किसान और कॉर्पोरेट के लिए कर्ज़ माफी का पैमाना एक हो

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जैसे ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 36,359 करोड़ की कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा की, मेरे समक्ष प्रश्नों की बाढ़ सी आ गई। केवल सवाल ही नहीं बल्कि गुस्से से भरी प्रतिक्रियाएं भी आई हैं कि किस बात पर मैं ये कहता हूं कि इस प्रकार की कर्ज़ा माफ़ी का कोई आर्थिक पहलू भी हो सकता है।

ये सवाल एक ओर तो लम्बे समय से कर्जे में फंसे किसानों को राहत देने के बारे में हैं, तो दूसरी ओर इस रक़म को देश में आधारभूत ढांचे में सुधार के लिए लगाने के बारे में उठाए जाते हैं। और हां ऋण माफी किस तरह सरकार के राजकोषीय प्रबन्धन पर असर डालेगा।

यदि आप एक किसान हैं, तो आपको ये समझना चाहिए। जब कृषि को सहारा देने की बात आती है, तो केवल सरकार और नीति नियोजक ही नहीं, बल्कि शहरों में रहने वाले वो पढ़े-लिखे लोग भी हैं जो आपत्तियां उठाते हैं। मैंने ऐसा बार-बार होते देखा है और ऐसा इसलिए है क्योंकि वो मध्यवर्ग जो इंडिया में रहता है , और वो किसान जो भारत में रहते हैं उन दोनों के बीच खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।

इंडिया रेटिंग्स, जो कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसी हैं, के अनुसार चार लाख करोड़ से ज्यादा की ऋण माफ़ी कॉर्पोरेट क्षेत्र को दिए जाने की सम्भावना है। प्रमुख वित्त सलाहकार अरविन्द सुब्रमनियम कह चुके हैं कि ‘कॉर्पोरेट क्षेत्र की ऋण माफ़ी आर्थिक रूप से उचित है। पूंजीवाद ऐसे ही काम करता है।’अगर ये सही है, तो फिर ये पूंजीवाद किसानों के लिए काम क्यों नहीं करता ?

इसके लिए जिम्मेदार केवल आर्थिक असमानता ही नहीं , बल्कि आर्थिक सोच में अंतर भी है जिसके वजह से ये खाई निरन्तर चौड़ी होती जा रही है। 36,359 करोड़ रुपए की कर्ज़ा माफ़ी निश्चय ही एक बड़ी रक़म है लेकिन ये उत्तरप्रदेश की जनसंख्या के एक बहुत बड़े हिस्से की मदद करता है। 210 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों में से 95 लाख किसान इससे राहत पाने वाले हैं। जरा कल्पना कीजिए कि इस कर्जा माफ़ी ने किसानों के कन्धे पर लदे कितने भरी बोझ को कम कर दिया है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि किसान भी उद्यमी हैं, और ज़रा सी आर्थिक मदद उन्हें अपने आर्थिक विकास के सपने के और नज़दीक ले जाएगी।

खेती-किसानी, कृषि नीति और किसानों की समस्याओं पर आधारित देविंदर शर्मा के अऩ्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

इसके विपरीत, कॉर्पोरेट कर्ज़ा माफ़ी केवल चन्द लोगों से ही सम्बंधित हैं और मैंने देखा कि वही लोग जो कृषि ऋण माफ़ी पर ढेरों सवाल उठाते हैं, वही कॉर्पोरेट ऋण माफ़ी के मुद्दे पर संदिग्ध रूप से खामोश हो जाते हैं। मैंने कभी किसी अर्थशास्त्री या आर्थिक लेखक को बहुत भारी कॉर्पोरेट कर्ज़ा माफ़ी के कारण होने वाले राजकोषीय घाटे पर सवाल उठाते नहीं देखा। दरअसल ये सोचीसमझी रणनीति है जिसके तहत छोटे खेतीबाड़ी से सम्बंधित कर्ज़ा माफ़ी तो राज्य की जिम्मेदारी मानी जाती है , और भारी भरकम कॉर्पोरेट कर्ज़ा माफ़ी केवल बैंकों का व्यापार जिसका राज्य और केंद्र सरकार के वित्त से कुछ लेना-देना नहीं इसीलिए इसका राजकोषीय घाटे पर भी असर पड़ने का सवाल ही नहीं। यही वजह है, कि साधनों में वृद्धि के लिए राज्य सरकार किसान बॉन्ड लागू करती है।

‘यदि किसी राज्य के संसाधन हैं और वो उन्हें और बढ़ाना चाहते हैं , तो इसके लिए उन्हें अपने संसाधन खुद ही बढ़ाने पड़ेंगे। इससे केंद्र किसी एक राज्य की मदद करे और दूसरे की नहीं, ये परिस्थिति आएगी ही नहीं।’ ये बात हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राज्य सभा में कही। दूसरे शब्दों में उनकी कही बात का अर्थ था कि कर्ज़ा माफ़ी राज्य सम्बंधित विषय है। कृषि समाज को ऋणग्रस्तता से बाहर निकलने के लिए राज्यों को अपने संसाधन इस्तेमाल करने चाहिए।

