अनु शक्ति सिंह
”एक भी बार ऐसा और किए भैया तो देख लीजिएगा कोई बचाने वाला नहीं होगा, हम अभिये बता देते हैं” इस कड़क धमकी को सुनते ही वो लड़का रनिया की सब्जी की रेहड़ी से दूर छिटक खड़ा हुआ। कभी रनिया को देखती और कभी उस लड़के को मैं बड़ी अचम्भे में थी। रनिया मम्मी की पसंदीदा सब्जी वाली है इसलिए इसे मैं काफी दिनों से जानती हूं परंतु इसका रौद्र रूप मैंने पहले कभी नही देखा था। मामला क्या था ये तब पता चला जब हम उसकी रेहड़ी तक पहुंचे। आग्नेय नेत्रों से उस दूर खड़े लड़के को घूरते हुए रनिया ने बताना शुरू किया कि ”दीदी ये छोकरा आया तो था सब्जी लेने, लेकिन ज़्यादा छू-छा कर रहा था। बस हम उसको मजा चखा दिए। अबकी बार आएगा तो हाथे तोड़ देंगे।”
मुझे पता नहीं था कि रनिया इतनी मजबूत महिला है। इस 20-22 साल की लड़की ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है लेकिन दृढ़ इच्छशक्ति उसे ईश्वर-प्रदत्त है। सब्जी बेचकर पूरे परिवार का पेट पालती है और नाइंसाफी नहीं बर्दाश्त करती है।
नारी सशक्तिकरण क्या होता है, उसने ये कभी सुना भी नहीं होगा लेकिन उसके एक-एक भाव बताते हैं कि वो एक सशक्त महिला है। रनिया ही क्यों, मेरे आस-पास ऐसे उदाहरण तो बिखरे पड़े हैं जिनका पाला ‘महिला-सशक्तिकरण’ जैसे बज़ वर्ड से भले ही न पड़ा हो लेकिन उनकी जि़न्दगी का हर एक लम्हा एक सशक्त नारी की छवि को रेखांकित करता है। अब मेरे घर काम करने वाली अनरसा बुआ को ही ले लीजिए।
अनरसा बुआ को मैं याद नहीं कब से देखती आ रही हूं पर इतना जरूर याद है कि अनरसा बुआ सब दिन अकेली ही रहती आई है, अपनी बूढी मां और दो बेटों को पालते-पोसते। बुआ को उनका पति भरी जवानी में छोड़ भाग गया था और तब से अपनी परेशानियों से जूझते हुए और नियति से बदस्तूर लड़ते हुए अपने दोनों बेटों को ससम्मान इस काबिल बना दिया की वो दो वक्त की रोटी का अच्छे से जुगाड़ कर लें इतना ही नहीं, अनरसा बुआ ने दो-चार घर में बर्तन-बासन करके संचित अपनी कमाई से 7 धुर ज़मीन खरीदा और मां का श्राद्ध भी किया। अनरसा बुआ के चचेरे भाई की बेटी सीता भी अपने इरादों की कम पक्की नहीं। मिड्ल पास सीता की शादी पास के ही गाँव के मैट्रिक पास रामचरण से हुई थी। और इस दारूबाज लड़के के पास ‘मैट्रिक’ के सर्टिसर्टफिकेट के अलावा कोई और गुण नहीं था। रोज़ तारी-ठर्रा पीकर तंग करने वाले इस लड़के को छोडऩा बेहतर समझा सीता ने और आ गयी वापस मायके। सबने वापस भेजने की बड़ी कोशिश की लेकिन सीता अपने फैसले पर अडिग रही और अपनी पढ़ाई चालू कर दी। समाज की तमाम लांछनाओं को सहते हुए सीता आज प्राइमरी स्कूल की इंटर पास शिक्षिका है। अनरसा बुआ, सीता और रनिया कोई एलियन नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज का वो हिस्सा हैं जो हमें नारी की वास्तविक सशक्तता की बड़ी साफ झलकी दिखाते हैं।
जब भी रनिया की ओर देखती हूं वो असंख्य पढ़ी-लिखी लड़कियां याद आ जाती हैं जो की घर और वर्क प्लेस का शोषण लोक -लाज के डर से सह जाती हैं और कथित रूप से शक्ति सम्पन्न होने के बावज़ूद अशक्तरह जाती हैं, वहीं अनरसा बुआ एक उत्तम बेटी और बहुत ही सुलझी हुई औरत के तौर पर निखर कर सामने आती हैं, जिन्होंने सामजिक नियम कानून के दायरे में दबने की जगह खुल कर जीना पसंद किया और अपने बेटों को भी लायक बनाया और सीता उन सभी ललनाओं को मुंह चिढ़ाती हुई नज़र आती है जिन्होंने पति और नियति के आगे अपने आप को तुच्छ मान लिया है। इनके अलावा गाँवों की वो औरतें भी शहर की चहारदीवारी में सिमटी-शरमाई नाजनीनों की तुलना में ज़्यादा सशक्त और बिंदास नजऱ आती हैं जो बिना किसी मर्द का सहारा लिए बच्चे पालने और मवेशी चराने के साथ-साथ धान भी कुशलता से काट आती हैं। अपनी नगण्य शिक्षा और निम्न सामाजिक स्थिति के मद्देनज़र अक्सर बॉयकॉट कर दी जाने वाली ‘वन वुमन आर्मी’ ये महिलाएं ‘शक्ति शालिनी-स्त्री’ का अलख जगाती हैं और एक अनछुए कोने से नारी-सशक्तिकरण की बयार सी बहती है।
(लेखिका के अपने विचार हैं।)