बचपन का वर्णन हैं तो फिर किशोरावस्था में भूमध्यसागर और भारत की यात्राओं तथा अमेजॅन और हिमालय जैसे स्थानों की अद्भुत यात्राओं का वृतांत। वे अपनी किताब में लिखते हैं कि यहां आने के एकदम बाद हमारे होटल (पुरानी दिल्ली इलाके के सिविल लाइंस का मेडेंस होटल) के बगीचे में मौजूद कई तितलियों की सुंदरता ने जीवन भर के लिए मेरा संबंध उनसे जोड़ दिया। मैंने 1951 के बाद केवल लंदन में दफ्तर को छोड़कर शायद ही कभी तितली को पकड़ने वाले जाल को हाथ लगाया था।
वे कहते हैं कि 1954 में मुझे दक्षिण भारत में नीलगिरि पहाड़ों में बसे ऊटी से लगभग 20 किमी दूर कोटागिरी में स्थित एक डेनिश मिशनरी स्कूल में भेज दिया गया। उसके करीब 25 साल बाद, तितली प्रवासन पर दुनिया के अग्रणी
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विशेषज्ञ डॉ. सीबी विलियम्स ने मुझे तब नीलगिरी में बिताए समय के अपने रिकॉर्ड, स्मृतियों, नोट्स और पत्रों पर आधारित एक शोध पत्र लिखने के लिए मजबूर किया। 1958 में, मुझे डेनमार्क के बोर्डिंग स्कूल में जाना पड़ा, जहां मैंने चार साल में अपना हाई स्कूल डिप्लोमा हासिल किया। ऐसे में भारत में छुट्टियों को छोड़कर मेरा तितलियों से कोई खास नाता नहीं रहा।
भारत में तितली और अपने जीवन के बारे में लार्सन बताते हैं कि 1984 में, जब मैंने दोबारा भारत में नई दिल्ली के डीएनआईडीएई की हेल्थ केयर यूनिट के समन्वयक के रूप में पदभार संभाला। यहां मेरे दो साल के अनुबंध के अंत
में, मैंने दक्षिण भारत के नीलगिरी पहाड़ों में बिताए अपने बचपन के दिनों के स्थानों पर छह महीने बिताए। इस दौरान मैंने वहां की तितलियों का सर्वेक्षण किया और उसके निष्कर्षों को प्रकाशित किया। दिसंबर 1984 में, मैंने कोपेनहेगन विश्वविद्यालय से मध्य पूर्व की तितलियों और उनका पारिस्थितिकी और जैव-भौगोलिक महत्व के विषय पर शोध प्रबंध लिखकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
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तितली की पहचान करना एक जटिल विज्ञान है तो उससे संबंधित सूचना को एकत्र करके दस्तावेज का रूप देना, एक लंबी और श्रमसाध्य प्रक्रिया है। भारत में तितलियों के अध्ययन का काम यानी औपचारिक शोध अंग्रेजों के आने के बाद ही शुरू हुआ। यही ऐतिहासिक कारण है कि तितलियों के नाम कमांडर, कमोडोर, सैलर, कैप्टन, मेजर और सार्जेंट हैं।
दिल्ली में तितलियों पर 1943, 1967 और 1971 में भी शोध कार्य हो चुके हैं। जेएनयू के जीव विज्ञानी तितलियों और पतंगों में विशेषज्ञ डॉ सूर्य प्रकाश ने अपनी दस साल (2003-2013) के अनुसंधान के बाद बताया कि रेड पियरोट, कॉमन जे, कॉमन बैरन, इंडियन टोर्टोसेसेल्ल, कॉंनजोइन्ड स्विफ्ट और कॉमन ब्लूबॉटल यानी तितलियों की छह नई प्रजातियां भी दिल्ली के तितली संसार का अभिन्न हिस्सा है। हालांकि राजधानी में तितलियों की अधिक
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उपस्थिति दिखने के बावजूद अभी तक कोई आधिकारिक रिपोर्ट छपी नहीं है। राजधानी में बारिश के बाद तितलियों की उपस्थिति न केवल संख्या में बल्कि विविधता में भी बढ़ जाती है। पूरे साल में खासकर मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्तूबर माह के दौरान इनकी अच्छी संख्या देखने को मिलती है।