मैं मानता हूं कि कृषि राज्य संबंधित विषय है लेकिन बात जब उद्योग-धंधों की आती है, जो कि राज्य के विषय ही हैं, तब उनकी भारी और डूबन्त कर्जमाफी के वक्त वित्त मंत्री को तनिक कष्ट नहीं होता। और इस डूबन्त यानि न वसूल हो सकने वाले कर्जे का आंकणा ज्ञात है आपको? संसद की लोक लेखा समिति के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के इस ‘ नॉन परफॉर्मिंग एसेट’ का कुल मूल्य तकरीबन 6.8 करोड़ रुपए है। इसमें से 70 प्रतिशत हिस्सा कॉर्पोरेट का है, जबकि केवल एक प्रतिशत दोषी कृषकों का।

इंडिया रेटिंग्स, जो कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसी हैं, के अनुसार चार लाख करोड़ से ज्यादा की ऋण माफ़ी कॉर्पोरेट क्षेत्र को दिए जाने की सम्भावना है। प्रमुख वित्त सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मण्यम कह चुके हैं कि ‘कॉर्पोरेट क्षेत्र की ऋण माफ़ी आर्थिक रूप से उचित है। पूंजीवाद ऐसे ही काम करता है।’

अगर ये सही है, तो फिर ये पूंजीवाद किसानों के लिए काम क्यों नहीं करता ?

आखिरकार उद्योग और किसान दोनों ही राष्ट्रीयकृत बैंकों के दोषी हैं इसीलिए इनसे एक सा ही व्यवहार किया जाना चाहिए। 2012 से 2015 के बीच लगभग 1.14 लाख करोड़ के कॉर्पोरेट एनपीए का कर्ज माफ़ कर दिया जा चुका है। हैरानी है, कि किसी भी राज्य सरकार से नहीं कहा गया कि वो अपने संसाधनों से इसका खर्च उठाए इसीलिए ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कृषि ऋण माफ़ी के वक्त राज्यों से इसे अपने संसाधनों से वहन करने को क्यों कहा जाता है?

स्टील महामानवों का ही उदाहरण लीजिए। बिजनेस स्टैंडर्ड (23 मार्च) की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमन्त्री कार्यालय (पीएमओ) खुद स्टील कम्पनियों के न चुकाए गए कर्जे की माफ़ी के लिए दख़ल देगा। इसके अनुसार पीएमओ वित्त मंत्रालय के साथ एक नए पैकेज के बारे में विचार कर रहा है जिनसे इन टॉप स्टील कम्पनियों और इनके कोई 40 स्ट्रेस्ड अकाउंट्स को राहत दी जा सके। इन कम्पनियों का कुल ऋण 1.4 लाख करोड़ रुपए के लगभग आता है। इसकी तुलना में पंजाब और उत्तर प्रदेश का कुल कृषि ऋण मिलाने पर भी 75000 करोड़ से ज्यादा नहीं होगा।

भूषण स्टील जिसे सरकार अधिग्रहित करने वाली है, उस अकेले का ऋण 44.478 करोड़ रुपए है जो पंजाब के कुल डूबन्त कृषि ऋण 36,000 हजार करोड़ से ज्यादा है। जिंदल पावर एंड स्टील को 44,140 करोड़ का भुगतान करना है, जो उत्तर प्रदेश की कर्ज माफ़ी 36,359 करोड़ से ज्यादा ही है। भूषण स्टील और जिंदल स्टील इन दोनों के ही कॉर्पोरेट ऑफिस दिल्ली में ही हैं लेकिन कभी भी दिल्ली सरकार से अपने संसाधनों से ऋण माफ़ी के लिए नहीं कहा गया।

महाराष्ट्र 30,500 करोड़ की कृषि कर्ज़ा माफ़ी चाहता है। ये उस 34,929 करोड़ की राशि से कम है , जो अकेला एस्सार स्टील को भुगतान करना है। ये कहां का इन्साफ है कि सरकार एस्सार स्टील का कर्ज़ा तो खुद माफ़ कर दे और महाराष्ट्र सरकार से कहे कि कृषि ऋण माफ़ी वो अपने संसाधनों से ही करे?

इसी लिए कृषि और कॉर्पोरेट ऋण दोनों को ही एक साथ रखना चाहिए क्योंकि कृषि और उद्योग दोनों ही राज्य विषयक हैं। फिर ये तो अनुचित है, कि ऋण माफ़ी के सम्बन्ध में दोनों को अलग-अलग समझा जाए।

जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक राज्य ऋणग्रस्त किसानों की मदद में कठिनाई अनुभव करेंगे। इसीलिए राज्यों को कृषक कर्ज़ माफ़ी अपने संसाधनों से करने के लिए मना कर देना चाहिए। केवल राष्ट्रीकृत बैंकों के प्रति कृषि डूबन्त ऋण माफ़ी के लिए ही नहीं, बल्कि कॉर्पोरेट ऋण माफ़ी के लिए भी जिम्मेदारी नाबार्ड ( नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चरल और रूरल डिवलेपमेंट) की ही होनी चाहिए।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निज़ी विचार हैं।)

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