वर्ष 2013 में अरवली जैव विविधता पार्क में तितलियों की लगभग 95 प्रजातियां और यमुना जैव विविधता उद्यान में करीब 70 प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की गई थी। जबकि आसोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में तितलियों 80 से अधिक प्रजातियां है। नई दिल्ली नगर पालिका परिषद ने 2009 में लोदी गार्डन में तितलियों के लिए विशेष रूप से एक संरक्षक क्षेत्र बनाया था।
‘बर्ड्ज एंड बटरफ्लाइज ऑफ दिल्ली’ में मेहरान जैदी ने राजधानी की 24 तितलियों का सचित्र ब्यौरा दिया है। जो कि कॉमन ब्लूबॉटल, कॉमन कास्टर, कॉमन सेरूलियन, कॉमन क्रो, कॉमन ग्रास येलो, कॉमन गुल, कॉमन इवनिंग ब्राउन, कॉमन इमिग्रेंट, कॉमन प्योरॉट, कॉमन मॉर्मन, कॉमन वाँडरर, डेनियड एगफ्लाई, ग्रास ज्वेल, इंडियन कैबेज व्हाइट, लाइम बटर फ्लाई, पीकॉक पेंसी, प्लेन टाइगर, पायनियर, सॉलमन अरब, स्ट्रिपेड टाइगर, येलो ऑरेंज टिप, येलो पैंसी, व्हाइट ऑरेंज टिप है। हिंदी में भारतीय तितलियों पर पहली संदर्भ पुस्तक “भारत की तितलियां” भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के डॉ आरके वार्ष्णेय ने लिखी है।
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यह एक आम धारणा है कि तितलियां अपने भोजन के लिए केवल फूलों पर निर्भर है। जबकि सच यह है कि तितलियों गली हुई लकड़ी, मृत पशु और यहां तक कि गोबर से भी अपना खाना पाती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के सब्जी मंडियों में आम तौर पर दिखने वाली कॉमन बैरोन तितली आम से अपना भोजन प्राप्त कर रही थी। जबकि दिल्ली में लाल पिएरॉट तितली के आगमन का कारण दिल्ली में उगाया जा रहा “कलंचो पिननाटा” नामक एक विदेशी सजावटी पौधा है, जिससे यह तितली अपना भोजन लेती है। इसी तरह कॉमन जय तितली का राजधानी में दक्षिण भारत से करी पत्ता के पौधे के साथ आगमन माना जाता है।
पर दिल्ली के तितली संसार के हालात इतने अच्छे भी नहीं है। 1986 में लार्सन की तितलियों की गणना के बाद से राजधानी में तितलियों की कुछ विशेष प्रजातियों की संख्या में कमी आई है या वे पूरी तरह से लुप्त प्रायः हो गई है। इन प्रजातियों में से प्रमुख हैं ब्लैक राजा, कॉमन सैलर, जेंट रेडये, इंडियन फ्र्रिटलरी, कॉमन प्योरॉट, कॉमन रोज, क्रिमसन रोज, टैवनी कॉस्टर और इंडियन ईजेबल। इससे बड़ी विडम्बना की बात क्या होगी कि इसमें “इंडियन ईजेबल” प्रजाति की तितली भी शामिल है, जिसकी सुंदरता पर मोहित होकर लार्सन ने भारत में ही तितलियों का अध्ययन आरंभ किया था।
दिल्ली ही नहीं बल्कि देश भर में तितलियों के लिए अनुकूल पर्यावास में कमी आई है। भारत, थाईलैंड समेत विश्व के कई देशों में तितलियों के मारने पर रोक है, इसके बावजूद यहां पर अवैध तरीके से तितलियों को निशाना बनाया
जा रहा है। केरल और पूर्वोत्तर भारत में सबसे ज्यादा तितलियों का शिकार किया जा रहा है। इसके अलावा, चिंता की बात यह है कि कीटनाशकों के छिड़काव से भी तितलियां मर रही हैं।